चर्चा में क्यों
केरल के वायनाड जिले के पनावली में स्थित संगठन ‘थानाल’ ने अपने कृषि विज्ञान केंद्र में 1.5 एकड़ भूमि पर पारंपरिक चावल की 300 जलवायु लचीली किस्मों को उगाकर एक अनूठा संरक्षण प्रयोग शुरू किया है।
चावल महोत्सव
- 12 दिसंबर 2022 को थानाल संगठन ने ‘चावल महोत्सव’ या आदिवासी बोलचाल में ‘इक्की जथरे’ पहल का प्रारंभ किया है।
- इस सप्ताहिक महोत्सव में बड़ी संख्या में किसान, शोधकर्ता, पर्यावरणविद और छात्र भाग लेते हैं। विदित है कि थानाल संगठन वर्ष 2012 से वार्षिक रूप से ‘चावल क्षेत्र सप्ताह’ का आयोजन कर रहा है।
- थानाल संगठन ने पारंपरिक चावल की 30 किस्मों के संग्रह के साथ वर्ष 2009 में ‘सेव अवर राइस’ अभियान के तहत पनावली में ‘चावल विविधता ब्लॉक (RDB)’ लॉन्च किया था।
- वर्तमान में यह संगठन पारंपरिक चावल की 300 किस्मों का संग्रह कर चुका है।
- वियतनाम एवं थाईलैंड से तीन पारंपरिक चावल की किस्में के अतिरिक्त अधिकांश किस्मों को केरल, कर्नाटक, असम, तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र एवं पश्चिम बंगाल से एकत्र किया गया है।
महोत्सव का उदेश्य
- कठोर जलवायु परिस्थितियों का सामना कर सकने वाली पारंपरिक फसलों के संरक्षण के महत्व के प्रति संवेदनशील बनाना
- ज्ञान साझाकरण एवं जनजातीय किसानों व विशेषज्ञों के मध्य ज्ञान के सह-निर्माण के लिये मंच तैयार करता
- उपभोक्ताओं के बीच पारंपरिक चावल की फसलों को लोकप्रिय बनाना
पारंपरिक चावल का महत्त्व
- पारंपरिक चावल की कई किस्में, विशेष रूप से काले चावल की किस्में जिंक, आयरन एवं अन्य पोषक तत्वों जैसे खनिजों से भरपूर हैं।
- पारंपरिक चावल की कई किस्में सूखा-प्रतिरोधी तथा बाढ़-सहिष्णु हैं, जबकि अन्य में सुगंधित एवं औषधीय गुण मौजूद होते हैं।
- इसके अतिरिक्त, पारंपरिक चावल की कृषि लागत कीटों एवं बीमारियों के प्रति इसके अंतर्निहित प्रतिरोध के कारण बहुत कम है। साथ ही, इसका पोषण मूल्य अधिक है।
वर्तमान स्थिति
- हाइब्रिड चावल की किस्मों के लोकप्रिय होने के बाद कई किसानों ने पारंपरिक चावल की खेती करना बंद कर दिया था, इस गलत धारणा के तहत कि पारंपरिक चावल की उत्पादकता कम होती है।
- कुछ दशक पहले तक वायनाड में ‘थोंडी’ (Thondy) नामक चावल की एक पारंपरिक किस्म लोकप्रिय थी, जो उत्पादकता के मामले में किसी भी संकर प्रजाति के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकती थी।
- भारत में चावल की लगभग 1.5 लाख किस्में थीं, जिनमें से लगभग 3,000 किस्में केरल के लिये अद्वितीय थीं। इनमें से कई किस्में विलुप्त हो चुकी हैं।
- वर्तमान में देश में केवल 6,000 किस्मों की कृषि की जा रही है।