(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन एवं कार्य- सरकार के मंत्रालय व विभाग, प्रभावक समूह और औपचारिक/अनौपचारिक संघ तथा शासन प्रणाली में उनकी भूमिका) |
संदर्भ
हाल ही में, कलकत्ता उच्च न्यायालय व केरल उच्च न्यायालय ने हत्या के अलग-अलग मामलों में अलग-अलग निर्णय दिए। एक मामले में जहाँ केरल उच्च न्यायालय ने मृत्युदंड की सजा दी, वहीं दूसरे मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने आरोपी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। ऐसे में न्यायपालिका के ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ (Rarest of Rare) सिद्धांत के प्रति दृष्टिकोण पर बहस शुरू हो गई है। वर्तमान में भारत में इस सिद्धांत की कोई वैधानिक परिभाषा नहीं है।
दुर्लभतम में दुर्लभ सिद्धांत का उद्भव
जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद, 1972
- इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड की संवैधानिकता को बरकरार रखा था। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मृत्युदंड अनुच्छेद 19 के तहत गारंटीकृत सभी मौलिक अधिकारों को समाप्त कर देता है, इसलिए, मृत्युदंड अनुचित है और आम जनता के हित में नहीं है।
- याचिकाकर्ता के अनुसार न्यायाधीशों के पास मृत्युदंड एवं आजीवन कारावास के बीच निर्णय लेने के लिए कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं। स्पष्ट नियमों की कमी संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है जो कानून के समक्ष समता की गारंटी देता है।
- हालाँकि, न्यायालय ने अपील को खारिज करते हुए पुष्टि की कि मृत्युदंड अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक है। मृत्युदंड की सजा देने पर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश न होने का अर्थ था कि न्यायाधीशों के पास निर्णय लेने के लिए व्यापक विवेक था।
बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद, 1980
- इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ (Rarest of Rare) सिद्धांत की स्थापना की। इस मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि मृत्युदंड का उपयोग केवल असाधारण मामलों में ही किया जाना चाहिए।
- हालाँकि, इसने ‘दुर्लभतम में से दुर्लभतम’ का अर्थ नहीं स्पष्ट किया गया जिससे अधिक भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई।
मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद, 1983
- इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ सिद्धांत के लिए एक स्पष्ट रूपरेखा प्रदान की। न्यायालय ने अपराधों की पाँच श्रेणियों की पहचान की जहाँ ऐसी सज़ा उचित है। इनमें शामिल हैं :
- हत्या का तरीका : जब हत्या अत्यंत क्रूर एवं नृशंस तरीके से की जाती हो ताकि समुदाय में अत्यधिक आक्रोश उत्पन्न हो।
- हत्या का मकसद : जब हत्या ऐसे मकसद से की जाती है जो पूर्ण भ्रष्टता को प्रकट करता है।
- अपराध की सामाजिक रूप से घृणित प्रकृति : जब किसी अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति की हत्या व्यक्तिगत कारणों से नहीं बल्कि ऐसी परिस्थितियों में की जाती है जो सामाजिक आक्रोश उत्पन्न करती है।
- अपराधी का व्यक्तित्व : जब हत्या का शिकार कोई बच्चा, असहाय महिला, वृद्धावस्था या अशक्तता के कारण असहाय व्यक्ति आदि हो।
- अपराध की भयावहता
मिठू बनाम पंजाब राज्य वाद, 1983
- मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य में निर्धारित ढाँचे के बावजूद इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 303 को निरस्त कर दिया जिसमें आजीवन कारावास की सजा काटते समय हत्या करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए अनिवार्य मृत्युदंड निर्धारित किया गया था।
- न्यायालय ने टिप्पणी की कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 के विरुद्ध है। इसलिए, हत्या से संबंधित सभी मामलों को आई.पी.सी. की धारा 302 के अनुसार निपटाया जाएगा।
- आई.पी.सी. की धारा 302 के अनुसार जो कोई भी हत्या करता है, उसे मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी और जुर्माना भी देना होगा।
- सितंबर 2022 में सर्वोच्च न्यायालय ने दुर्लभतम में दुर्लभ मामलों के निर्धारण को संविधान पीठ को संदर्भित किया।
दुर्लभतम में दुर्लभ मामलों के लिए सुझाव
मानकीकृत दिशा-निर्देशों का निर्धारण
दुर्लभतम में दुर्लभ मामलों के लिए एक समान दिशा-निर्देश निर्धारित किए जाने चाहिए। इससे विभिन्न न्यायविदों के मन में विद्यमान अस्पष्टता को दूर करने में मदद मिल सकती है।
सावधानी एवं तर्कसंगतता के साथ उचित निर्णय
मृत्युदंड की सजा देते समय यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यद्यपि अभियुक्त ने क्रूर कार्य किया है, किंतु, यदि कोई संभावना यह सिद्ध करती है कि अभियुक्त समाज को और अधिक नुकसान नहीं पहुँचाएगा तो इस आधार पर उसे मृत्युदंड नहीं दिया जाना चाहिए।
मृत्युदंड के निष्पादन में देरी न होना
- त्रिवेणी बाई बनाम गुजरात राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि उचित आधार पर निष्पादन प्रक्रिया में देरी होनी चाहिए, ताकि अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई मिल सके।
- हालाँकि, यह सुझाव दिया गया कि मृत्युदंड की सजा के बाद इसके निष्पादन में कोई देरी नहीं होनी चाहिए।
- इसका अर्थ यह नहीं है कि अभियुक्त को अपील करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि इसके लिए केवल एक निश्चित अवधि होनी चाहिए।
उचित विश्लेषण के पश्चात ही अनुशंसा
मृत्युदंड देने से पहले संवैधानिक पीठ को मामले के हर पहलू का सटीक विश्लेषण करने के साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह निर्णय जल्दबाजी में नहीं दिया गया है।
कृत्य के अनुरूप दंड
कृत्य की गंभीरता के अनुसार मृत्युदंड का निष्पादन होना चाहिए जो संभावित अपराधियों के बीच डर उत्पन्न कर एक निवारक के रूप में कार्य करे और उन्हें इस तरह के जघन्य अपराध करने से रोके। छोटे अपराधों में मृत्युदंड नहीं दिया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
भारत में मृत्युदंड का प्रयोग जटिल एवं विवादास्पद बना हुआ है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में एक निश्चित रूपरेखा प्रदान की है किंतु ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ की अस्पष्ट परिभाषा न्यायिक स्वविवेक या अनिश्चितता को जन्म देती है।