(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2 : भारतीय संविधान- ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान एवं बुनियादी संरचना) |
संदर्भ
21वीं सदी में सीमाओं से परे जलवायु परिवर्तन, साइबर अपराध एवं वित्तीय संकट जैसी समस्याओं के बीच राज्यक्षेत्र (क्षेत्रीयता) आधारित संप्रभुता के विचार की प्रासंगिता पर चर्चा की जा रही है। विभिन्न समकालीन राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक संकटों एवं मुद्दों में क्षेत्रीय अखंडता के साथ-साथ संप्रभुता की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से सामने आईं हैं।
संप्रभुता संबंधी समकालीन मुद्दे
- द्वि-राज्य समाधान को लंबे समय से जारी इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष के स्थायी समाधान के रूप में देखा जाता है।
- इसके अंतर्गत इजरायल और प्रस्तावित फिलिस्तीन राज्य के बीच क्षेत्रीय सीमांकन शामिल है।
- वर्ष 2016 में यूनाइटेड किंगडम द्वारा यूरोपीय संघ छोड़ने के लिए जनमत संग्रह प्रक्रिया (ब्रेक्सिट) को कई लोगों ने ब्रिटिश संसद की संप्रभुता की बहाली के रूप में देखा।
- उपरोक्त मुद्दे इस बात को रेखांकित करते हैं कि संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता की अवधारणाएँ अकादमिक सरोकारों के संदर्भ के साथ-साथ लोगों के रोज़मर्रा के जीवन पर भी वास्तविक प्रभाव डालती हैं।
क्या है संप्रभुता
- संप्रभुता राजनीति विज्ञान में सबसे केंद्रीय अवधारणाओं में से एक है। यह राजनीति विज्ञान की प्रमुख केंद्रीय अवधारणा ‘राज्य’ से संबद्ध है।
- संप्रभुता की अवधारणा से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतकारों में शामिल जॉन ऑस्टिन ने 19वीं सदी में इसकी तीन व्यापक विशेषताओं को निर्धारित किया था :
- प्रथम, संप्रभुता से तात्पर्य सर्वोच्च सत्ता या सर्वोच्च अधिकार से है, जिसे एक व्यक्ति के रूप में पहचाना जा सकता है, जैसे- मध्यकाल में सम्राट या आधुनिक काल में लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद के रूप में व्यक्ति समूह।
- दूसरा, किसी राज्य व्यवस्था में लोगों को संप्रभु (व्यक्ति) के प्राधिकार के संकेतक के रूप में उसकी आज्ञाकारिता का स्वभाविक रूप से पालन करना चाहिए।
- तीसरा, संप्रभु (व्यक्ति) से बढ़ा कोई प्राधिकार नहीं होता है जिसके अधीन वह (संप्रभु) रहे।
- ऑस्टिन का संप्रभुत्व अविभाज्य एवं असीम है, जो पूर्ण शक्ति का प्रतीक है।
- यूनाइटेड किंगडम के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने को संप्रभुता की तीसरी विशेषता के उदाहरण के रूप में देखा गया अर्थात् ब्रिटिश संसद को यूरोपीय संसद की प्रधानता को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
संप्रभुता पर हॉब्स के विचार
- अंग्रेज दार्शनिक थॉमस हॉब्स ने अपने शास्त्रीय कृति ‘लेविथान’ (1651 ई) में संप्रभुता का उल्लेख किया है।
- हॉब्स के अनुसार, अभ्यस्त या स्वाभाविक आज्ञाकारिता, जिसे व्यक्ति निभाने के लिए बाध्य है, से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा न करने वालों को कठोर कीमत चुकानी पड़ती है।
- व्यक्ति जितना अधिक स्वाभाविक आज्ञाकारिता का पालन करते हैं राज्यव्यवस्था में उनके रहने की सुविधाएँ उतनी ही अधिक बढ़ जाती हैं।
- संप्रभु की आज्ञा का पालन न करने में भय का भी एक तत्व होता है क्योंकि ऐसे में दंडात्मक उपाय शीघ्र ही लागू हो जाते हैं।
संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता
- संप्रभु के अधिकार में स्पष्ट क्षेत्रीय सीमांकन होना चाहिए जिसमें क्षेत्र के ऊपर हवाई क्षेत्र और तटरेखा की स्थिति में समुद्र में कुछ दूरी तक विस्तार शामिल है।
- संप्रभुता की क्षेत्रीय अखंडता की इस समझ में क्षेत्र के चारों ओर सुरक्षित सीमाओं का विचार शामिल है। इसमें सतह के नीचे के संसाधन (जैसे- खनिज) भी शामिल होंगे।
- उदाहरण के लिए लंबे समय से चले आ रहे इजरायल-फिलिस्तीन विवाद में इजरायल राज्य तथा प्रस्तावित फिलिस्तीन राज्य के बीच सीमाओं की पहचान करने और फिलिस्तीनी राज्य का अपने क्षेत्र को कवर करने वाले हवाई क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण से संबंधित मुद्दे भी शामिल हैं।
संप्रभुता की अवधारणा में परिवर्तन
- संप्रभुता की अवधारणा में सबसे बड़ा बदलाव यह रहा है कि इसे किसी व्यक्ति (जैसे-राजा) से अलग करके लोगों की लोकप्रिय इच्छा से जोड़ दिया गया है।
- सदियों से निरंकुश संप्रभुता से लोकप्रिय संप्रभुता की ओर यह बदलाव शायद आधुनिक समय में संप्रभुता की अवधारणा को सबसे बेहतर तरीके से दर्शाता है।
- संप्रभुता की अवधारणा में राज्य की सत्ता को ऊपर रखकर उसके रहस्यवाद को उजागर किया जा सकता है।
संप्रभुता का बहुलवादी दृष्टिकोण
- फ्रांसीसी दार्शनिक मिशेल फौकॉल्ट ने आग्रह किया कि संप्रभु या राजा का सिर काट देना आवश्यक है क्योंकि सत्ता एक केंद्रीकृत रूप में मौजूद नहीं है बल्कि वह अधिक विस्तृत एवं जटिल रूपों में मौजूद है।
- यहाँ संप्रभु शक्ति का विचार हमारे बाहर नहीं है, बल्कि हमारे चारों ओर है, जो हमें अनुशासित करती है।
- संप्रभु शक्ति हमारे भीतर भी कार्य करती है क्योंकि यह जीवन की स्थितियों को नियंत्रित करती है जिसे 'जैव-राजनीति' कहा जाता है।
- ऐसे विचारों ने संप्रभुता की अवधारणा को पूरी तरह से अलग तरह का अर्थ प्रदान किया है।
- अंग्रेज बहुलवादियों नामक एक अति प्रसिद्ध सिद्धांतकारों का समूह है, जिन्होंने 20वीं सदी की शुरुआत में संप्रभुता के एक लचीला एवं बहुलवादी संस्करण को प्रस्तुत किया।
- जी.डी.एच. कोल एवं हेरोल्ड लॉस्की जैसे अंग्रेज बहुलवादियों ने तर्क दिया कि संघ व समूह, जो राज्य तथा व्यक्ति के बीच एक मध्यवर्ती स्तर पर मौजूद थे जैसे कि ट्रेड गिल्ड या ट्रेड यूनियन, भी संप्रभुता के पहलुओं को बनाए रखते हैं।
- इस तरह राज्य कुछ विशेष श्रेष्ठता बनाए रखने के बजाए कई अन्य संघों के बीच एक संघ था।
- लचीली संप्रभुता के विपरीत कार्ल श्मिट (20वीं सदी) ने संप्रभुता की बहुत ही कठोर अवधारणा प्रस्तुत की है।
संप्रभुता पर कार्ल श्मिट के विचार
- श्मिट के अनुसार, संप्रभुता की अवधारणा एक ऐसा आधिकारिक राजनीतिक निर्णय है जिसमें अपवाद की स्थिति बनाने की क्षमता है।
- 'अपवाद की स्थिति' (State of Exception) शब्द का अर्थ है वह बिंदु जहाँ न्यायिक व्यवस्था किसी आपात स्थिति या खतरे के कारण उलट दी जाती है और राजव्यवस्था के लिए जो भी उचित समझा जाता है उसे करने के रूप में संप्रभु की इच्छा हावी हो जाती है।
राज्य की संप्रभुता पर गांधी के विचार
- गांधी के अनुसार, राज्य हिंसा का संकेन्द्रित रूप है किंतु यह आवश्यक है क्योंकि मनुष्य स्वभाव से सामाजिक है।
- वह एक ऐसा राज्य चाहते हैं जिसमें हिंसा व जबरदस्ती का कम उपयोग हो और जहाँ तक संभव हो व्यक्तिगत कार्यों को स्वैच्छिक प्रयासों द्वारा नियंत्रित किया जाए।
- वह सीमित राज्य संप्रभुता की वकालत करते हैं जो राजनीति से कहीं बढ़कर एक दायित्व है।
- आदर्श समाज एक विकेंद्रीकृत समाज होगा जो आत्म-विकास के लिए पर्याप्त गुंजाइश प्रदान करेगा।
- गांधी स्वराज शब्द का उपयोग सकारात्मक स्वतंत्रता के लिए करते हैं, न कि राज्य को एक नकारात्मक संस्था के रूप में देखने के लिए जो मानवीय गतिविधियों को सीमित करती है।
- गांधी के अनुसार राज्य एक 'आत्महीन मशीन' है जबकि व्यक्ति को धर्म से संपन्न किया जाता है जिसमें सत्य एवं अहिंसा दोनों शामिल हैं।
- इसलिए नैतिक अधिकार से संपन्न व्यक्ति का यह सर्वोच्च कर्तव्य है कि वह राज्य को चुनौती दे और उसकी अवज्ञा भी करे।
- गांधी ने ‘विश्व नागरिकता’ की अवधारणा प्रस्तुत की जिसके अनुसार ‘सार रूप में सभी मानव जाति एक समान है’।
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निष्कर्ष
- संप्रभुता के अधिकांश सिद्धांतों में लचीलेपन की बजाए कठोरता को अपनाया गया है ताकि मानव संघों में सर्वोच्च एवं सबसे प्रमुख के रूप में राज्य की विशेष स्थिति को रेखांकित किया जा सके।
- राज्य अपनी संप्रभुता को साझा करने के लिए अनिच्छुक रहे हैं क्योंकि इसे उनके अधिकार की विशेष स्थिति को कमज़ोर करने के रूप में देखा गया है।
- यूरोपीय संघ संयुक्त संप्रभुता का एक उदाहरण है।
- वर्तमान में परस्पर संबद्ध समस्याएँ संप्रभुता की अवधारणा को और अधिक नए सिरे से तैयार करने की मांग करती हैं।