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मृदा संसाधनों में उपयोगी पर्यावरण हितैषी तकनीक

संदर्भ 

पर्यावरण को सशक्त बनाने में 'भूमि बहाली, मरूस्थलीकरण और सूखा लचीलापन' का अत्यंत महत्व होता है। आज पूरी दुनिया का ध्यान मरूस्थलीकरण और सूखे के संकट पर केंद्रित है। भूमि की लगातार खराब हो रही गुणवत्ता से दुनिया के तमाम देश चिंतित है  पिछले 15 वर्षों में दुनिया की लगभग 20 प्रतिशत जमीन की गुणवला खराब हो चुकी है।

गिरती भूमि गुणवत्ता की बढ़ती चिंता  

  • यूएनओ वर्ष 2015 को 'विश्व मृदा वर्ष' के रूप में मना चुका है। इसके अलावा वर्ष 2015-2024 को 'मृदाओं के अंतर्राष्ट्रीय दशक' के रूप में मनाया जा रहा है। 
  • भारत के पास दुनिया में 10वां सबसे बड़ा कृषि योग्य भूमि संसाधन है। देश में दुनियाँ की 60 में से 46 प्रकार की मिट्टी पायी जाती है। 
  • राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों का ऐसा अनुमान है कि भविष्य में खेती योग्य जमीन व उसके उपजाऊपन में कमी एक बड़ी समस्या होगी।
  • देश के अनेक कृषि क्षेत्रों जैसे पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा आदि में गत कई दशकों से सघन फसल प्रणाली व दोषपूर्ण कृषि क्रियाओं के कारण मृदा का अनुचित व अत्यधिक दोहन किया जा रहा है। इस वजह से मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट आयी है। 
  • दोषपूर्ण कृषि क्रियाओं का प्रयोग मृदा की उर्वरा शक्ति और उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। कृषकों में ज्ञान की कमी और अपर्याप्त कृषि प्रसार से यह समस्या और भी गंभीर होती जा रही है।

मृदा सुरक्षा के समक्ष चुनौतियां

  • मिट्टी परीक्षण केंद्रों का अभाव
  • जैविक खादों के उपयोग में कमी
  • पोषक तत्वों का असंतुलित प्रयोग
  • दोषपूर्ण सिंचाई प्रणाली व निम्न गुणवत्ता वाला सिंचाई जल
  • मृदा सतह के नीचे कठोर परत का बन जानामृदा
  • लवणीयता की समस्या 
  • मृदा का अनुचित व अत्यधिक दोहन  
  • कृषि भूमि की बिगड़ती समतलता 
  • कृषि भूमि में खरपतवारों का बढ़ता प्रकोप
  • मृदा क्षरण या कटाव

संयुक्त राष्ट्र : टिकाऊ विकास के प्रमुख लक्ष्य (एसडीजी)

  • अन्य देशों के साथ-साथ भारत ने संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास सम्मेलन में वैश्विक सतत् विकास के लिए 2030 एजेंडा के संबंध में घोषणा पर हस्ताक्षर किये हैं। 
  • इसमें में 17 टिकाऊ विकास के लक्ष्य (एसडीजी) सम्मिलित हैं। इसका उद्देश्य 2030 तक 'भूख मुक्त विश्व' का लक्ष्य प्राप्त करना है और इसके लिए निम्नलिखित लक्ष्यों को प्राप्त करना आवश्यक है :
    • खाद्य सुरक्षा
    • पोषण सुरक्षा
    • मृदा सुरक्षा
    • आजीविका सुरक्षा
    • पर्यावरण सुरक्षा
    • जैवविविधता का संरक्षण

मृदा प्रबंधन में सयुंक्त राष्ट्र की पहल

  • मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए सयुंक्त राष्ट्र अभिसमय  (UNCCD) : यू.एन.सी.सी.डी. राष्ट्रीय कार्रवाई कार्यक्रमों के माध्यम से मरुस्थलीकरण से निपटने और सूखे के प्रभावों को कम करने के लिए एक सम्मेलन है।
    • इसमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग और साझेदारी व्यवस्था द्वारा समर्थित दीर्घकालिक रणनीतियों को शामिल किया गया है।
    • इसका पहला सम्मलेन वर्ष 1997 में रोम में हुआ था और 16वाँ सम्मलेन वर्ष 2024 में रियाद, सऊदी अरब में आयोजित किया जाना है।  
  • यह मरुस्थलीकरण की समस्या के समाधान के लिए स्थापित एकमात्र अंतरराष्ट्रीय कानूनी रूप से बाध्यकारी ढांचा है।
  • सयुंक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर सरकारी समिति (IPCC) : आई.पी.सी.सी. ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि विश्व में 23 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि का क्षरण हो चुका है, जबकि भारत में 30 प्रतिशत भूमि का क्षरण हो चुका है।
    • इस आपदा से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन को रोकना ही काफी नहीं है बल्कि खेती करने के तरीके में बदलाव भी आवश्यक है।
    • भारत ने 2030 तक 2.1 करोड़ हेक्टेयर बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के अपने लक्ष्य को बढ़ाकर 2.6 करोड़ हेक्टेयर करने का फैसला किया है। 

मृदा संरक्षण हेतु पर्यावरण हितैषी तकनीकें

नैनों उर्वरकों का विकास 

  • देश की सबसे बड़ी फर्टिलाइजर कम्पनी 'इफ्को' के नैनो बायोटेक्नोलॉजी रिसर्च सेंटर में स्वदेशी तकनीक से 'नैनो पोषक तत्वों' का विकास किया है।
    • 21वीं सदी में अत्याधुनिक नैनो आधारित पोषक तत्वों जैसे नैनो जिंक, नैनो नाइट्रोजन और नैनो कॉपर का ट्रायल शुरू किया गया है।  
  • इस नई विकसित नैनो तकनीक से परंपरागत फर्टिलाइजर्स की तुलना में 50 प्रतिशत कम खर्च होता है तथा 15 से 30 प्रतिशत फसल उत्पादकता बढ़ सकती है।
  • इससे मृदा के स्वास्थ्य में सुधार होने के साथ-साथ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भी कमी होगी। इसके अलावा यह तकनीक पर्यावरण अनुकूल भी है।

कृषि वानिकी को बढ़ावा देना 

  • कृषि वानिकी भूमि प्रबंधन की ऐसी पद्धति है, जिसके अंतर्गत एक ही भू-खंड पर फसलों के साथ बहुद्देशीय पेड़ों-झाड़ियों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन को भी लगातार या क्रमबद्ध तरीकों से किया जाता है। 
    • इससे न केवल भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जाता है, बल्कि क्षेत्र की पारिस्थितिकी, सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी की जा सकती है साथ ही खाद्यान्नों, चारा, ईंधन, फलों, सब्जियों व लकड़ी उत्पादन बढ़ता है।
  • "हर मेढ़ पर पेड़" कार्यक्रम : कृषि वानिकी मिशन के अंतर्गत शुरू किए गए इस कार्यक्रम से किसानों को अतिरिक्त आय की प्राप्ति हो सकेगी।
  • देश में कुल भूमि का आधे से अधिक भाग जल व वायु क्षरण से प्रभावित है। इस समस्या को कृषि वानिकी द्वारा काफी हद तक कम किया जा सकता है।
  • फसलों के साथ वृक्ष लगाने से मृदा की जल रोकने एवं जल सोखने की क्षमता बढ़ जाती है। अतः कृषि वानिकी मृदा संरक्षण और उसके उपजाऊपन में भी महत्वपूर्ण योगदान रखती है।

मोटे अनाजों के प्रति बढ़ती जागरूकता

  • तीन-चार दशक पहले भारत में मोटे अनाजों की काफी खेती होती थी। परन्तु एक ऐसी अवधि आई जिसमें गेहूं एवं धान की फसलों के कारण मोटे अनाज कुछ पीछे हो गये। लेकिन वर्तमान समय में एक बार फिर लोग मोटे अनाजों के प्रति जागरूक हो रहे हैं।
  • गर्भावस्था के दौरान मां एवं शिशु में कुपोषण की समस्या को दूर करने में मोटे अनाजों की बड़ी भूमिका रही है। कोदों, कुटकी, सांवा, काकुन, जवा, जॉहरी जैसे मोटे अनाज रेशा युक्त होते है।
  • मोटे अनाज की खेती में पानी संचित कर लेने का गुण होता है। इसलिए ज्यादा सिंचाई नहीं करनी पड़ती है। साथ ही ये कम उर्वर भूमि में भी आसानी से उगाये जा सकते हैं। 
  • इससे विविधापूर्ण खेती को भी बढ़ावा मिलेगा जिससे मिट्टी की उर्वरता में भी वृद्धि होगी।

फसल विविधीकरण

  • खेती में लगातार एक ही प्रकार की फसलें उगाने से न केवल फसलों की पैदावार में कमी की आती है बल्कि उनकी गुणवत्ता में भी गिरावट दर्ज की गयी। 
    • एक फसल प्रणाली न तो आर्थिक दृष्टि से लाभदायक है और न ही पारिस्थितिक दृष्टि से अधिक उपयोगी है। 
  • फसल विविधिकरण का मुख्य लक्ष्य ग्रामीण पर्यावरण एवं मृदा स्वास्थ्य का बचाव और उच्च कृषि बढ़वार बनाये रखने, ग्रामीण रोजगार सृजन व बेहतर आर्थिक लाभ पाने हेतु कृषि-बागवानी-मतस्यकी-वानिकी- पशुधन प्रणाली के पक्ष में अनुकूल स्थितियां पैदा करना है।
  • फसल विविधीकरण के लाभ
    • कृषि व्यवसाय लाभदायक बनाना 
    • प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग
    • माँग और आपूर्ति में होने वाले उतार-चढ़ाव के प्रभाव को कम करना  
    • सतत कृषि को बढ़ावा 
    • कीट तथा व्याधियों के प्रकोप को कम करना 
    • लघु व सीमान्त किसानों के लिए बारानी क्षेत्रों में जोखिम कम करना
  •  फसल विविधीकरण की तकनीकी और कार्य प्रणाली को किसानों तक पहुंचाकर देश में खाद्यान्न उत्पादन और संसाधनों मुख्यतः मृदा की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है।

पूसा एस.टी.एफ.आर. मीटर का विकास 

  • मृदा उर्वरता बनाये रखने और पैदावार बढ़ाने के लिए इन दिनों मिट्टी की जांच पर विशेष जोर दिया जा रहा है। 
  • केंद्र सरकार ने 'स्वस्थ धरा खेत हरा' के लक्ष्य के साथ देश के प्रत्येक किसान को 'सॉयल हेल्थ कार्ड' उपलब्ध कराने के लिए एक योजना शुरू की है। 
    • सॉयल हेल्थ कार्ड में मृदा के विभिन्नमानकों जैसे कार्बनिक कार्बन, पी.एच. मान,उपलब्ध नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का विस्तृत ब्यौरा तैयार किया जाता है। 
  • किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड देने के क्रम में सॉइल टेस्ट फर्टिलाइजर रिकमेंडेशन मीटर (STFR मीटर) का आविष्कार किया गयाहै। 
    • इसके द्वारा मृदा के 14 पैरामीटर जैसे मृदा पी.एच, विद्युत चालकता, ऑर्गनिक कार्बन, मृदा में उपलब्ध फॉस्फोरस एवं पोटाश का निर्धारण किया जा सकता है।
    • यह मृदा परीक्षण के साथ-साथ फसलों के लिए उर्वरकों की संस्तुति को भी दर्शाता है।

कम्पोस्ट टीके का विकास

  • कृषि अपशिष्ट प्रबंधन के लिए पूसा डीकम्पोजर का उपयोग किया जा रहा है। यह डीकम्पोजर टीका फसल अवशेषों व अन्य कार्बनिक पदार्थों के तेजी से विघटन करने में सक्षम है।
  • यह टीका बहुत से सूक्ष्मजीवों का एक समूह है। जिसमे सेल्यूलोज, हेमी-सेल्यूलोज व लिग्निन का अपघटन करने वाली चार फफूंदी होती हैं। 
  • इस टीके का हवादार गढ्ढों में पानी के साथ प्रयोग किया जाता है ताकि कम्पोस्ट बनाने के लिए प्रयोग किया जाने वाला पदार्थ नमीयुक्त हो जाए।

तरल जैविक उर्वरकों का विकास

  • भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली स्थित सूक्ष्मजीव विज्ञान संभाग ने तरल जैविक उर्वरकों का उत्पादन भी शुरू कर दिया है।
  • इनका जीवन काल एक वर्ष से अधिक है। इनमें जीवाणुओं की उच्च संख्या होती है। साथ ही इनका भंडारण व प्रयोग विधि बहुत ही आसान है। 
  • इनका प्रयोग बुवाई के लिए बीज उपचारित करने, पौध रोपण के लिए जड़ उपचारित करने तथा वृक्षों के लिए मृदा को उपचारित करने के लिए किया जाता है। 

शत-प्रतिशत नीम लेपित यूरिया का उत्पादन

  • नीम लेपित यूरिया का प्रयोग बढ़ने से यूरिया में उपस्थित नाइट्रोजन का मृदा में लीचिंग व डीनाइट्रीफिकेशन की क्रिया को कम करता है।
  • इसके अलावा नीम युक्त यूरिया का प्रयोग करके नाइट्रोजन उपयोग दक्षता को भी बढ़ाया जा सकता है।
  • इस प्रौद्योगिकी का उपयोग करने से फसल पीड़कों, है रोगों के प्रकोप तथा ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है।

प्राकृतिक व जैविक खेती पर जोर

  • जरूरत से ज्यादा रासायनिक उर्वरकों के उपयोग पर रोक लगाने के लिए जैविक, प्राकृतिक और एकीकृत खेती को बढ़ावा देने की नीति अपनाई गयी है।
  • जैविक खेती पोर्टल के जरिए जैविक उत्पादों के ऑनलाइन राष्ट्रीय बाजार को मजबूत बनाया जा रहा है। 
    • साथ ही जैविक उत्पादों को बढ़ावा देने की रणनीति पर बल देकर एक साथ कई लक्ष्य साधने की कोशिश की जा रही है। 
    • इससे जैविक उत्पादों की बढ़ती वैश्विक मांग से किसानों को कम लागत में ज्यादा लाभ मिल सकेगा। 
    • साथ ही रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल पर अंकुश भी लगेगा।

समन्वित पोषण प्रबंधन तकनीक (INM) पर जोर

  • बेहतर मृदा उर्वरता प्रबंधन हेतु समन्वित पोषण प्रबंधन तकनीक (INM) भी पर्याप्त प्रचार-प्रसार के साथ किसानों में अधिक लोकप्रिय हो रही है।
    • इससे न केवल उच्च गुणवत्ता युक्त, स्वास्थ्यवर्धक एवं पौष्टिक खाद्य पदार्थों की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है, बल्कि खेती में उत्पादन लागत कम करने में भी मदद मिल सकती है।
  • टिकाऊ फसल उत्पादन हेतु एकीकृत पोषण प्रबंधन के अंतर्गत रासायनिक उर्वरकों के साथ पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने वाले अन्य सभी स्रोतों का प्रयोग किया जाता है। 
    • इन स्रोतों में गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद्य, हरी खाद, मुर्गी खाद, वर्मी कम्पोस्ट, फसल अवशेष प्रबंध और जैविक उर्वरक प्रमुख हैं।
    • ये स्रोत पर्यावरण हितैषी हैं और इनसे मुख्य पोषक तत्वों के अलावा सूक्ष्म पोषक तत्व भी पौधों को धीरे-धीरे व लम्बे समय तक उपलब्ध होते रहते हैं।

निष्कर्ष 

  • मृदा एक अति महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है वर्तमान में हरित क्रांति वाले राज्यों के सामने फसल उत्पादन का स्तर कायम रखने और मृदा के अत्यधिक दोहन की समस्याएं है। जिसका समाधान मृदा बहाली और मृदा उर्वरता प्रबंधन के रूप में देखा जा रहा है।
  • देश में तेजी से बढ़ रहे औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने खाद्यान्न उत्पन्न करने के लिए भूमि जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा व गुणवत्ता को कम कर दिया है। भविष्य में देश का खाद्यान्न उत्पादन बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप हो, इसके लिए प्रति इकाई क्षेत्र उत्पादन बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। यह मृदा के उचित प्रबंधन द्वारा ही संभव हो सकेगा।
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