(प्रारंभिक परीक्षा- भारतीय राज्यतंत्र और शासन- लोकनीति व अधिकारों संबंधी मुद्दे इत्यादि)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 व 2 : सामाजिक सशक्तीकरण, स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र व सेवाओं का विकास)
संदर्भ
तीन कृषि कानूनों के विरोध में प्रदर्शन कर रहे किसानों को रोकने के लिये सरकार ने आवाजाही के मार्गों की नाकेबंदी के साथ-साथ इंटरनेट को बंद कर दिया। इसे ‘विरोध के लोकतांत्रिक अधिकारों’ का हनन माना जा रहा है, और इसे लेकर किसानों को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन भी प्राप्त हो रहा है। हालाँकि, सरकार ने इसे भारत का ‘आंतरिक मामला’ मानते हुए वैश्विक समर्थन का विरोध किया है।
मानवाधिकार : एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा
- किसान प्रदर्शन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिये एक पर्यावरण कार्यकर्ता की गिरफ़्तारी ने मानवाधिकारों से संबंधित मुद्दों को उठाने वालों को अपराधी घोषित करने संबंधी प्रशासन की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
- शासन के इस दृष्टिकोण की पुष्टि सोशल मीडिया साइट्स के प्रति उसके व्यव्हार से भी होती है, क्योंकि सरकार के विपरीत दृष्टिकोण रखने वाले एकाउंट्स को ब्लॉक करने के निर्देश दिये गए हैं।
- उल्लेखनीय है कि विभिन्न देशों द्वारा आंतरिक मामला बताकर किये जाने वाले बलात् व गैर-कानूनी कृत्यों को न्यायसंगत ठहराने का प्रयास मानवाधिकारों के प्रति राज्य के संकीर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है।
अधिकार से संबंधित विचारों का विकास और भारत
- दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन का विरोध करने के लिये भारत ने विश्व को एक-साथ लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- भारत 1950 के दशक से ही मावाधिकारों की रक्षा के लिये किसी अंतर्राष्ट्रीय तंत्र को स्थापित करवाने के लिये प्रयासरत रहा। इसी क्रम में, संयुक्त राष्ट्र द्वारा ‘रंगभेद-रोधी संयुक्त राष्ट्र विशेष समिति’ का गठन किया गया।
- बीसवीं सदी में हस्ताक्षरित मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने ऐसी शर्तें निर्धारित कीं, जिनसे प्रत्येक स्थान पर रहने वाले व्यक्तियों के मूलभूत अधिकारों और स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया गया।
- भारत, 'अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय विधेयक' का मसौदा तैयार करने वाले प्रथम मानवाधिकार आयोग का सदस्य था। जनवरी 1947 से 10 दिसंबर, 1948 तक मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का मसौदा तैयार किया गया। इस प्रकार, मानवाधिकार भारत का एक अंतर्निहित भाव है, न कि औपनिवेशिक शासन से प्राप्त विचार।
- इसके अतिरिक्त, संयुक्त राष्ट्र के चार्टर को भी भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने खासा प्रभावित किया, जिससे इसका दायरा अधिक व्यापक और प्रभावी बना।
अधिकारों में अंतर्संबंध
- भारत के संविधान निर्माताओं ने भारतीय समाज की संरचना में बुनियादी परिवर्तन करने और निरंकुशता को सभी रूपों में समाप्त करने के पूरी कोशिश की।
- संविधान की उद्देशिका में उल्लिखित ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ जैसे मानवीय मूल्य फ्राँसीसी क्रांति से काफी प्रभावित हैं। भारतीयों को अपनी पूरी क्षमता का विकास करने के लिये ये तीनों एक-साथ आवश्यक थे।
- डॉ. अम्बेडकर के अनुसार, समानता के बिना स्वतंत्रता कुछ विशेष लोगों के वर्चस्व में ही वृद्धि करेगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्तिगत पहल को समाप्त कर देगी और बंधुता के बिना स्वतंत्रता कई लोगों के वर्चस्व को स्थापित करेगी।
भारत के हालिया प्रयास
- विभिन्न घटनाक्रमों के आलोक में, देश में भारत में लोकतांत्रिक अधिकारों की गिरावट के बीच स्वतंत्रता व समानता संबंधी में अंतर्राष्ट्रीय चिंताओं के विरोध में सरकार ने देश की संप्रभुता का हवाला दिया है।
- यदि अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के संदर्भ में बात करें तो भारत ने श्रीलंका में तमिलों के अधिकारों की रक्षा के लिये अधिक प्रयास करने पर ज़ोर दिया है। साथ ही, हालिया नागरिकता (संशोधन) अधिनियम में तीन पड़ोसी देशों के व्यक्तियों को नागरिकता देने का आधार भी मानवाधिकार को बनाया गया है।
- सार्वभौमिक मानवाधिकारों और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार के संबंध में भारत का अब तक का सबसे बड़ा प्रयास बांग्लादेश की मुक्ति है, जहाँ भारत ने इन सिद्धांतों को लागू करने का नेतृत्व किया। इसके अतिरिक्त, चीनी उत्पीड़न से पीड़ित दलाई लामा की मेज़बानी भी मानवाधिकारों के लिये भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाती है।
वास्तविकता को स्वीकारने की समस्या
- घरेलू स्तर पर, इस संदर्भ में जम्मू व कश्मीर का उदाहरण भी उल्लेखनीय है। यहाँ वैश्विक समर्थन प्राप्त करने के लिये भारत ने कई अंतर्राष्ट्रीय प्रयास किये, जबकि इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय विरोध को आंतरिक मामला बताकर दरकिनार कर दिया गया, जोकि विरोधाभासी दृष्टिकोण के साथ-साथ दूसरी गंभीर चिंताओं को भी जन्म देता है।
- देश में लोकतांत्रिक अधिकारों से संबंधित वैश्विक चिंताओं को सिर्फ सोशल मीडिया पर रोक लगाकर ख़त्म नहीं किया जा सकता है। वस्तुतः इस संदर्भ में भारत की वास्तविकत समस्या उसकी अंतर्राष्ट्रीय छवि को लेकर नहीं, बल्कि यथार्थता को स्वीकार करने की है।
- यदि भारत अपनी बेहतर छवि को बनाए रखना चाहता है तो उसे यथार्थता को स्वीकार करते हुए वर्तमान परिस्थितियों में जनकेंद्रित बदलाव लाकर सर्वोत्तम लोकतांत्रिक प्रथाओं का अनुपालन करना चाहिये।