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अभिरक्षा में मृत्यु : जीवन के अधिकार का उल्लंघन

संदर्भ

उत्तर प्रदेश के देवरिया में कथित तौर पर एक सब-इंस्पेक्टर द्वारा पीटे जाने के बाद पुलिस हिरासत में एक व्यक्ति की मौत हो गई। भारत में अक्सर पुलिस अभिरक्षा में मौत के गंभीर मामले सामने आते रहे हैं। पूर्व सांसद अतीक अहमद से लेकर अभिनेता सलमान खान के घर पर गोलीबारी के मामले में आरोपी द्वारा पुलिस अभिरक्षा में आत्महत्या तक कई हाई प्रोफाइल मामलों में पुलिस अभिरक्षा में होने वाली मौतें पुलिस प्रशासन की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिह्न लगाती है। 

भारत में पुलिस अभिरक्षा में मौत के मामले

  • पुलिस अभिरक्षा में मौतों के मामले में भारत का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार, 1 अप्रैल 2017 से 31 मार्च 2022 तक देशभर में पुलिस हिरासत हुई मौतों के कुल 669 मामले दर्ज किए गए। 
  • 2017-22 से, हिरासत में मौतों की सबसे अधिक संख्या गुजरात में दर्ज की गई है, इसके बाद महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार हैं।

अभिरक्षा में मृत्यु का क्या तात्पर्य है?

  • अभिरक्षा में मौत का तात्पर्य किसी आरोपी की सुनवाई से पहले या सजा के बाद हुई मृत्यु मौत से है, जिसके लिए अक्सर अभिरक्षा के दौरान पुलिस की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्रवाई मृत्यु का कारण होती है। 
  • इसमें न केवल जेल में बल्कि पुलिस अभिरक्षा के दौरान चिकित्सा या निजी परिसर, या पुलिस या किसी अन्य वाहन में होने वाली मृत्यु भी शामिल है।
  • अभिरक्षा में मृत्यु को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
    • पुलिस अभिरक्षा में हुई मृत्यु
    • न्यायिक अभिरक्षा में हुई मृत्यु
    • सेना या अर्द्धसैनिक बलों की अभिरक्षा में हुई मृत्यु
  • अभिरक्षा में मौत कुछ प्राकृतिक कारणों से भी हो सकती है, जहां पुलिस की कोई भी भूमिका नहीं होती है, उदाहरण के लिए- उदाहरण के लिए जब किसी दोषी या आरोपी की बीमारी से मृत्यु हो जाती है। 

पुलिस अभिरक्षा बनाम न्यायिक अभिरक्षा  

  • किसी पुलिस अधिकारी द्वारा जब एक व्यक्ति को संज्ञेय अपराध करने के संदेह में गिरफ्तार (Arrest) किया जाता है, तो उस व्यक्ति को हिरासत में (Custody) लिया गया बताया जाता है। 
  • पुलिस हिरासत का उद्देश्य अपराध के बारे में अधिक जानकारी इकट्ठा करने के लिये संदिग्ध से पूछताछ करने के साथ-साथ सबूतों को नष्ट करने व गवाहों को प्रभावित करने से बचाना है। 
    • अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 57 के अनुसार, यह हिरासत मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक समय तक नहीं हो सकती।
  • पुलिस हिरासत में आरोपी की शारीरिक (भौतिक) हिरासत होती है। इसलिए पुलिस हिरासत में भेजे गए आरोपी को पुलिस स्टेशन में रखा जाता है ताकि पूछताछ के लिए पुलिस की पहुँच आरोपी तक हर समय हो।
  • न्यायिक हिरासत में, आरोपी मजिस्ट्रेट की हिरासत में होता है और उसको ज़ेल भेजा जाता है। न्यायिक हिरासत में रखे गये अभियुक्त से पूछताछ के लिए पुलिस को संबंधित मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होती है।

अभिरक्षा में मृत्यु : कानून का उल्लंघन 

  • पुलिस द्वारा यातना और हिंसा के कारण हिरासत में मौत भारत के संविधान की मौलिक संरचना के खिलाफ है और परिणामस्वरूप, यह संविधान द्वारा गारंटीकृत विभिन्न मौलिक कानूनों का उल्लंघन करता है।
    • अनुच्छेद 20: यह किसी आरोपी व्यक्ति (नागरिक या विदेशी या कानूनी व्यक्ति) को मनमानी और अत्यधिक सजा से बचाता है। इसमें तीन प्रावधान शामिल हैं:
      1. व्यक्ति पर उस कानून के अनुसार ही मुकदमा चलाया जा सकता है जो अपराध करते समय लागू था।
      2. किसी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए एक से अधिक मुकदमें नहीं चलाए जा सकते हैं और न ही उसे एक से अधिक बार दंडित किया जा सकता है।
      3. किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। 
    • अनुच्छेद 21: यह भारत के नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। जिसमें जमानत का अधिकार, एकान्त कारावास के विरुद्ध अधिकार, अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध अधिकार, अवैध हिरासत के ख़िलाफ़ अधिकार, शीघ्र एवं निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार और अधिवक्ता से सलाह लेने का अधिकार भी शामिल है।
    • अनुच्छेद 22 : यह कुछ मामलों में गिरफ्तारी और हिरासत के खिलाफ सुरक्षा की गारंटी देता है और प्रावधान करता है कि गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी के आधार की जानकारी दिए बिना हिरासत में नहीं लिया जा सकता है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 163 : यह धारा किसी भी जांच अधिकारी को अभियुक्त से स्वीकारोक्ति प्राप्त करने के लिए धमकी या किसी अन्य प्रकार के प्रलोभन का उपयोग करने से रोकती है जिसे उसके खिलाफ सबूत के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के दिशा दिशानिर्देश : डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले में, न्यायालय ने माना कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त दोषियों, विचाराधीन कैदियों या हिरासत में अन्य कैदियों के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकारों को समाप्त नहीं किया सकता है। 

भारत में अभिरक्षा में मौत के विरुद्ध कानूनी उपाय

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860

  • यदि कोई पुलिस अधिकारी हिरासत के दौरान किसी संदिग्ध की मौत के लिए उत्तरदायी है, तो उस पर हत्या का आरोप लगाया जाएगा और आईपीसी की धारा 302 के तहत दंडित किया जाएगा।
  • आईपीसी की धारा 304 के तहत, पुलिस अधिकारी को 'गैर इरादतन हत्या' के लिए दंडित किया जा सकता है।
  • आईपीसी की धारा 306 आत्महत्या के लिए उकसाने से जुड़ी सजाओं से संबंधित है। यदि यह पाया जाता है कि संदिग्ध ने हिरासत में आत्महत्या कर ली है और यदि पुलिसकर्मी ने आत्महत्या के लिए उकसाया है; तो उसे आईपीसी की धारा 306 के तहत सजा दी जाएगी। 
  • यदि पुलिस अधिकारी अपराध स्वीकार करने के लिए हिंसा और यातना का सहारा लेते हैं तो  आईपीसी की धारा 330 तहत दंडनीय अपराधमाना जाता है।

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973

  • धारा 176(1) एक मजिस्ट्रेट को मृत्यु के कारण से संबंधित जांच करने का अधिकार देती है; जब मृत्यु हिरासत के दौरान हुई हो।
  • धारा 53, 54, 57, और 167 जैसे कुछ प्रावधान हैं जिनका उद्देश्य पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को प्रक्रियात्मक सुरक्षा प्रदान करना है।

भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861

  • धारा 7 वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को किसी पुलिस अधिकारी को बर्खास्त करने या निलंबित करने का अधिकार देती है यदि अधिकारी कर्तव्य के निर्वहन में लापरवाही बरतता है।
  • धारा 29 में पुलिस कर्मियों को लापरवाही से अपना कर्तव्य निभाने पर दंडित करने का कानूनी प्रावधान है।

मानवाधिकार आयोग के दिशानिर्देश

  • कैदी या अभिरक्षा में लिए गए व्यक्ति से ऐसे स्थान पर ही पूछताछ की जानी चाहिए जो स्पष्ट रूप से पहचाने जाने योग्य है, जिसे सरकार द्वारा इस उद्देश्य के लिए अधिसूचित किया गया है।
  • स्थान पहुंच योग्य होना चाहिए और गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के रिश्तेदारों या दोस्तों या अधिवक्ता को पूछताछ के स्थान के बारे में सूचित किया जाना चाहिए।
  • पूछताछ के तरीके जीवन, गरिमा और स्वतंत्रता के मान्यता प्राप्त अधिकारों और यातना और अपमानजनक उपचार के खिलाफ अधिकार के अनुरूप होने चाहिए।

अभिरक्षा में यातना के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय कानून

  • अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून, 1948
  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, 1945
  • नेल्सन मंडेला नियम, 2015
  • अत्याचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, 1984
  • मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, 1948
  • मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए यूरोपीय कन्वेंशन, 1950

अभिरक्षा में मृत्यु से जुड़ी चिंताएँ

  • मूल अधिकारों का उल्लंघन : पुलिस द्वारा यातना और हिंसा के कारण अभिरक्षा में मृत्यु मूल अधिकार का उल्लंघन है। 
    • यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 का उल्लंघन है।
  • नैतिक मूल्यों के विरुद्ध: कभी-कभी, पुलिस अधिकारी औपचारिक गिरफ्तारी से पहले भी दोषी के साथ दुर्व्यवहार करते हैं और दावा करते हैं कि उसकी चोटें अभिरक्षा से पहले की हैं।
  • पुलिस द्वारा अभिरक्षा का दुरुपयोग : अक्सर, पुलिस अभिरक्षा का दुरुपयोग करती है और पीड़ितों पर अत्याचार करती है।
    • अभिरक्षा में बलात्कार : पुलिस अभिरक्षा में बलात्कार यातना के सबसे जघन्य रूपों में से एक है। 1972 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में अभिरक्षा में बलात्कार की घटना एक उल्लेखनीय उदाहरण है, जिसमें मथुरा नाम की एक आदिवासी लड़की के साथ पुलिस थाने में दो पुलिसकर्मियों द्वारा कथित तौर पर बलात्कार किया गया था।
    • उत्पीड़न : पुलिस बल द्वारा आरोपितों का कई रूपों में उत्पीडन किया जाता है। नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य के मामले में न्यायालय ने पीड़ित की मृत्यु लिए पुलिस द्वारा उत्पीड़न और पिटाई को जिम्मेदार माना था।
  • अवैध अभिरक्षा : अक्सर कानून की प्रक्रिया का पालन किए बिना ही पुलिस द्वारा कथित आरोपी व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है।
    • हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय निर्णय दिया कि प्रवर्तन निदेशालय विशेष न्यायालय के संज्ञान के बाद पी.एम.एल.ए. के तहत किसी आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकता है।
  • फर्जी मुठभेड़ : यह एक प्रकार की हिरासत में मौत है, और हाल ही में उत्तरप्रदेश के कई मामलों में इसका इस्तेमाल सुर्ख़ियों में हुआ है।
    • हैदराबाद में 2019 में महिला डॉक्टर से बलात्कार और हत्या के 4 आरोपियों को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय की ओर से गठित किए गए पैनल ने फर्जी करार दिया है।

अभिरक्षा में होने वाली मौतों को रोकने के लिए सुझाव 

न्यायालय के दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन 

  • हिरासत में मौतों को रोकने के लिए “प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ” मामले में अनुशंसित दिशानिर्देशों का कार्यान्वयन आवश्यक है। इस मामले में निम्नलिखित निर्देश जारी किए गए थे : 
    • राज्य सुरक्षा आयोग का गठन
    • पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति हेतु योग्यता आधारित व्यवस्था
    • एसपी और स्टेशन हाउस अधिकारियों के लिए दो साल का न्यूनतम कार्यकाल
    • पुलिस की जांच और कानून व्यवस्था के कार्यों को अलग करना
    • पुलिस स्थापना बोर्ड की स्थापना
    • पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन
    • राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग का गठन

तकनीक का प्रभावी प्रयोग

  • बॉडी कैमरा एवं अन्य उपकरण : बॉडी कैमरा और ऑटोमेटेड एक्सटर्नल डीफिब्रिलेटर आदि जैसे तकनीकी समाधान का उपयोग इसमें अत्यधिक प्रभावी हो सकता है।
    • सामान्य तौर पर प्रौद्योगिकी पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों को रोकने में मदद कर सकती है। उदाहरण के लिये, बॉडी कैमरे के उपयोग से अधिकारियों में उत्तरदायित्व की भावना में वृद्धि होगी। 
  • ब्रेन फ़िंगरप्रिंटिंग सिस्टम (BFS) : ब्रेन फ़िंगरप्रिंटिंग सिस्टम एक नवीन तकनीक है। इसे कई पुलिस बलों के खोजी उपकरणों में जोड़ने पर विचार किया जा रहा हैं। यह तकनीक जटिल अपराधों को सुलझाने, अपराधियों की पहचान करने और निर्दोष संदिग्धों को बरी कराने में सहायक सिद्ध हुई है।
  • रोबोट का उपयोग : कई विभाग अब संदिग्धों से रोबोटिक पूछताछ की अनुमति चाहते हैं। कई विशेषज्ञों का मानना हैं कि रोबोट, मानव पूछताछकर्ता की क्षमताओं को पूरा कर सकते है। 
    • ए.आई. और सेंसर तकनीक से लैस रोबोट मानवीय भावनाओं और बॉडी लैंग्वेज जैसी प्रेरक तकनीकों का उपयोग कर संदिग्धों से आत्मीय रूप से पूछताछ कर सकते हैं।

पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार

  • मानवाधिकारों और गरिमा के सम्मान पर जोर देने के लिए पुलिस प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • पुलिस के अशिष्ट रवैये को बदलने और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के भीतर जवाबदेही, व्यावसायिकता और सहानुभूति की संस्कृति को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता है।

नागरिक संगठनों और मानवाधिकार आयोग की भूमिका 

  • भारत में हिरासत में मौतों के बढ़ते मामलों के साथ, समय आ गया है कि नागरिक समाज संगठनों को हिरासत में यातना के पीड़ितों की सक्रिय रूप से वकालत करने के लिए प्रोत्साहित किया जाने की आवश्यकता है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को कथित मानवाधिकार उल्लंघन की तारीख से एक वर्ष के बाद भी किसी भी मामले की जांच करने की अनुमति दी जानी चाहिए। 
    • साथ ही सशस्त्र बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन पर उचित उपायों के साथ इसके अधिकार क्षेत्र का विस्तार किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष 

एन.एच.आर.सी. और एन.सी.आर.बी. द्वारा प्रस्तुत आंकड़े अभिरक्षा में होने वाली मौतों की भयावह संख्या को दर्शाते हैं। अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने के बावजूद पुलिस को राज्य से जो संरक्षण मिलता है वह एक बड़ा मुद्दा है। अभिरक्षा में मौत के मामलों में पुलिस कार्रवाई की निगरानी की आवश्यकता है और दुर्भावना से काम करने वाले पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराया जाना चाहिए। कठोर कानूनी कार्रवाई की आवश्यकता है जो पूरी तरह से उन कर्मियों को दंडित करने के लिए समर्पित हो, जिन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया और जिनके क्रूर बल के कारण जीवन की हानि हुई।

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