(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी संबंध)
संदर्भ
हाल के दिनों में भारत के समक्ष चीन-पाकिस्तान के रूप में दो-तरफ़ा सैन्य खतरे के रूप में दो-मोर्चों पर चुनौतियाँ (Two-Front War) उत्पन्न हुईं हैं। इस संदर्भ में टू-फ्रंट वॉर की वास्तविकता का आकलन करने के लिये क्षमता निर्माण और राजनीतिक व कूटनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
टू-फ्रंट वॉर संबंधी धारणाएँ
- टू-फ्रंट वॉर के संबंध में दो विपरीत धारणाएँ हैं; पहला, भारतीय सेना का दृष्टिकोण है कि चीन-पाकिस्तान के रूप में दो-तरफ़ा सैन्य खतरा एक वास्तविकता है जिसके लिये क्षमताओं का विकास करना आवश्यक है।
- दूसरी ओर, देश के राजनीतिक वर्ग और रणनीतिक समुदाय के अनुसार, अतिरिक्त संसाधनों व धन हेतु दबाव बनाने के लिये सेना द्वारा टू-फ्रंट वॉर की चुनौती का अधिक प्रचार किया जा रहा था।
- इस संबंध में तर्क है कि ऐतिहासिक रूप से चीन ने कभी भी भारत-पाकिस्तान संघर्ष में सैन्य हस्तक्षेप नहीं किया है। साथ ही, भारत और चीन के मध्य आर्थिक, कूटनीतिक एवं राजनीतिक संबंध दोनों देशों के बीच किसी भी तरह के सशस्त्र संघर्ष की संभावना को ख़ारिज करते हैं। परिणामस्वरूप, भारतीय रणनीतिक विचार पाकिस्तान पर अधिक केंद्रित रहा।
घुसपैठ और अतिक्रमण का प्रभाव
- भारतीय सेना के अनुसार चीन के साथ पारंपरिक संघर्ष की संभावना कम थी जबकि पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के कारण पश्चिमी सीमा पर संघर्ष की संभावना अधिक थी।
- इस वर्ष लद्दाख में चीनी घुसपैठ और भारतीय सेना तथा पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (चीन) के बीच झड़प के साथ बातचीत में गतिरोध ने चीनी सैन्य खतरे को अब अधिक स्पष्ट एवं वास्तविक बना दिया है।
- भले ही वर्तमान में सीमा पर जारी भारत-चीन संकट का शांतिपूर्ण समाधान हो जाए फिर भी चीन की सैन्य चुनौती आने वाले समय में भारतीय सैन्य रणनीतिकारों का ध्यान अधिक आकर्षित करेगी।
- पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा (LOC) पर स्थिति के लगातार बिगड़ने से टू-फ्रंट वॉर की स्थिति अधिक चिंताजनक हो गई है। वर्ष 2017 से 2019 के बीच संघर्ष विराम उल्लंघन में चार गुना वृद्धि हुई है।
चीन-पाकिस्तान सैन्य संबंध
- चीन-पाकिस्तान सैन्य संबंधो में प्रगाढ़ता कोई नई बात नहीं है परंतु वर्तमान में इसका प्रभाव पहले से कहीं अधिक है। चीन ने दक्षिण एशिया में भारत के प्रभाव को कम करने के लिये पाकिस्तान को हमेशा एक विकल्प के रूप में देखा है।
- पिछले कुछ वर्षों में इन दोनों देशों के बीच संबंध अधिक मज़बूत हुए हैं। साथ ही, इनकी रणनीतिक सोच में बहुत अधिक तालमेल भी दृष्टिगोचर होता है। वर्ष 2015 से 2019 के बीच पाकिस्तान के कुल हथियारों के आयात में चीन का हिस्सा 73% था।
- हाल ही में, चीन और पाकिस्तान के मध्य संपन्न शाहीन IX वायु सेना अभ्यास के बाद पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष ने कहा कि इससे दोनों वायु सेनाओं की युद्धक क्षमता में काफी सुधार होगा और उनके बीच अधिक सामंजस्य के साथ अंतर-संचालनीयता में भी वृद्धि होगी।
- टू-फ्रंट वॉर खतरे जैसे परिदृश्य में यदि चीन के साथ उत्तरी सीमा पर संघर्ष आरंभ हो जाता हैं तो ऐसी स्थिति में पाकिस्तान भारत की सैन्य व्यस्तता का लाभ उठाकर जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद व आतंकवाद को बढ़ाने का प्रयास करेगा।
- हालाँकि, पाकिस्तान द्वारा बड़े पैमाने पर संघर्ष की संभावना नहीं है क्योंकि इससे तीन परमाणु सशस्त्र राज्यों के बीच युद्ध छिड़ जाएगा। साथ ही, युद्ध से पाकिस्तान को होने वाले लाभ की अपेक्षा उसकी अर्थव्यवस्था और सेना को दूरगामी नुकसान अधिक होंगे। अत: पाकिस्तान एक हाइब्रिड संघर्ष के रूप में कम जोखिम वाले विकल्प को प्राथमिकता देगा जिसमें युद्ध की संभावना न हो।
- विदित है कि हाइब्रिड युद्ध एक ऐसी सैन्य रणनीति है जिसमें राजनीतिक युद्ध के साथ-साथ पारंपरिक युद्ध, अनियमित युद्ध व साइबर युद्ध को शामिल किया जाता है। साथ ही, इसमें अन्य उपायों, जैसे- फर्जी समाचार, कूटनीति, कानूनी युद्ध और चुनाव में विदेशी हस्तक्षेप का भी प्रयोग किया जाता है।
भारत की दुविधा
- दो-मोर्चों पर संघर्ष की स्थिति में भारतीय सेना के सामने दो मुख्य समस्याएँ- संसाधन और रणनीति की हैं। दोनों पर गंभीर खतरे से निपटने के लिये लगभग 60 लड़ाकू स्क्वाड्रन की आवश्यकता है, जो भारतीय वायु सेना (IAF) के वर्तमान स्क्वाड्रन संख्या की दोगुनी है।
- दोनों मोर्चों पर अलग-अलग युद्ध का सामना करना स्पष्टत: न तो व्यावहारिक है और न ही इस स्तर का क्षमता निर्माण संभव है । साथ ही, प्राथमिक मोर्चे के लिये आवंटित किये जाने वाले संसाधनों की मात्रा भी महत्त्वपूर्ण है। यदि भारतीय सेना और भारतीय वायु सेना की अधिकांश युद्धक सामग्री उत्तरी सीमा की ओर भेज दी जाती है, तो उसे पश्चिमी सीमा के लिये अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता होगी।
- इसके अतिरिक्त, पाकिस्तान की ओर से हाइब्रिड संघर्ष की स्थिति में यदि भारतीय सेना पूरी तरह से रक्षात्मक रहती है तो यह पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर में अपनी गतिविधियों को जारी रखने और पश्चिमी मोर्चे पर अपनी भागीदारी को बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित कर सकता है।
- साथ ही, पाकिस्तान के खिलाफ अधिक आक्रामक रणनीति अपनाने से होने वाले व्यापक संघर्ष में सीमित संसाधनों की उपलब्धता एक समस्या होगी। अत: सिद्धांत के साथ-साथ क्षमता को विकसित करने की भी आवश्यकता है।
- सैद्धांतिक विकास के लिये राजनीतिक नेतृत्व के साथ नजदीकी विचार-विमर्श की आवश्यकता होगी क्योंकि राजनीतिक उद्देश्य तथा मार्गदर्शन के बिना तैयार किया गया कोई भी सिद्धांत जब निष्पादित किया जाता है तो वह खरा नहीं उतरता है।
- क्षमता निर्माण पर भी एक गंभीर बहस की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान आर्थिक स्थिति रक्षा बजट में किसी भी महत्त्वपूर्ण वृद्धि की अनुमति नहीं देती है।
कूटनीति का महत्त्व
- दो-तरफ़ा चुनौती का सामना करने के लिये कूटनीति की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसके लिये भारत को अपने पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध स्थापित करने होंगे। ताकि चीन और पाकिस्तान इस क्षेत्र में भारत को नियंत्रित करने, बाध्य करने और रोकने का प्रयास न कर सके।
- भारत को ईरान सहित पश्चिम एशिया के साथ ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने, समुद्री सहयोग, सद्भावना और संबंधो को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
- साथ ही, भारत को अमेरिका के कारण रूस से संबंध को कमजोर नहीं करना चाहिये क्योंकि रूस, भारत के खिलाफ क्षेत्रीय एकीकरण को प्रभावहीन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
- यहाँ तक कि क्वाड (भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका) और हिंद-प्रशांत की नई समुद्री रणनीति से महाद्वीपीय क्षेत्र में केवल चीन-पाकिस्तान के दबाव को कम किया जा सकता है।
कश्मीर
- टू-फ्रंट वॉर की चुनौती की वास्तविकता को समझते हुए पश्चिमी मोर्चे पर दबाव कम करने के लिये सर्वाधिक आवश्यकता राजनीतिक इच्छाशक्ति की है। कश्मीर में शांति कायम करने के उद्देश्य से लम्बे समय के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक पहुँच बढ़ाने और हल निकालने की आवश्यकता है।
- इससे पाकिस्तान के साथ संभावित तालमेल भी बढ़ सकता है, बशर्ते, उसको कश्मीर में आतंकवादी घुसपैठ पर रोक लगाने के लिये राजी किया जाए ।
- एक उभरते और आक्रामक महाशक्ति के रूप में चीन, भारत के लिये बड़ा रणनीतिक खतरा है और भारत के लिये चीन द्वारा तैयार की गई रणनीति में पाकिस्तान एक मोहरा है। अत: भारत केंद्रित चीन-पाकिस्तान नियंत्रित रणनीति के प्रभाव को राजनीतिक रूप से कम किया जा सकता है।
आगे की राह
- भारत को दो-मोर्चों पर खतरों का सामना करने के लिये तैयार रहना होगा। इसके लिये संभावित खतरे के स्वरुप और उसका मुकाबला करने के लिये आवश्यक क्षमता निर्माण के वास्तविक विश्लेषण की आवश्यकता है।
- भारत ने विमान, जहाज़ों और टैंकों जैसे प्रमुख प्लेटफार्मों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है जबकि भविष्य की तकनीकों, जैसे- रोबोटिक्स, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, साइबर, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध आदि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। चीन और पाकिस्तान की युद्ध-लड़ने की रणनीतियों के विस्तृत आकलन के आधार पर सही संतुलन बनाने और नई तकनीक पर ध्यान देना होगा।
- इस प्रकार, किसी भी निश्चितता के साथ दो-मोर्चों पर संघर्ष को परिभाषित करना असंभव है। हालाँकि, इस खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है अत: इससे निपटने के लिये सिद्धांत के साथ-साथ क्षमता को विकसित करने की भी आवश्यकता है।