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अफगानिस्तान में बदलती परिस्थितियाँ और भारत 

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी-संबंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय व वैश्विक समूह और भारत से संबंधित व भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)

संदर्भ 

अमेरिकी सैनिकों द्वारा अफगानिस्तान छोड़ने के बाद तालिबान ने अफगान सैन्य बलों (अफगान स्पेशल फोर्सेस) के खिलाफ हमले तेज़ कर दिये हैं। कम समय में ही तालिबान ने अफगानिस्तान के ग्रामीण क्षेत्रों, ज़िला मुख्यालयों और संवेदनशील सीमा क्रासिंग सहित इसके बड़े हिस्सों पर कब्जा कर लिया है।

भारत की चिंताएँ

  • इन उभरती परिस्थितियों ने भारत के लिये तत्कालिक रूप से सामरिक और भू-राजनीतिक सहित कई चिंताओं को जन्म दिया है। पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में काफी सहयोग किया है। इन परियोजनाओं में अफगान संसद भवन, हेरात प्रांत में सलमा बाँध (विद्युत उत्पादन के साथ-साथ 75,000 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई) और उत्तर में पुल-ए-खुमरी से काबुल को जोड़ने वाली 202 किमी. लंबी विद्युत पारेषण लाइन (Electricity Transmission Line) जैसी कुछ बड़ी परियोजनाएँ हैं, जिन्हें भारत द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है।
  • फरवरी 2020 में सुन्नी कट्टरपंथी तालिबान के साथ हस्ताक्षरित शांति समझौते की शर्तों के अनुसार अमेरिका और अन्य अंतर्राष्ट्रीय सैनिकों के अफगानिस्तान छोड़ने के साथ, भारत को अफगान मामलों में पाकिस्तान के प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है।
  • भारत का अनुमान है कि तालिबान ने वर्तमान में अफगानिस्तान के लगभग 50% हिस्से पर नियंत्रण कर लिया है। तालिबान के दृष्टिकोण से वह जितने अधिक क्षेत्र को नियंत्रित कर लेता है, राजनीतिक समझौते में लाभ प्राप्त करने की उसकी क्षमता उतनी ही अधिक होगी।
  • भीषण लड़ाई को देखते हुए भारत को 11 जुलाई को तीसरे अफगान शहर कंधार से अपने राजनयिक कर्मियों को निकालना पड़ा। भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि कंधार में वाणिज्यिक दूतावास को बंद नहीं किया गया है और कर्मियों को अस्थायी तौर पर निकाला गया है। 
  • हालाँकि, पिछले वर्ष हेरात और जलाबाबाद में वाणिज्यिक दूतावासों के बंद होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी कम हो रही है।
  • अफगानिस्तान में भारत की कम होती उपस्थिति पाकिस्तान के लिये संतोषजनक है। पाकिस्तान लंबे समय से अफगानिस्तान में एक ऐसी सरकार चाहता है, जिसे वह भारत के विरुद्ध प्रयोग कर सके। इसके लिये तालिबान के प्रभुत्व या नियंत्रण वाली सरकार पाकिस्तान की योजनाओं के अनुरूप है।
  • अफगानिस्तान में भारत की भागीदारी इस विश्वास पर आधारित थी कि वह अमेरिकी सुरक्षा छत्र के नीचे अफगानिस्तान में अपने राजनयिक और विकास एजेंडे का विस्तार कर सकता है, जिसकी सीमाएँ आज स्पष्ट हैं। अमेरिका के जाने के बाद अफगानिस्तान में भारत की भूमिका संघर्ष की प्रकृति और उसकी तीव्रता से निर्धारित होगी। 

बचाव व प्रतिरक्षा के लिये दृढ़ संकल्प

  • अमेरिका और तालिबान के बीच फरवरी 2020 के समझौते के अनुसार, 19 वर्ष बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुला ली है। समझौते के तहत अमेरिका ने काबुल के ठीक उत्तर में स्थित बगराम एयरबेस को खाली कर दिया, जो वर्ष 2001 से सभी अमेरिकी सैन्य अभियानों का केंद्र बिंदु था। अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान से बाहर निकलने की अंतिम तिथि 31 अगस्त है। 
  • यह समझौते की शर्तें तालिबान के अधिक अनुकूल थी और इसे शांति समझौता से अधिक अमेरिकी सैन्य वापसी समझौता कहा जा सकता है। यहाँ तक ​​​​कि दोहा समझौते में शामिल 'आतंकवाद रोधी गारंटी' का भी तालिबान द्वारा तथाकथित रूप से पालन नहीं किया जा रहा है।
  • वापस जाने के बाद लगभग 650 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में मौजूद रहेंगे, जो अमेरिकी दूतावास और काबुल हवाई अड्डे की सुरक्षा के लिये पर्याप्त हैं। लगभग दो दशक तक अफगानिस्तान में रहने, 2,500 अमेरिकी सैनिकों की मौत और अफगान युद्ध व पुनर्निर्माण में अनुमानत: 2 ट्रिलियन डॉलर के निवेश के बाद अमेरिका वर्ष 2018 से वापसी की योजना बना रहा था। 

मुख्य कारण

  • अमेरिका के लिये रूस और चीन से उत्पन्न चुनौतियों पर अफगानिस्तान की तुलना में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। अब जब अमेरिकी सेना अफगानिस्तान छोड़ रही है, तो तालिबान को बातचीत के लिये सहमत करने के लिये अमेरिका के पास बहुत कम विकल्प हैं।
  • हिंसा की वर्तमान स्थिति को देखते हुए कुछ अमेरिकी अनुमानों के अनुसार, गनी सरकार छह महीने से एक वर्ष के भीतर गिर सकती है। अफगानिस्तान अब अमेरिका से केवल सहायता, विशेष रूप से सैन्य हार्डवेयर, की आशा करता है।
  • अमेरिका ने नए प्रशिक्षित अफगान पायलटों के लिये हेलीकॉप्टर और विमान उपलब्ध कराने का वादा किया है। हालाँकि, ऐसे संकेत हैं कि तालिबान ऑफ-ड्यूटी अफगान पायलटों की हत्या कर रहा है ताकि अफगान थल सैन्य बलों को लड़ाई में महत्त्वपूर्ण हवाई समर्थन न मिल सके।
  • विशेषज्ञों के अनुसार, अफगानिस्तान की सबसे बड़ी कमजोरी कई गैर-तालिबान गुटों और सत्ता के दलालों के बीच फूट है। विभिन्न सरदारों और कबायली प्रमुखों के बीच प्रतिद्वंद्विता अफगान समाज के लिये अभिशाप बनी हुई है।
  • तालिबान को रोकने की एकमात्र उम्मीद राष्ट्रपति गनी के द्वारा स्थानीय नेताओं तक पहुँचने और देश की रक्षा के लिये एक सामान्य लक्ष्य के लिये उन्हें एकजुट करने की है।

भारत और अफगानिस्तान : संबंधों में उतार-चढ़ाव 

  • अफगानिस्तान, भारत को ऐतिहासिक कारणों से और साथ ही पिछले 20 वर्षों में मिली मदद के लिये एक अच्छे दोस्त के रूप में देखता है। दूसरा एक प्रमुख प्रभाव बॉलीवुड का भी रहा है। साथ ही, भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली भी कई अफगानों को आकर्षित करती है।
  • शिक्षा भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। वर्ष 2006 से भारत में 60,000 अफगान छात्र हैं और वर्तमान में इनकी संख्या 19,000 है। भारत ने जन-स्तर पर सद्भावना का निर्माण किया है और अफगानिस्तान के सामरिक महत्त्व के सापेक्ष वहाँ भारत का राजनीतिक लाभ सीमित ही रहा है। ब्रिटिश काल से ही अफगानिस्तान को भारत की सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है। दोनों देशों के मध्य वर्ष 1950 में राजनयिक संबंध स्थापित हुए।
  • हालाँकि, शीत युद्ध के दौरान भारत और रूस के बीच निकटता के कारण अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के समय भारत-अफगानिस्तान संबंधों में गिरावट देखी गई। 
  • वर्ष 1989 में सोवियत संघ सेना की वापसी के बाद विभिन्न अफगान गुटों के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया। कट्टरपंथी सुन्नी तालिबान ने अपने उदय के दो वर्ष बाद ही वर्ष 1996 में अफगानिस्तान में अपना प्रभाव जमा लिया।
  • सुरक्षा विश्लेषक ब्रह्मा चेलानी ने अपने एक निबंध ‘प्रोजेक्ट सिंडिकेट’ में बताया है कि ‘1996 से 2001 के बीच जब तालिबान सत्ता में था, तो उसने पाकिस्तान को आतंकवादियों को प्रशिक्षित करने के लिये अफगान क्षेत्र का उपयोग करने की अनुमति दी थी। तालिबान की वापसी चीन के साथ सैन्य गतिरोध के समय भारत के लिये आतंकवाद के रूप में एक नया मोर्चा खोल सकता है।
  • दिसंबर 1999 में तालिबान के नियंत्रण वाले कंधार में एक भारतीय विमान का हाईजैक भारत के विरुद्ध तालिबान और पाकिस्तान के घनिष्ठ संबंधों को प्रदर्शित करता है। यात्रियों की सुरक्षित वापसी के लिये भारत को पाकिस्तान समर्थक तीन कश्मीरी आतंकवादियों को रिहा करना पड़ा था।
  • वर्तमान में दोहा स्थित तालिबान के प्रवक्ता के अनुसार, दोहा समझौते के आधार पर, तालिबान, अफगानिस्तान की धरती का उपयोग किसी अन्य देश के खिलाफ न करने को लेकर प्रतिबद्ध है।
  • हालाँकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि न केवल भारत, बल्कि पाकिस्तान भी इस समय तालिबान द्वारा किये गए वादों को लेकर सुनिश्चित नहीं है। यदि तालिबान बल प्रयोग करके सत्ता में आता है, तो उसकी नीति की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का आकलन करना मुश्किल है।
  • हालाँकि, वर्तमान में भारत के पास 1996-2001 की तुलना में अधिक विकल्प हैं। 1990 के दशक के मध्य में भारत राजनीतिक और आर्थिक रूप से अस्थिर था। भारत मौजूदा समय में अफगानिस्तान और ईरान जैसे क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ सामंजस्य बनाने में अधिक सक्षम है। हाल के दिनों में भारत ने तालिबान के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव का संकेत दिया है।
  • ऐसे भी संकेत हैं कि भारत, कुछ तालिबानी समूहों के संपर्क में हैं। हालाँकि, भारत ने इसकी पुष्टि नहीं की है किंतु वह ‘विभिन्न हितधारकों’ से जुड़े रहने की बात स्वीकारता है। यद्यपि, तालिबान के प्रवक्ता ने इसका खंडन करते हुए कहा है कि तटस्थ भारत का अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में स्वागत है। 
  • वर्तमान में भारत को तटस्थ रहते हुए काबुल प्रशासन की सैन्य सहायता नहीं करनी चाहिये क्योंकि इसका उपयोग अंततः अफगानिस्तान के विनाश के लिये ही हो सकता है। 

आगे की राह 

  • भारत को उम्मीद है कि सामान्य अफगानी तालिबान के सत्ता अधिग्रहण का विरोध करेंगे। हाल के वर्षों में, अफगानी युवाओं के बीच टेलीविज़न और इंटरनेट का उपयोग बढ़ा है। महिलाओं को पढ़ाई और नौकरी की आजादी थी। तालिबान इन सबका विरोध करता है और सख्त शरिया कानून का पक्षधर है।
  • तालिबान द्वारा रूस, ईरान और चीन से किये गए वादों के बावजूद तीनों देश इस समूह के बारे में सुनिश्चित नहीं हैं क्योंकि तालिबान जिस तरह की विचारधाराओं का प्रचार करता है, उसे भौगोलिक सीमाओं के भीतर नहीं बांधा जा सकता है।
  • आतंकवाद पर तीनों देशों की चिंताएँ भारत के समान थीं और भारत इस चिंता का उपयोग कर सकता है। हालाँकि, पाकिस्तान और चीन के बीच मज़बूत संबंधों को देखते हुए तालिबान को इन दोनों का समर्थन मिल सकता है। 
  • साथ ही, ईरान और रूस सामरिक रूप से तालिबान से दूरी बना सकते हैं और ईरान व रूस के साथ भारत एक बार फिर से तालिबान विरोधी मोर्चे में शामिल हो सकता है।
  • तीसरा विकल्प भारत और तालिबान के बीच संचार का एक सीधा चैनल है, जिसे पाकिस्तान बाधित करने की कोशिश करेगा। वर्तमान में तालिबान ने पाकिस्तान से स्वायत्तता और भारत के साथ एक स्वतंत्र द्विपक्षीय संबंध का संकेत दिया है। 
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