(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा व बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय) |
संदर्भ
सर्वोच्च न्यायालय की एक टिप्पणी के अनुसार, कैदियों के साथ जाति आधारित भेदभाव, जाति पदानुक्रम के अनुसार उनके कार्यों का पृथक्करण तथा संपूर्ण भारत में जेल में गैर-अधिसूचित जनजाति के कैदियों के साथ ‘आदतन अपराधी’ जैसा व्यवहार मौलिक मानवीय गरिमा एवं व्यक्तित्व के लिए दमनकारी है।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश
- सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को तीन महीने के अंदर जेल मैनुअल की उन धाराओं को संशोधित करने का निर्देश दिया है जो जातिगत पूर्वाग्रह एवं भेदभाव को बढ़ावा देने वाली हों।
- इसने जेलों में विचाराधीन कैदियों एवं दोषियों के रजिस्टर में ‘जाति कॉलम’ के साथ-साथ जाति के किसी भी संदर्भ को हटाने का आदेश दिया है।
- न्यायालय ने अपने निर्णय में इस बात पर बल दिया है कि विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए।
- सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को तीन महीने में मॉडल जेल मैनुअल, 2016 और मॉडल जेल एवं सुधार सेवा अधिनियम, 2023 में जाति-आधारित भेदभाव वाले नियमों में सुधार का निर्देश दिया है।
- न्यायालय के अनुसार, ‘प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से जन्म लेता है’ और वह अपनी जाति से संबंधित कलंक के कारण आजीवन पीड़ित नहीं रह सकता है।
संवैधानिक एवं मौलिक अधिकारों का उल्लंघन
- मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने अनुच्छेद 15(1) का उल्लेख किया जिसमें भेदभाव के विरुद्ध मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है।
- मुख्य न्यायाधीश के अनुसार, यदि राज्य (राष्ट्र) स्वयं किसी नागरिक के साथ भेदभाव करता है तो यह उच्चतम स्तर के भेदभाव के अंतर्गत आता है। राज्य से भेदभाव निवारण की उम्मीद की जाती है, न कि इसे बनाए रखने की।
- कैदियों में भेदभाव एवं जाति आधारित कार्यों का वितरण अस्पृश्यता के समान ही है, जो संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत निषिद्ध है।
- अपमानजनक श्रम एवं दमनकारी प्रथाएँ संविधान के अनुच्छेद 23 के तहत बलात् श्रम के विरुद्ध अधिकार का उल्लंघन हैं।
- जेल नियमावली, विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों के व्यक्तियों को ‘जन्मजात एवं आदतन अपराधी’ मानकर औपनिवेशिक काल के जाति आधारित भेदभाव की पुष्टि करती है।
- ब्रिटिश काल के दौरान विमुक्त एवं घुमंतू जनजाति समुदायों को ‘जन्मजात एवं आदतन अपराधी’ के रूप में अधिसूचित किया गया था।
- न्यायालय ने जेल नियमावली में ‘आदतन अपराधियों’ के संबंध में उन सभी संदर्भों को असंवैधानिक घोषित कर दिया है जो वैधानिक रूप से समर्थित नहीं हैं।
दमनकारी स्वरुप
- सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, जाति के आधार पर कैदियों को अलग करना जातिगत विभेद को बढ़ावा देगा।
- कैदियों की कार्य योग्यता, आवास की ज़रूरतों, विशेष चिकित्सा एवं मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों जैसे कारकों पर आधारित वर्गीकरण ही संवैधानिक रूप से मान्य होगा।
- हाशिए पर स्थित जाति के कैदियों को कोई विकल्प प्रदान किए बिना और पूर्णतया उनकी जाति पर आधारित कार्यों, जैसे- शौचालय साफ करने या झाड़ू लगाने के लिए मजबूर करना एक दमनकारी प्रथा का स्वरुप है।
मैन्युअल स्कैवेंजिंग के लिए कोई वर्ग/समुदाय नहीं
- ऐसे जेल मैनुअल एवं नियम, जो मैन्युअल स्कैवेंजिंग जैसे कार्यों को सबसे निचली जातियों के लिए निर्धारित करने वाले हैं और उन्हें ‘मैला ढोने वाला वर्ग’ कहते हैं, वे अस्पृश्यता के समान हैं।
- न्यायालय के अनुसार, ‘मैन्युअल स्कैवेंजिंग (रोजगार का निषेध एवं उनका पुनर्वास) अधिनियम, 2013’ जेलों में भी बाध्यकारी है।
मैन्युअल स्कैवेंजिंग (रोजगार का निषेध एवं उनका पुनर्वास) अधिनियम, 2013
- मैनुअल स्कैवेंजिंग सीवर या सेप्टिक टैंक से मानव मल को हाथ से हटाने या साफ़ करने की प्रथा है।
- ‘मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में रोजगार का निषेध एवं उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 के अनुसार 6.12.2013 से देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग को प्रतिबंधित कर दिया गया है।
- कोई भी व्यक्ति या एजेंसी मैनुअल स्कैवेंजिंग के लिए किसी भी व्यक्ति को नियुक्त या नियोजित नहीं कर सकती है। उल्लंघन की स्थिति में इस अधिनियम की धारा-8 के अंतर्गत 2 वर्ष तक की कैद या एक लाख रुपए तक का जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
- सेप्टिक टैंक, गड्ढों या रेलवे ट्रैक की सफाई में नियोजित लोगों को शामिल करने के लिये वर्ष 2013 में मैनुअल स्कैवेंजिंग की परिभाषा को भी विस्तृत किया गया था।
- यह अधिनियम मैनुअल स्कैवेंजिंग को ‘अमानवीय प्रथा’ मानता है और मैनुअल स्कैवेंजर्स द्वारा झेले गए ऐतिहासिक अन्याय एवं अपमान की क्षतिपूर्ति की आवश्यकता पर बल देते हुए पुनर्वास पर जोर देता है।
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