(मुख्य परीक्षा- सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2 : सद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ।) |
संदर्भ
जेल में बंद खालिस्तान समर्थक संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह ने लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनने का इरादा व्यक्त किया है।
वोट देने और निर्वाचित होने का वैधानिक अधिकार
इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण वाद
- वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव भारत के संविधान की 'बुनियादी संरचना' का हिस्सा हैं।
- इस सिद्धांत का उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून या नीतियों को रद्द किया जा सकता है।
कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ वाद
- यद्यपि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों को सर्वोच्च संवैधानिक मान्यता प्राप्त है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि चुनाव करने और चुने जाने के अधिकार को समान दर्जा प्राप्त नहीं है।
- वर्ष 2006 में कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ के मामले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने निर्णय दिया कि वोट देने का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है।
- पीठ द्वारा चुने जाने के अधिकार के लिए भी यही टिपण्णी की और निर्णय दिया कि संसद द्वारा अधिनियमित कानून इन दोनों वैधानिक अधिकारों को विनियमित कर सकते हैं।
दोषसिद्धि के बाद ही चुनाव लड़ने पर रोक
- विचाराधीन कैदी के रूप में उम्मीदवार की प्रचार करने की क्षमता सीमित हो सकती है, हालाँकि केवल आपराधिक आरोपों के आधार पर चुनाव लड़ने के अधिकार को तब तक सवालों के घेरे में नहीं रखा जा सकता जब तक कि उसे दोषी नहीं ठहराया जाता।
- गौरतलब है कि विचाराधीन कैदियों को चुनावों में वोट डालने पर प्रतिबंध है।
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 की धारा 8 में कुछ अपराधों के लिए दोषसिद्धि पर अयोग्यता का उल्लेख किया गया है।
- यदि किसी व्यक्ति को प्रावधान में दी गई विस्तृत सूची में से किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है तब ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति को सजा की तारीख से संसद या राज्य विधानसभाओं का चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
- साथ ही व्यक्ति को रिहाई की तारीख से चुनाव लड़ने के लिए छह साल की अयोग्यता का सामना करना पड़ेगा।
- यह अयोग्यता केवल तभी लागू होती है जब किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया गया हो न कि जब उन पर केवल अपराधों का आरोप लगाया गया हो।
- वर्ष 2011 में, पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन ने एक याचिका दायर कर तर्क दिया कि निम्न व्यक्तियों को भी अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए :
- जिन व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक आरोप तय किए गए हैं।
- जिन्होंने अपने आपराधिक इतिहास के बारे में गलत हलफनामा दायर किया गया है।
- हालाँकि पाँच-न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय दिया कि केवल विधायिका ही आर.पी. अधिनियम को बदल सकती है।
- वर्ष 2016 में अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दोषी व्यक्तियों के लिए स्थायी अयोग्यता की मांग करते हुए एक याचिका दायर की।
- यह मामला अभी भी विचाराधीन है।
- नवंबर 2023 में सर्वोच्च न्यायालय ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों के त्वरित निपटान को ध्यान में रखते हुए सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को स्वत: संज्ञान मामला दर्ज करने का आदेश दिया।
अयोग्यता के अपवाद
- भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI) को RPA की धारा 11 के तहत अयोग्यता की अवधि को हटाने या कम करने का अधिकार है।
- वर्ष 2019 में ECI ने इस शक्ति का उपयोग सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग की अयोग्यता की अवधि को कम करने के लिए किया था।
- एक अयोग्य सांसद या विधायक उस स्थिति में भी चुनाव लड़ सकता है जब उच्च न्यायालय में अपील पर उनकी सजा पर रोक लगा दी जाती है।
- वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक बार दोषसिद्धि पर रोक लगने के बाद दोषी ठहराए जाने के परिणामस्वरूप लागू होने वाली अयोग्यता प्रभावी नहीं रह सकती।
कैदियों के मताधिकार पर प्रतिबंध
- RPA की धारा 62 उप-खंड (5) मतदान के अधिकार पर प्रतिबंधों का उल्लेख करती है।
- इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी भी चुनाव में मतदान के योग्य नहीं होगा यदि वह जेल में बंद है।
- चाहे कारावास सजा के तहत या पुलिस की वैध हिरासत के तहत हो।
- यह प्रावधान प्रभावी रूप से प्रत्येक उस व्यक्ति को अपना वोट डालने से रोकता है जो आपराधिक आरोपों के आधार पर हिरासत में हैं।
- जब तक कि उन्हें जमानत पर रिहा या बरी नहीं किया गया हो।
- हालाँकि अपवादस्वरूप निवारक हिरासत में निरुद्ध व्यक्ति पोस्टल बैलट के माध्यम से अपना वोट डाल सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय : वर्ष 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुकूल चंद्र प्रधान बनाम भारत संघ वाद में धारा 62(5) को दी गई चुनौती को खारिज कर दिया।
- याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि नियम ने विचाराधीन कैदियों और जमानत राशि जमा करने में असमर्थ होने के कारण हिरासत में लिए गए लोगों को मतदान के अधिकार से वंचित करके समानता के अधिकार का उल्लंघन किया है।
- जबकि जमानत पर रिहा किए गए लोगों को वोट देने की अनुमति दी गई है।
- हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने इस तर्क को चार आधारों पर खारिज कर दिया।
- न्यायालय ने फिर से पुष्टि की कि वोट देने का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है और वैधानिक सीमाओं के अधीन हो सकता है।
- न्यायालय ने माना कि कैदियों के मतदान के लिए संसाधन की कमी है।
- अपने आचरण के कारण जेल में बंद व्यक्ति आंदोलन, भाषण और अभिव्यक्ति की समान स्वतंत्रता का दावा नहीं कर सकता।
- कैदियों के वोट देने के अधिकार पर प्रतिबंध उचित है क्योंकि यह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को चुनाव परिदृश्य से दूर रखता है।
- हाल ही में कैदियों के लिए मतदान के अधिकार की मांग करने वाली याचिकाओं को खारिज करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय (2023) और दिल्ली उच्च न्यायालय (2020 मे) ने अनुकूल चंद्र प्रधान बनाम भारत संघ वाद में दिए गए निर्णय पर भरोसा किया है।