( प्रारंभिक परीक्षा -आर्थिक और सामाजिक विकास,मुख्य परीक्षा -प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता, सरकारी बजट, प्रश्नपत्र-4)
संदर्भ
- भारत की लगभग 60% आबादी कृषि पर निर्भर है, जबकि जी.डी.पी में उनका योगदान महज 13-14% तक ही सीमित है।
- अधिकतर छोटी जोत वाले कृषक गरीबी रेखा के नीचे हैं। इसके बावजूद कृषक देश को आत्मनिर्भर बनाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते रहे हैं।
- यह क्षेत्र ऐसा है जिस पर भौगोलिक स्थिति का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। सरकार ने कृषि के उत्थान के लिये तीन नए कृषि कानून बनाए हैं लेकिन इसके लिये हो रहा विरोध सरकार के प्रति जन असंतुष्टि को प्रकट कर रहा है।
बजट 2021 में कृषि क्षेत्र
- वित्तीय समावेशन के अंतर्गत वर्ष 2022 तक कृषकों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य को साधने हेतु किसानों के लिये कृषि ऋण लक्ष्य को 5 लाख करोड़ रुपए तक कर दिया गया है, इसमें भी पशुपालन और मत्स्यकी के लिये ऋण अधिक सुलभ होंगे।
- ग्रामीण अवसंरचना विकास को 30,000 करोड़ से बढ़ाकर 40,000 करोड़ तक कर दिया गया है।
- नाबार्ड के तहत सूक्ष्म सिंचाई फंड को दोगुना करने का लक्ष्य है।
- कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय को 131531 करोड़ रुपए आवंटित किये गए हैं।
- ग्रामीण विकास मंत्रालय को 133690 करोड़ रूपए दिये गए हैं। साथ ही, लगभग 1000 नई मंडियों को ई – नाम से जोड़ना निर्धारित किया गया है।
- सरकार ने यह भी निश्चित किया है कि एम.एस.पी. पर प्राप्त अधिमूल्य को कृषि लागत से कम से कम 1.5 गुना रखा जाय। इसी सिलसिले में गेहूँ के लिये भुगतान राशि जो वर्ष 2019-20 में 62,802 करोड़ थी, वर्ष 2020-21 में यह 75,060 करोड़ तक पहुँच गई है तथा इससे लाभान्वित किसानों की संख्या वर्ष 2019-20 में 57 लाख से बढ़कर वर्ष 2020-21 में 43.36 लाख हो गई है।
- इसी प्रकार, धान के लिये लाभान्वित किसानों की संख्या 2019-20 में 24 करोड़ से बढकर वर्ष 2020-21 में 1.54 लाख करोड़ हो गई है।
- दाल के लिये वर्ष 2019-20 में 8,285 करोड़ का तथा वर्ष 2020-21 में 10,530 करोड़ का भुगतान किया गया है जो कि वर्ष 2013-14 के मुकाबले 40 गुना अधिक है।
- किसानों का उत्पाद कम से कम समय में देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचे, इसके लिये सरकार द्वारा ‘किसान रेल’ शुरू की गई है।
कृषि की वास्तवकिता
- कपास को कृषक जब कॉटन कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया, टेक्सटाइल कंपनी या व्यापारियों को बेचते हैं तो वे स्वयं को ठगा महसूस करते हैं, इसे एक उदहारण से समझा जा सकता है; वर्ष 1973 में सोने की कीमत में 169 गुना बढ़ोतरी हुई तथा डीज़ल में 91 गुना वृद्धि हुई, वहीं गेहूँ के मूल्य में मात्र 25 गुना की ही वृद्धि देखी गई। यह वस्तुस्थिति न केवल कपास के कृषकों के लिये उत्पन्न होती है बल्कि सभी प्रकार की उपज देने वाले किसानों के सामने प्रकट होती है।
- सरकार के स्वामित्व वाली ‘कृषि बीमा कंपनी’ को 10,000 करोड़ का घाटा हुआ जबकि निजी क्षेत्र की बीमा कंपनी 50,000 करोड़ के फायदे में है। स्पष्ट है सरकार किसानों को हुई हानि की भरपाई नहीं कर पा रही है।
- कई सारे राज्यों, जैसे बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड ने बीमा से जुड़ी इस योजना को बंद कर दिया, इनके अलावा महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश भी लगातार इस योजना को हतोत्साहित कर रहे हैं।
- किसी उपज को एक राज्य से दूसरे राज्य तक पहुँचाने में ईंधन का खर्च आता है। इसके अलावा सड़क उपकर लगाया जाता है, इसमें सरकार को राजस्व की प्राप्ति होती है। इसके अलावा ईंधन से अतिरेक आय का लाभ भी होता है, अंतिम तौर पर इसका उपभोक्ता तथा किसान दोनों पर बोझ पड़ता है फलस्वरूप किसानों को अपनी उपज का दाम गिराना पड़ता है, इसका परिणाम यह होता है कि किसान अपनी लागत न निकाल पाने के कारण ऋण के बोझ तले दब जाता हैं।
- एक लम्बे समय से कृषि शिक्षा और अनुसंधान पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है विकसित देशों की तुलना में कृषि अनुसन्धान काफी कम है इसमें आवंटित राशि को 5% तक बढ़ाने की आवश्यकता है। किंतु सरकार इसको निरंतर कम कर रही है।
- कृषि से सम्बंधित कार्य की पहचान करने, उन्हें संगठित करने तथा फंड देने की आवश्यकता है। यह वर्षो से असंगठित क्षेत्र के हवाले है।
- वास्तव में केंद्र सरकार कृषि अवसंरचना पर व्यय करने के लिये सामान्य माध्यम से आने वाले केंद्र –राज्य राजस्व में अलग से उपकर लगाकर फंड एकत्रित करती है; जैसा कि उसने इस बजट में भी किया है। इसके बावजूद कृषि अवसंरचना में सुधार मात्र संपन्न राज्यों में ही दिखता है; जैसे पंजाब एवं हरियाणा इत्यादि में।
- चालू वित्त वर्ष में ‘वी- शेप’ क्षतिपूर्ति की झलक दिखलाई पड़ रही है, किंतु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कृषि जिंसों की कीमत में मानसून के ठीक न होने के कारण स्वाभाविक वृद्धि हो सकती है, जिसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है; पर सरकार इससे कैसे निपटेगी इसका कोई स्पष्ट निदान बजट में नहीं है।
- व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादन को उनके लागत मूल्य से भी कम दाम में खरीदना तथा बाज़ार में उसे उच्च मूल्य पर बेचना यह बाज़ार तंत्र पर बड़े व्यापारियों के प्रभुत्व को दर्शाता है। एक कृषक जिस दाम में अपनी उपज को बेचता है उसी वस्तु से विनिर्मित उत्पाद को वह बाज़ार मूल्य पर स्वयं उपभोग के लिये नहीं खरीद पाता।