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संसद में विधेयक एवं प्रवर समिति

(प्रारंभिक परीक्षा : भारतीय राज्यतंत्र और शासन संविधान, राजनीतिक प्रणाली, लोकनीति, अधिकारों से सम्बंधित मुद्दे; मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: विषय- भारतीय संविधान- ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना। विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान। संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय।)

हाल ही में सरकार ने राज्यसभा में दो महत्त्वपूर्ण कृषि विधेयकों को पारित किया जिसके बाद से राज्य सभा में इसका विपक्ष द्वारा बहुत विरोध हुआ तथा विपक्ष ने इन विधेयकों को प्रवर समिति के पास भेजने की माँग की।

संसदीय समितियाँ:

  • जैसा कि विदित है कि संसद के कार्यों में न सिर्फ विविधता रहती है बल्कि काम की अधिकता भी रहती है। चूँकि संसद के पास इन कार्यों के लिये समय बहुत सीमित होता है, इसलिये उसके समक्ष प्रस्तुत सभी विधायी या अन्य मामलों पर गहन विचार नहीं हो सकता है। अत: इसका बहुत-सा कार्य समितियों द्वारा किया जाता है।
  • संसद के दोनों सदनों की समितियों की संरचना कुछ अपवादों को छोड़कर एक जैसी होती है। इन समितियों में नियुक्ति,कार्यकाल,कार्य एवं कार्य संचालन की प्रक्रिया कुल मिलाकर करीब एक जैसी ही है और यह संविधान के अनुच्छेद 118 (1) के अंतर्गत दोनों सदनों द्वारा निर्मित नियमों के तहत अधिनियमित होती है।
  • सामान्यतः ये समितियाँ दो प्रकार की होती हैं – स्थाई समितियाँ और तदर्थ समितियाँ। स्थाई समितियाँ प्रतिवर्ष या समय-समय पर निर्वाचित या नियुक्त की जाती हैं और इनका कार्य कमोबेश निरंतर चलता रहा है। तदर्थ समितियों की नियुक्ति ज़रूरत पड़ने पर की जाती है तथा अपना काम पूरा कर लेने और अपनी रिपोर्ट पेश कर देने के बाद वे समाप्त हो जाती हैं।

स्‍थाई समितियाँ:

  • वे समितियाँ जो बिल, बजट और मंत्रालयों की नीतियों की जाँच करती हैं, उन्हें विभागीय रूप से सम्बंधित स्थाई समितियाँ कहा जाता है। ऐसी 24 समितियाँ हैं।
  • प्रत्येक समिति में 31 सांसद होते हैं, 21 लोक सभा से और 10 राज्य सभा से।
  • इन समितियों का उद्देश्य अधिक-से-अधिक और विस्तृत चर्चा द्वारा सरकार की संसद के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करना है।
  • इनका उद्देश्य प्रशासन को कमज़ोर करना या प्रशासन की आलोचना करना नहीं है बल्कि अधिक सार्थक संसदीय समर्थन के साथ विधेयक से जुड़े कारकों को मज़बूत करना है।

लोक सभा की स्‍थाई समितियों में तीन वित्तीय समितियों यानी प्राकक्‍लन समिति, लोक लेखा समिति तथा सरकारी उपक्रमों सम्बंधी समिति का विशिष्‍ट स्‍थान है और ये सरकारी खर्च और निष्‍पादन पर लगातार नज़र रखती हैं। प्राक्‍कलन समिति के सभी सदस्‍य लोक सभा से होते हैं,लेकिन लोक लेखा समिति तथा सरकारी उपक्रमों सम्बंधी समिति में लोक सभा के साथ राज्‍य सभा के भी सदस्‍य होते हैं

1. प्राक्‍कलन समिति 30 सदस्य (लोक सभा ) 1 वर्ष लोक सभा द्वारा निर्वाचित
2. लोक लेखा समिति 22 सदस्य (15 लोक सभा + 7 राज्‍य सभा) 1 वर्ष दोनों सदनों द्वारा निर्वाचित
3. सरकारी उपक्रमों सम्बंधी समिति 22 सदस्य (15 लोक सभा + 7 राज्‍य सभा) 1 वर्ष दोनों सदनों द्वारा निर्वाचित
  • प्राक्‍कलन समिति यह बताती है कि प्राक्‍कलनों में निहित नीति के अनुरूप क्‍या मितव्‍ययिता बरती जा सकती है तथा संगठन, कार्य-कुशलता और प्रशासन में क्‍या-क्‍या सुधार किये जा सकते हैं। यह इस बात की भी जाँच करती है कि धन प्राक्‍कलनों में निहित नीति के अनुरूप ही व्‍यय किया जा सकता है या नहीं। समिति इस बारे में भी सुझाव देती है कि प्राक्‍कलन को संसद में किस रूप में पेश किया जाए।
  • लोक लेखा समिति भारत सरकार के विनियोग तथा वित्त लेखा और लेखा नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की जाँच करती है। यह सुनिश्चित करती है कि सरकारी धन संसद के निर्णयों के अनुरूप ही खर्च हो। यह अपव्‍यय, हानि और निरर्थक व्‍यय के मामलों की ओर ध्‍यान दिलाती है।
  • सरकारी उपक्रमों सम्बंधी समिति नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की यदि कोई रिपोर्ट हो, तो उसकी जाँच करती है। वह इस बात की भी जाँच करती है कि ये सरकारी उपक्रम कुशलतापूर्वक चलाए जा रहे हैं या नहीं, इनका प्रबंध ठोस व्‍यापारिक सिद्धांतों और विवेकपूर्ण वाणिज्यिक प्रक्रियाओं के अनुसार किया जा रहा है या नहीं।
  • इन तीन वित्तीय समितियों के अलावा, लोक सभा के नियमों के बारे में समिति ने विभागों से सम्बंधित 17 स्‍थाई समितियाँ गठित करने की सिफारिश की थी। इसके अनुसार, 8 अप्रैल,1993 को इन 17 समितियों का गठन किया गया। जुलाई 2004 में नियमों में संशोधन किया गया, ताकि ऐसी ही 7 और समितियाँ गठित की जा सकें। इस प्रकार से इन समितियों की संख्‍या 24 हो गई है।

समितियों के कार्य:

  • भारत सरकार के विभिन्‍न मंत्रालयों/विभागों के अनुदानों की मांग पर विचार करना और उसके बारे में सदन को सूचित करना;
  • लोक सभा के अध्‍यक्ष या राज्‍य सभा के सभापति द्वारा समिति के पास भेजे गए ऐसे विधेयकों की जाँच-पड़ताल करना और जैसा भी मामला हो, उसके बारे में रिपोर्ट तैयार करना;
  • मंत्रालयों और विभागों की वार्षिक रिपोर्टों पर विचार करना तथा उसकी रिपोर्ट तैयार करना; और
  • सदन में प्रस्‍तुत नीति सम्बंधी दस्‍तावेज़ यदि लोक सभा के अध्‍यक्ष अथवा राज्‍य सभा के सभापति द्वारा समिति के पास भेजे गए हैं,तो उन पर विचार करना और उनके बारे में रिपोर्ट तैयार करना।

संसदीय समिति की आवश्यकता क्यों है?

  • संसद दो तरीकों से विधायी प्रस्तावों (विधेयकों) की जाँच करती है। पहला,दोनों सदनों के पटल पर इस पर चर्चा करके।
  • यह एक विधायी आवश्यकता है;सभी विधेयकों पर बहस की जानी चाहिये।
  • बिलों पर बहस करने में लगने वाला समय अलग-अलग हो सकता है। उन्हें कुछ ही मिनटों में पारित किया जा सकता है या बहस और उन पर मतदान देर रात तक चल सकता है।
  • चूँकि संसद सत्र मात्र 70 से 80 दिनों के ही होते हैं, इसलिये सदन के पटल पर प्रत्येक विधेयक पर विस्तार से चर्चा करने के लिये पर्याप्त समय नहीं होता है।
  • दूसरा तरीका है कि विधेयक को प्रवर समिति या किसी अन्य स्थाई समिति को जाँच या परीक्षण के लिये सौंप दिया जाए।

प्रवर समिति क्या होती है?

भारत की संसद में कई प्रकार की समितियाँ हैं। प्रवर समिति तदर्थ समिति की सलाहकार समिति के अंतर्गत आती है । इसका गठन किसी विधेयक पर विचार करके उसकी रिपोर्ट देने के लिये किया जाता है। यह समिति विधेयक पर उसी प्रकार विचार करती है जैसे दोनों सदन किसी विधेयक पर विचार करते हैं । समिति के सदस्य अगर चाहें तो विभिन्न प्रावधानों पर संशोधन के लिये प्रस्ताव रख सकते हैं।

समिति विधेयकों की जाँच कब करती है?

  • विधेयकों को स्वतः समितियों के पास परीक्षण के लिये नहीं भेजा जाता है।इसके  तीन व्यापक रास्ते हैं जिनके द्वारा एक विधेयक किसी समिति तक पहुँच सकता है।
  • पहला यह है कि जब बिल को लाने वाला मंत्री सदन को सलाह देता है कि उसके विधेयक की जाँच सदन की प्रवर समिति या दोनों सदनों की संयुक्त समिति द्वारा की जाए।
  • पिछले साल इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्री ने लोक सभा में एक प्रस्ताव रखा जिसमें व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक को एक संयुक्त समिति को सौंप दिया गया।
  • यदि मंत्री इस तरह का कोई प्रस्ताव नहीं देता है,तो यह सदन के पीठासीन अधिकारी पर निर्भर करता है कि वह विधेयक को विभागीय रूप से सम्बंधित स्थाई समिति को भेजे या नहीं।

जब कोई बिल किसी समिति के पास जाता है तो क्या होता है?

  • किसी भी समिति के पास विधेयक आने पर दो बातें होती हैं।
  • सबसे पहले,समिति विधेयक का एक विस्तृत परीक्षण करती है। यह विशेषज्ञों, हितधारकों और नागरिकों से टिप्पणियों और सुझावों को आमंत्रित करती है।
  • सरकार भी अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिये समिति के सामने आती है।
  • इस सबके बाद एक रिपोर्ट बनाई जाती है, जिसके द्वारा विधेयक को मज़बूत बनाने के लिये आवश्यक सुझाव दिये जाते हैं। जब तक समिति के पास विधेयक जाँच के लिये रहता है,इसका विधिक या प्रशासनिक पालन भी रुका रहता है।
  • समिति द्वारा रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत किये जाने के बाद ही यह विधेयक अपनी विधायी प्रक्रिया में आगे बढ़ता है। आमतौर पर, संसदीय समितियों को तीन महीनों में अपनी रिपोर्ट देनी होती है, लेकिन कभी-कभी इसमें अधिक समय लग सकता है।

रिपोर्ट के बाद क्या होता है?

  • समिति की रिपोर्ट की प्रकृति अनुशंसात्मक होती है। सरकार इसकी सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है।
  • बहुत बार सरकार समितियों द्वारा दिये गए सुझावों को शामिल करती है, जिसमें  प्रवर समितियाँ और जे.पी.सी.थोड़े लाभ में रहती हैं।
  • अपनी रिपोर्ट में वे विधेयक के अपने संस्करण को भी शामिल कर सकते हैं। यदि वे ऐसा करते हैं,तो उस विशेष विधेयक के प्रभारी मंत्री विधेयक की समिति के संस्करण के लिये चर्चा कर सकते हैं और सदन में पारित भी करवा सकते हैं।
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