परिचय :यह एक आदिवासी चित्रकला है जो मुख्यतः महाराष्ट्र के उत्तरी सह्याद्री पर्वतमाला के वारली आदिवासी लोगों द्वारा बनाई जाती है।
उत्पत्ति : महाराष्ट्र
मुख्य विषय :यह प्रकृति को माँ मानने की अवधारणा पर केन्द्रित है। इसमें प्रकृति के विभिन्न तत्वों को ज्यामितीय आकृतियों द्वारा दर्शाया जाता है।
चित्रकला का यह रूप ग्रामीण जीवन की दिनचर्या, आदिवासी लोगों का प्रकृति से संबंध, उनके देवता, मिथक, परंपराएं, रीति-रिवाज और उत्सवों का प्रतिनिधित्व करता है।
चित्रकला तकनीक : इसमें भित्ति चित्रों में बुनियादी ज्यामितीय आकृतियों का एक सेट उपयोग किया जाता है जिसमें वृत्त, त्रिभुज एवं वर्ग के साथ-साथ रंगों का भी एक सेट होता है जिसमें आमतौर पर भूरा व सफेद शामिल है।
ये आकृतियाँ प्रकृति के विभिन्न तत्वों की प्रतीक होती है जिनमें वृत्त सूर्य और चंद्रमा को जबकि त्रिभुज पहाड़ों व शंक्वाकार वृक्षों को दर्शाता है।
प्रमुख चित्रकार :ठाणे जिले के कलाकार जिव्या सोमा माशे ने वारली चित्रकला को अधिक लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
भौगोलिक संकेतक (GI Tag) :वर्ष 2014
प्रमुख विशेषताएँ
सत्तर के दशक तक यह कला केवल विवाह से जुड़ी उत्सव एवं आनंद को दर्शाने तक ही सीमित रही। वारली जनजाति की महिलाएँ, जिन्हें सुवासिनी कहा जाता था, लग्न चौक या विवाह चौक को सजाती थीं।
ग्रामीण घरों की दीवारों पर गोबर की परतों के लेप पर कैनवास बनाया जाता था। गोबर के सूखने पर पृष्ठभूमि बनाने के लिए उन्हें मिट्टी के भूरे रंग से रंगा जाता था और बांस की छड़ियों से बने पेंट ब्रश का उपयोग दृश्यों, आकृतियों व वस्तुओं को सावधानीपूर्वक गढ़ने के लिए किया जाता था।
वारली कला महत्वपूर्ण घटनाओं को रिकॉर्ड करने और स्थानीय कहानियों को चित्रात्मक रूप से प्रसारित करने का सामाजिक कार्य करती है।