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शहरी कृषि और संबंधित पक्ष

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-3: कृषि से संबंधित मुद्दे)

संदर्भ  

  • ‘शहरी कृषि’ नगरीय और उपनगरीय क्षेत्रों में कृषि की एक पद्धति है। कृषि वृहत् रूप से खाद्य एवं गैर-खाद्य उत्पादों की एक विस्तृत शृंखला को दर्शाती है, जिन्हें उगाया या खेती की जा सकती है, जिसमें पशुपालन, जलीय कृषि और मधुमक्खी पालन भी शामिल हैं। हालाँकि, भारतीय शहरों के परिप्रेक्ष्य में ये पूरी तरह से मानव उपभोग के लिये सब्जियों, फलों और फूलों की कृषि पर ही केंद्रित हैं।
  • वर्तमान में नगरों में यह प्रवृत्ति बढ़ी है जहाँ स्थानीय रूप से उत्पादित खाद्य पर लोगों की निर्भरता बढ़ी है। शहरी प्रशासन के अलावा, शहरी कृषि ने कई गैर-सरकारी संगठनों, सामुदायिक समूहों और नागरिकों का ध्यान आकर्षित करना शुरू कर दिया है।
  • खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का मानना ​​है कि खाद्य और पोषण सुरक्षा में नगरीय और उपनगरीय कृषि की भूमिका है। नगरीय और उपनगरीय क्षेत्रों में सतत विकास, खाद्य सुरक्षा और पोषण को बढ़ाने के लिये ‘शहरी खाद्य योजना’ एफ.ए.ओ. की एक प्रमुख पहल है। यह विभिन्न हितधारकों, जैसे- नागरिक समाज, शिक्षाविदों, अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों, शहर की संस्थाओं और निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी को प्रोत्साहित करती है।

भारत में स्थिति

  • कई अन्य देशों में, सामुदायिक संगठनों और व्यक्तिगत शहरी निवासियों को सार्वजनिक तथा निजी भूमि पर छोटे पैमाने पर कृषि गतिविधियों के लिये शहरी प्रशासन द्वारा सुविधा प्रदत्त की गई है। पेरिस तथा ग्रेटर लंदन के साथ-साथ रूस, स्पेन, पुर्तगाल, नीदरलैंड, इज़राइल और लैटिन अमेरिकी व अफ्रीकी देशों में भी शहरी कृषि का अभ्यास किया जाता है।
  • हालाँकि, भारत के कई शहरों में भी ऐसे कृषि कार्यों के उदाहरण मौजूद हैं, किंतु भारत के संदर्भ में इन गतिविधियों की सीमाओं को समझने की आवश्यकता है।
  • राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO) का अनुमान है कि वर्ष 2012-13 में भारत में लगभग 95 मिलियन हेक्टेयर भूमि कृषि उत्पादन के लिये उपयोग की गई थी। कृषि मंत्रालय द्वारा एक किये गए एक भिन्न कृषि सर्वेक्षण (2010-11) के अनुमानों में यह आँकड़ा और भी अधिक 159.6 मिलियन हेक्टेयर था।
  • विश्व बैंक ने देश के भौतिक भौगोलिक के कुल 4 प्रतिशत क्षेत्र को कृषि क्षेत्र के तौर पर चिन्हित किया है।
  • भारत का कुल शहरी क्षेत्र लगभग 2,22,688 वर्ग किमी. अनुमानित किया गया है, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 6.77% है। इस छोटे से क्षेत्र में देश की कुल जनसंख्या की लगभग 35% आबादी निवास करती है।
  • जैसा कि कई नियोजन दिशानिर्देशों द्वारा यह सुझाया गया है कि यदि नगरों को शहरी क्षेत्र का 10% स्थान ग्रीन क्षेत्र रखने की अनुमति दी जाए, तो हमारे पास 22,268 वर्ग किमी. खुले क्षेत्र ही रह जाएँगे। वर्तमान में ऐसे क्षेत्रों का उपयोग सार्वजनिक हरे-भरे स्थानों को तैयार करने के लिये किया जा रहा है।
  • यहाँ तक कि इस क्षेत्र का आधा हिस्सा पार्कों, उद्यानों, खेल के मैदानों और बागवानी के बजाय शहरी कृषि के लिये उपयोग किया जाए, तो यह देश में सभी शहरी क्षेत्र का केवल 5% और देश की कुल कृषि योग्य भूमि का 0.56% हिस्सा ही होगा। स्पष्ट रूप से, शहरी कृषि कई प्रकार से स्थान की कमी की जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है तथा देश के समग्र खाद्य उत्पादन में कोई बड़ा परिवर्तन आने की संभावना नहीं है।

शहरी कृषि के लाभ

  • यद्यपि इसकी मदद से उगाए गए खाद्य पदार्थ देश में कुल उत्पादित खाद्य का एक अंश मात्र ही है, किंतु यह छोटा अंश भी बड़ी संख्या में लोगों को आजीविका प्रदान करता है।
  • यदि हम फलों और सब्जियों के लिये प्रति व्यक्ति 50 वर्ग मीटर के पारंपरिक बेंचमार्क का उपयोग करते हैं, तो 11,134 वर्ग किमी के उपरोक्त उद्धृत क्षेत्र में खेती करके कुल 22.2 करोड़ शहरी लोगों को इसकी आपूर्ति की जा सकती है।
  • इस तरह के छोटे पैमाने पर विकेंद्रीकृत उत्पादन घरेलू या सामुदायिक स्तर पर पूरक आहार के लिये भी किये जा सकते हैं। इसके अलावा, इसके स्थानीय रोज़गार का भी महत्त्व है। श्रम प्रधान होने के कारण यह रोज़गार की संख्या में वृद्धि, शहरों में आजीविका के अवसरों में सुधार और विशेष रूप से गरीबों के लिये आय का स्त्रोत उत्पन्न कर सकता है।
  • नगरीय पर्यावरण प्रबंधन में भी शहरी कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह शहरी गर्म द्वीप प्रभावों का मुकाबला करने के साथ शहरों को आकर्षक बनाने तथा उन्हें ऑक्सीजन देने में भी प्रभावी साबित होगी।
  • शहरी कृषि नगरवासियों को प्रकृति के साथ संबंध स्थापित करने और इसकी समृद्धि और विविधता के बारे में शिक्षित करने में मदद करती है। साथ ही, यह शहरी जनसामान्य में पर्यावरण-सांस्कृतिक शिक्षा के लिये एक अच्छा अवसर प्रदान करती है।
  • सामुदायिक कृषि के माध्यम से यह साझा करने की भावना विकसित करने में भी मदद करती है, जहाँ लोग एक साथ आकर विभिन्न प्रकार के भोजन उगाने में अपने अनुभवों को साझा करते हैं। रुचियों के उद्देश्य से विभिन्न आयु समूहों को कवर करने के लिये शैक्षणिक फार्मिंग अत्यंत उपयोगी साबित हुई है।
  • चूँकि शहर अपशिष्ट प्रबंधन और निपटान की समस्या से जूझ रहे हैं, शहरी कृषि इससे निपटने में मदद प्रदान कर सकती है। शहरी कृषि के लिये उपयुक्त रूप से उपचारित अपशिष्ट जल का उपयोग ताजे जल की मांग को कम कर सकता है और अपशिष्ट जल के निपटान में मदद कर सकता है।
  • इसके अतिरिक्त, शहर से प्राप्त जैविक कचरे को खाद के रूप में परिवर्तित कर खाद्य और फूलों के उत्पादन में उपयोग किया जा सकता है, जो कचरे की कुल मात्रा और भूमि पर डंपिंग को कम कर सकता है। इससे लैंडफिल की आवश्यकता को कम किया जा सकता है। यह भविष्य के शहरों के लिये अपशिष्ट पुनर्चक्रण के सबसे उचित रूपों में से एक है।

शहरी स्थानीय निकाय (यू.एल.बी.) की भूमिका

  • शहरी स्थानीय निकाय इस गतिविधि में तीन तरह से सक्रिय रूप से सहायता कर सकते हैं। सबसे पहले, वे कुछ अनुपयोगी सार्वजनिक भूमि को शहरी कृषि के लिये उपलब्ध करा सकते हैं, जिनका निकट भविष्य में विकास हेतु उपयोग नहीं किया जाना है। इन्हें पारस्परिक रूप से लाभकारी नियमों और शर्तों के साथ एक समझौते के माध्यम से निजी स्वामित्व के तहत पट्टे (लीज़) पर दिया जा सकता है।
  • भारतीय शहरों ने सजावटी वनस्पतियों के लिये खुले स्थान को प्राथमिकता दी है। हालाँकि, शहरी कृषि को बढ़ावा देने के लिये सार्वजनिक स्थानों में आंशिक रूप से खाद्य परिदृश्य भी बनाया जा सकता है। इसमें फल देने वाले वृक्ष हो सकते हैं तथा उठी हुई क्यारियों, कंटेनरों या ऊर्ध्वाधर फ्रेम में सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं।
  • इसके अलावा, शहरी निकाय उन ज़मीनों को शहरी कृषि के विकास/मास्टर प्लान में उस अवधि के लिये अधिकृत कर सकते हैं, जिसके दौरान इन ज़मीनों का किसी अन्य उद्देश्यों के लिये उपयोग में लिया जाना तय नहीं है। यू.एल.बी. के राजस्व के इनफ्लो पर वित्तीय बोझ डाले बिना ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजे जाने चाहिये।
  • इसी तरह, निजी भूखंडों को जहाँ भी अविकसित और अनुपयोगी रखा जाता है तथा कृषि उपयोग में नहीं लाया जाता है, ऐसे भूखंडों पर अप्रयोज्य भूखंड कर लगाया जाना चाहिये। वैकल्पिक रूप से यदि ऐसे भूखंडों का उपयोग शहरी कृषि के लिये किया जाता है, तो उन्हें नवीन तरीकों से प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • यू.एल.बी. मृदा और जल परीक्षण प्रयोगशालाओं के माध्यम से प्रौद्योगिकी विस्तार सेवाएँ प्रदान कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, शहरी कृषि उपयोग के लिये निजी/सहकारी हाउसिंग सोसाइटी परिसरों के भीतर छतों, बालकनियों, खुले स्थानों के उपयोग हेतु मानक प्रदान कर सकते हैं।
  • इसके लिये रूफटॉप कृषि एक बड़ी संभावना है। उदाहरण के लिये, सिंगापुर पहले से ही अपने कुल खाद्य पदार्थ का लगभग 10% उत्पादन रूफटॉप फार्मिंग के माध्यम से कर रहा है। भारी आबादी वाले शहरों में, जहाँ भूमि की उपलब्धता एक बाधा है, वहाँ ऊर्ध्वाधर खेती के लिये प्रौद्योगिकियों का विकास किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

  • जलवायु परिवर्तन की ताकतें बाढ़ और गर्मी की लहरों सहित बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही हैं। इसके अलावा, ग्रामीण इलाकों में सूखे के कारण शहरों की ओर अधिक प्रवास होने की संभावना है। इस परिप्रेक्ष्य में, नगरीय कार्यप्रणाली में शहरी कृषि का समावेश महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
  • इसी तरह, शहरी नियोजन को अपने ख़ाली ज़मीनों के उपयोग के लिये शहरी कृषि को योजना मद के रूप में शामिल किये जाने की आवश्यकता है, ताकि शहरी कृषि उपेक्षित न होकर महत्त्वपूर्ण शहरी कार्य व्यवस्था के रूप में उभरे।
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