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बैड लोन वसूली में बाधक ए.आर.सी. की क्रियाविधि

(मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन, विषय-भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय)

संदर्भ

विगत कुछ वर्षों में बैंकों के बैड लोन अथवा दबावग्रस्त परिसंपत्तियों की समस्या के समाधान तथा इनकी वसूली में उल्लेखनीय प्रगति देखी गई है। इसके बावजूद, अभी भी लगभग 10 लाख करोड़ रुपए का बैड लोन बकाया है। ऐसे में, सार्वजनिक क्षेत्र की नवगठित कंपनी ‘राष्ट्रीय परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनी लिमिटेड’ (NARCL) ऋणदाताओं के तुलन-पत्र में शीघ्र सुधार होने की उम्मीद जगाती है।

राष्ट्रीय परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनी लिमिटेड (NARCL)

  • ‘एन.ए.आर.सी.एल.’ दबावग्रस्त परिसंपत्तियों की समस्या के समाधान के लिये समर्पित देश की 30वीं ‘परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनी’ (ARC) है, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की यह पहली ए.आर.सी. है।
  • परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनी ‘एन.ए.आर.सी.एल.’ बैंकों की दबावग्रस्त परिसंपत्तियों का समाधान करने के लिये संकल्पित एक विशिष्ट वित्तीय संस्थान है। विदित है की, सितंबर माह में केंद्रीय वित्त मंत्री ने बजट 2021-22 में प्रस्तावित बैड बैंक के रूप में एन.ए.आर.सी.एल. के गठन को मंज़ूरी प्रदान की थी।
  • इसका प्रमुख उद्देश्य विभिन्न ऋणदाताओं की बाज़ार में उपलब्ध दबावग्रस्त परिसंपत्तियों को एकत्रित करना तथा उनका समाधान करना है। इसकी ‘प्रतिभूतिकृत रसीदें’ (Securitised Receipts – SRs) संप्रभु प्रकृति की होती हैं। आरंभ में यह कंपनी 500 करोड़ रुपए से अधिक के दबावग्रस्त ऋणों पर ध्यान केंद्रित करेगी।

बैंकों को लाभ

  • चूँकि एन.ए.आर.सी.एल. एक सरकारी कंपनी है, अतः सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को दबावग्रस्त परिसंपत्ति के समाधान के परिणामस्वरूप प्राप्त मूल्य की पुनः जाँच नहीं करनी पड़ेगी।
  • ‘बैंक’ ऋण वसूली की जटिल प्रक्रिया से बच सकेंगे तथा अपनी संपूर्ण ऊर्जा ‘साख-विस्तार’ (Credit-Expansion) तथा बैंकिंग सेवाओं को बेहतर बनाने में लगा सकेंगे।
  • निस्संदेह, दबावग्रस्त परिसंपत्तियों के एकत्रीकरण व समाधान के लिये यह एक अच्छी पहल है, लेकिन यह शंका अभी भी बनी हुई है कि एन.ए.आर.सी.एल. ऋण वसूली के मामले में ऋणदाताओं को बेहतर और त्वरित परिणाम दे पाएगी या नहीं।

बैड लोन के समाधान हेतु पूर्व में उठाए गए कदम

  • विगत 3 दशकों से बैड लोन की समस्या से निपटने के लिये विभिन्न संस्थागत और नीतिगत उपाय किये गए हैं। संस्थागत उपायों के अंतर्गत निम्नलिखित प्रमुख कदम उठाए गए हैं–
  1. औद्योगिक और वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड (BIFR), 1987
  2. ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRT), 1993
  3. निगम ऋण पुनर्गठन (CDR), 2001
  4. वित्तीय आस्तियों के प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण तथा प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम (SARFAESI), 2002
  5. परिसंपत्ति रिकवरी कंपनी (ARC), 2002
  6. लोक अदालतों का गठन
  7. राष्ट्रीय कंपनी लॉ अधिकरण (NCLT), इत्यादि।
  • इसके अलावा, वित्त वर्ष 2013-14 में ‘भारतीय रिज़र्व बैंक’ (RBI) ने भी दबावग्रस्त परिसंपत्तियों के समाधान, पुनर्निर्माण और पुनर्गठन के लिये कुछ सुधारवादी कदम उठाए।
  • ये सभी उपाय अपेक्षित परिणाम नहीं दे सके और अंततः इनका परित्याग कर दिया गया। ‘कमज़ोर आर्थिक तंत्र’ व ‘कानूनी प्रक्रिया में विलंब’ इन असफलताओं के मूल कारण माने गए।

‘परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनियों’ की स्थिति

  • निजी क्षेत्र की ‘परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनियों’ (ARCs) में से अधिकांश अत्यंत छोटी हैं। शीर्ष पाँच निजी ए.आर.सी. ऐसी हैं, जो इस क्षेत्र द्वारा ‘प्रबंधित की जा रही परिसंपत्तियों’ (AUM) के करीब 70% तथा इस क्षेत्र की कुल पूँजी के लगभग 65% भाग को नियंत्रित करती हैं।
  • निजी क्षेत्र की ए.आर.सी. ने ‘ज़ोंबी परिसंपत्तियों’ (Zombie Assets) की बिक्री में भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है। उल्लेखनीय है कि ‘ज़ोंबी परिसंपत्ति’ से आशय है– “ऐसी परिसंपत्ति, जिसका भौतिक अस्तित्व होता है तथा कंपनी द्वारा उसका सक्रिय उपयोग भी किया जाता है, लेकिन वह कंपनी के रिकॉर्ड में दर्ज़ नहीं होती है।”
  • ये निजी ए.आर.सी. अपने द्वारा अधिकृत की गई सकल परिसंपत्तियों का महज़ 13.9% ही बेचने में सफल हो सकी हैं। आर.बी.आई. के अनुसार, अभी तक लगभग एक-तिहाई दबावग्रस्त परिसंपत्तियों को पुनर्निर्धारित (Rescheduled) किया जा चुका है।

आई.बी.सी. की भूमिका

  • भारत सरकार ने वर्ष 2016 में ‘दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता’ (IBC) निर्मित की थी। यह पूर्ववर्ती उपायों की तुलना में अधिक प्रभावी सिद्ध हुई क्योंकि यह समयबद्ध तरीके से मामलों के निपटान पर ध्यान केंद्रित करती है तथा ‘वसूली’ (Recovery) की बजाय ‘समाधान’ (Resolution) को प्राथमिकता देती है।
  • इसका गुणात्मक पक्ष यह है कि यह ऐसे कॉर्पोरेट उधारकर्ताओं के मन में भय उत्पन्न करती है, जो जान-बूझकर ऋण जमा नहीं करते हैं। इसने कुछ बड़े कॉर्पोरेट उधारकर्ताओं की दबावग्रस्त आस्तियों का समाधान कर बैड लोन के 45% हिस्से तक सफलतापूर्वक वसूली की है। अर्थात् इन मामलों में बैड लोन की कीमत में करीब 55% तक की कटौती (Haircut) करनी पड़ी। मगर एक चिंताजनक बात यह है कि कुछ मामलों में ‘हेयरकट’ की सीमा 95% तक चली जाती है।
  • वे मामले, जिन्हें आई.बी.सी. के तहत सुलझाने का निर्णय लिया गया था, उनमें से करीब 47% मामलों में शोधन (Liquidation) का आदेश दिया जा चुका है। आई.बी.सी. को संदर्भित (Refer) किये गए कुल मामलों में से लगभग 70% मामले ऐसे थे, जो कई दशकों से ‘औद्योगिक और वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड’ (BIFR) के समक्ष लंबित थे। विदित है कि अब बी.आई.एफ.आर. समाप्त किया जा चुका है।

एंकरिंग पूर्वाग्रह (Anchoring Bias)

  • किसी ‘पूर्व सूचना’ या ‘पहले से उपलब्ध जानकारी’ (First Available Information) के आधार पर कोई निर्णय लेना ‘एंकरिंग पूर्वाग्रह’ कहलाता है।
  • दबावग्रस्त परिसंपत्तियों की बोली लगाने के संदर्भ में, ‘पहले से उपलब्ध जानकारी’ से आशय ए.आर.सी. द्वारा निर्धारित की जाने वाली ‘अधिग्रहण की लागत’ (Cost of Acquisition) से होता है, जबकि आई.बी.सी. प्रक्रिया के संदर्भ में, इसका आशय ‘भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता बोर्ड’ (IBBI) के मूल्यांकन-कर्ताओं द्वारा आँकी गई दबावग्रस्त परिसंपत्ति के ‘शोधन मूल्य’ (Liquidation Value) से होता है।
  • विभिन्न रिपोर्ट्स में दर्शाया गया है कि नवगठित एन.ए.आर.सी.एल. किसी दबावग्रस्त परिसंपत्ति का अधिग्रहण उसकी सकल कीमत के लगभग 20% पर कर सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार, अधिग्रहण की इतनी कम कीमत के आकलन से ‘एंकर प्रभाव’ और ‘पूर्वाग्रह की प्रवृत्ति’ को बढ़ावा मिलेगा।
  • इसका अर्थ है कि शोधन प्रक्रिया के दौरान बोली लगाने वाले लोग दबावग्रस्त परिसंपत्ति की सकल कीमत के 20% के आस-पास ही बोली लगाएँगे क्योंकि विभिन्न रिपोर्ट्स के माध्यम से यह जानकारी उनके पास पहले से ही उपलब्ध होगी कि एन.ए.आर.सी.एल. लगभग 20% कीमत पर बोली स्वीकार कर लेगी।
  • आई.बी.सी. की पूर्ववर्ती बोली प्रक्रियाओं में यह देखा भी गया है कि अधिकांश मामलों में बोली लगाने वालों ने जो कीमत निर्धारित की, वह ‘शोधन मूल्य’ (Liquidation Value) के लगभग बराबर थी।

चुनौतियाँ

  • ‘राष्ट्रीय कंपनी लॉ अधिकरण’ (NCLT) बैड लोन निपटान के मामलों में अंतिम बिंदु सिद्ध हुआ है। यह आई.बी.सी. की रीढ़ है, लेकिन यह अवसंरचना की कमी से जूझ रहा है।
  • एन.सी.एल.टी. में नियमित न्यायाधीशों के 63 में से 34 पद अर्थात् लगभग आधे पद रिक्त हैं, जबकि करीब 9.2 लाख करोड़ रुपए के संकटग्रस्त कर्ज के 13,170 से अधिक मामले लंबित हैं। यहाँ तक ​​कि संसदीय समिति ने भी बड़ी संख्या में खाली पड़े पदों पर रोष व्यक्त किया है।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार, लेनदारों की ओर से लगभग 6.9 लाख करोड़ रुपए का दावा किया गया, लेकिन उसके मुकाबले शोधन मूल्य (Liquidation Value) महज़ 0.49 लाख करोड़ रुपए आँका गया।
  • एन.सी.एल.टी. में व्याप्त इन कमियों का असर इसके निर्णयों पर भी पड़ता है और न्याय की गुणवत्ता में कमी आती है। इसके अलावा, इससे आई.बी.सी. का घोषित उद्देश्य प्राप्त करना भी दुष्कर हो जाता है।

आगे की राह

  • शुरुआती अवस्था में ही बैड लोन की पहचान करने के लिये ऋणदाताओं (Lenders) को प्रोत्साहित करना चाहिये।
  • गैर-निष्पादक परिसंपत्तियों (NPAs) के वर्गीकरण संबंधी नियामकीय मानदंड निर्मित करने से पूर्व व्यावसायिक तनाव (Business Stress) और वित्तीय तनाव (Financial Stress) की पहचान करनी चाहिये।
  • आई.बी.सी. ने ‘जानबूझकर ऋण न चुकाने वालों’ (Wilful Defaulter) में व्यावहारिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अतः एन.ए.आर.सी.एल. को न सिर्फ यह स्थिति बनाए रखनी होगी, अपितु उसमें सुधार भी करना होगा। अन्यथा, ऋण वितरण की व्यवस्था प्रभावित होगी।
  • एन.ए.आर.सी.एल. के पास 3 से 5 वर्षों का ‘सूर्यास्त प्रावधान’ (Sunset Clause) लागू करने का अधिकार भी होना चाहिये, ताकि न सिर्फ नैतिक खतरों से बचा जा सके, बल्कि त्वरित समाधान भी किया जाए।
  • नोबेल पुरस्कार विजेता डेनियल कनमैन ने ‘एंकरिंग पूर्वाग्रह’ की समस्या से निपटने के लिये एक त्रि-चरणीय प्रक्रिया बताई है। इसके तहत प्रथम चरण में व्यक्ति को स्वीकार करना चाहिये कि वह पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। द्वितीय चरण में, उसे जानकारी के अधिकाधिक व नवीन स्रोत ढूँढने चाहिये तथा तृतीय चरण में, नई जानकारी के आधार पर पूर्वाग्रह का परित्याग कर देना चाहिये।
  • इसके अलावा, व्यवस्था से बाहर भी दबावग्रस्त परिसंपत्ति का समाधान करने का प्रयास किया जाना चाहिये ताकि ‘एंकरिंग पूर्वाग्रह’ का सामना न करना पड़े।

निष्कर्ष

निरंतर बढ़ते एन.पी.ए. को नियंत्रित करने और उसकी वसूली करने के लिये प्रभावी व्यवस्था का होना अत्यंत आवश्यक  है, ऐसे में, एन.ए.आर.सी.एल. का गठन एक स्वागत योग्य कदम है। इससे बैंकिग प्रणाली में सुधार होगा तथा बैंकों की दक्षता में भी वृद्धि होगी। इसके अलावा, एन.पी.ए. की मात्रा को 2% तक बनाए रखने का प्रयास भी किया जाना चाहिये।

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