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जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में आर्कटिक सहयोग

(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3 –द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से संबंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार।)

संदर्भ

विशेषज्ञों का मानना है कि आर्कटिक क्षेत्र के देशों को ‘सैन्य और आर्थिक मुद्दों’ से इतर पर्यावरणीय चुनौतियों पर ध्यान देना चाहिये।

आर्कटिक परिषद्

  • आर्कटिक परिषद्, आर्कटिक क्षेत्र के देशों के मध्य सहयोग, समन्‍वय एवं अंत:क्रिया को बढ़ावा देने के लिये ‘ओटावा घोषणा’ द्वारा वर्ष 1996 में स्‍थापित एक उच्‍च स्‍तरीय अंतर्सरकारी निकाय है।
  • इसके आठ स्थायी सदस्य देश हैं, जिनकी आर्कटिक संसाधनों तक सीधी पहुँच है, जिसमें कनाडा, डेनमार्क, फ़िनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, रूसी संघ, स्वीडन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
  • वर्ष 2013 में चीन, जापान, भारत, इटली, दक्षिण कोरिया व सिंगापुर पर्यवेक्षक के रूप में परिषद् में शामिल हुए, जिससे परिषद् की कुल सदस्य संख्या 13 हो गई।
  • वर्तमान में आर्कटिक क्षेत्र में ‘भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा और हितों के अपरिहार्य संघर्ष’ में बढ़ोत्तरी देखी जा रही है।
  • दिलचस्प तथ्य यह है कि वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य कुछ हद तक आर्कटिक क्षेत्र में भी प्रतिबिंबित हो रहा है। यह मुख्य रूप से ‘उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन’ (NATO) के सहयोगियों तथा रूस के मध्य बढ़ते तनाव से संबंधित है।

सुरक्षा चिंताएँ

  • शीत युद्ध के अंत तक आर्कटिक के ‘भू-राजनीतिक तनाव और सुरक्षा चिंताओं’ को लगभग भुला दिया गया था।
  • अक्तूबर 1987 में, कोला प्रायद्वीप की यात्रा के दौरान सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव मिखाइल गोर्बाचेव ने शीत युद्ध के अंत को स्वीकार करते हुए आर्कटिक क्षेत्र में ‘शांति बहाली’ का आह्वान किया था।
  • उक्त कथित ‘सद्भाव’ वर्ष 2007 में टूट गया था, जब रूसी खोजकर्ताओं ने आर्कटिक में मॉस्को के दावों को स्पष्ट करने के लिये उत्तरी ध्रुव के नीचे 4,200 मीटर समुद्र तल पर अपना ध्वज लगाया था।
  • इस कदम को अन्य आर्कटिक देशों ने ‘उत्तेजक व्यवहार’ के रूप में देखा। इसके जवाब में  कनाडा के विदेश मंत्री ने कहा था कि “यह 15वीं शताब्दी नहीं है, जब कोई देश कहीं चला जाए, अपने ध्वज लगा दे तथा किसी क्षेत्र पर अधिकार का दावा करे”।
  • वर्ष 2014 में ‘रूस-यूक्रेन संघर्ष’ के पश्चात् क्षेत्रीय तनाव बढ़ गया था। नतीजतन, अमेरिका और रूस संबंध पुनः अपने सबसे निचले स्तर पर पहुँच गए।
  • वर्ष 2014 में यूक्रेन की घटना के उपरांत रूस को ‘नियम तोड़ने वाले’, ‘संशोधनवादी’ तथा एक ‘अविश्वसनीय’ देश के रूप में देखा जाने लगा है।
  • इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्र में रूस द्वारा सैन्य शक्ति को पुनर्स्थापित करने से सुरक्षा संबंधी चिंताएँ बढ़ गई हैं।
  • दूसरी ओर, रूसी सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि बैरेंट सागर पश्चिमी समुद्री हमले के लिये लॉन्चिंग क्षेत्र के रूप में कार्य कर सकता है, अतः रूसी नौसेना को आर्कटिक महासागर में अपने पनडुब्बी रोधी बलों की तैनाती सुनिश्चित करनी चाहिये।

पर्यावरणीय आयाम

  • विगत कई वर्षों से वैश्विक जगत को कई ‘वेक-अप कॉल्स’ का सामना करना पड़ा है, जो जलवायु परिवर्तन से संबंधित हैं।
  • वर्ष 2021 की गर्मियों को इतिहास में सबसे विनाशकारी मौसमों में से एक के रूप में दर्ज किया जाएगा, जब विश्व ने भयंकर बाढ़ और वनाग्नि का सामना किया।
  • पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण प्राकृतिक आपदाएँ, अभूतपूर्व पैमाने और असामान्य भौगोलिक घटनाएँ अप्रत्याशित रूप से हो रही हैं।
  • उदाहरणार्थ, उत्तरी अमेरिका में अत्यधिक गर्मी या रूसी साइबेरिया में वनाग्नि से संबंधित परिघटनाएँ।
  • आर्कटिक क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से व्यापक रूप से प्रभावित हो रहा है। साथ ही, यह वैज्ञानिक अनुसंधान के लिये एक मंच प्रदान करता है, जो वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं को समझने में सहायता कर सकता है।
  • अस्तित्व संबंधी खतरों को ध्यान में रखते हुए, आर्कटिक क्षेत्र के सभी देशों के एजेंडे में पर्यावरणीय चुनौतियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।

विश्व जलवायु और सुरक्षा रिपोर्ट, 2020

  • विश्व जलवायु और सुरक्षा रिपोर्ट, 2020 (जलवायु और सुरक्षा पर अंतर्राष्ट्रीय सैन्य परिषद् के विशेषज्ञ समूह की प्रथम रिपोर्ट) के अनुसार, आर्कटिक पृथ्वी के अन्य स्थानों की अपेक्षा लगभग दोगुनी दर से गर्म हो रहा है।
  • वर्ष 2014 के पश्चात् से आर्कटिक क्षेत्र निरंतर ‘गर्म वर्ष’ का अनुभव कर रहा है। साथ ही, अगले दशक तक यहाँ ‘आइस-फ्री समर’ शुरू होने की आशंका है।
  • ‘नाजुक आर्कटिक पारिस्थितिकी तंत्र’ पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिये ठोस प्रयास करना अनिवार्य है।

भू-राजनीतिक बनाम सामरिक आयाम

  • पर्यावरण रूपांतरण और तेज़ी से बर्फ पिघलने से इस क्षेत्र में नए अवसर सृजित हुए हैं, जिसमें ‘ट्रांस-आर्कटिक शिपिंग’ मार्ग शामिल है।
  • इन अवसरों ने अनिवार्यतः इस क्षेत्र के सभी हितधारकों, जैसे आर्कटिक और गैर-आर्कटिक देशों को आकर्षित किया है।
  • उदाहरणार्थ, चीन आर्कटिक क्षेत्र के निकट अपनी ‘स्व-घोषित स्थिति’ के साथ विभिन्न परियोजनाओं में सक्रियता से संलग्न है।
  • चीन के लिये आर्कटिक क्षेत्र का महत्त्व उसकी ‘ऊर्जा सुरक्षा तथा शिपिंग लेन’ में विविधता लाने की आवश्यकता पर आधारित है।
  • आर्कटिक के रास्ते चीन से यूरोप तक परिवहन मार्ग न केवल बहुत छोटे हैं, बल्कि मलक्का जलसंधि व दक्षिण चीन सागर से संबंधित चुनौतियों से भी मुक्त हैं।

निष्कर्ष

  • आर्कटिक क्षेत्र के महत्त्व को देखते हुए यह क्षेत्र वैश्विक आकर्षण का केंद्र बना रहेगा। हालाँकि राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के अतिरिक्त इस क्षेत्र में भविष्य के विकास और मानवीय हितों के संदर्भ में भी चिंतित होने की आवश्यकता है।
  • अतः देशों को आपसी उकसावे, अत्यधिक सैन्यीकरण तथा बदले की रणनीति से बचना चाहिये।
  • सभी आर्कटिक हितधारकों के पास तात्कालिक’ अल्पकालिक लाभ’ की तुलना में दीर्घकालिक ‘दृष्टि और रणनीतिक’ लक्ष्य होने चाहिये।
  • आर्कटिक को एक संभावित युद्ध का मैदान बनाने की बजाय संबंधित पक्षों को अपनी विशेषज्ञता का उपयोग करते हुए साझा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये आवश्यक सामंजस्य स्थापित करना चाहिये।
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