(प्रारंभिक परीक्षा- पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और मौसम परिवर्तन से संबंधित सामान्य मुद्दे; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन: प्रश्न पत्र-3: विषय-संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
संदर्भ
- जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय के तहत 31 अक्तूबर से 13 नवंबर के मध्य 26वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप-26) आयोजित किया गया।
- ग्लासगो जलवायु समझौते (Glasgow Climate Pact) के नाम से चर्चित यह शिखर सम्मेलन जलवायु संकट से निपटने के वैश्विक प्रयासों मे तेज़ी लाने के लिये आयोजित किया गया।
ग्लासगो जलवायु समझौते के मुख्य बिंदु
- न्यूनीकरण/ शमन (Mitigation): इस समझौते का मुख्य उद्देश्य वर्ष 2015 के पेरिस समझौते में निर्धारित किये गए पृथ्वी के तापमान से संबंधित लक्ष्य के लिये कार्य करना है। इस हेतु सम्मलेन में ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने करने के लिये वर्ष 2030 तक पृथ्वी के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने से रोकने के संकल्प को दोहराया गया।
- इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सम्मलेन में निम्नलिखित प्रयासों का उल्लेख भी किया गया है-
- अगले वर्ष तक देशों को वर्ष 2030 तक के लिये जलवायु कार्य योजनाओं या राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) को मज़बूत करने हेतु कहा गया है।
- वर्ष 2030 तक जलवायु कार्रवाइयों की सफलता सुनिश्चित करने हेतु मंत्रियों की वार्षिक बैठक बुलाने का निर्णय लिया गया है।
- विभिन्न देशों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को वार्षिक संश्लेषण रिपोर्ट में प्रस्तुत किया जाएगा।
- जलवायु कार्रवाई की सफलता हेतु संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा वर्ष 2023 में विश्व नेताओं की एक बैठक बुलाई जाएगी।
- विभिन्न देश ईंधन के स्रोत के रूप में कोयले के उपयोग को कम करने और जीवाश्म ईंधन पर अकुशल सब्सिडी (Inefficient Subsidies) को समाप्त करने का प्रयास करेंगे।
- कोयले को ‘फेज-डाउन’ (चरणबद्ध तरीके से कम करने) और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को ‘फेज-आउट’ (चरणबद्ध तरीके से हटाना) किये जाने का आह्वान किया गया है। यह पहली बार है जब किसी जलवायु परिवर्तन सम्मलेन में कोयले का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है।
- विदित है कि भारत और चीन ने कोयले के संबंध में ‘फेज-आउट’ शब्द को ‘फेज-डाउन’ में बदलने के लिये दबाव डाला था।
- अनुकूलन (Adaptation): छोटे एवं निम्न आय वाले देशों तथा छोटे द्वीपीय विकासशील देशों (Small Island Developing States) द्वारा जलवायु परिवर्तन के सर्वाधिक बुरे प्रभावों का सामना किया जा रहा है। इन देशों के द्वारा अनुकूलन को जलवायु कार्रवाई का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक माना जाता है, जिसके लिये तत्काल धन, प्रौद्योगिकी और क्षमता निर्माण की आवश्यकता है।
- इस संदर्भ में ग्लासगो जलवायु समझौते में निम्नलिखित बाते कही गई हैं:
- विकसित देशों द्वारा वर्ष 2019 के स्तर से वर्ष 2025 तक अनुकूलन के लिये उपलब्ध कराए जा रहे धन को कम से कम दोगुना करने के लिये कहा गया है। विदित है कि वर्ष 2019 में, इन देशों को अनुकूलन के लिये लगभग 15 बिलियन डॉलर प्रदान किये गए थे, जो कि कुल जलवायु वित्त प्रवाह के 20 प्रतिशत से भी कम था।
- अनुकूलन पर एक वैश्विक लक्ष्य को परिभाषित करने के लिये द्विवर्षीय कार्यक्रम तैयार करने का सुझाव भी दिया गया है।
- जलवायु वित्त (Climate Finance) : ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिये विकसित देश ऐतिहासिक रूप से उत्तरदायी हैं। यहीं कारण है कि विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने हेतु विकसित देशों द्वारा जलवायु वित्त प्रदान किये जाने की बाध्यता है। विदित है कि विकासशील और अल्प विकसित देशों को जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु प्रत्येक वर्ष खरबों डॉलर की आवश्यकता होती है।
- वर्ष 2009 में, विकसित देशों ने वर्ष 2020 से प्रत्येक वर्ष कम से कम $ 100 बिलियन जुटाने पर सहमति प्रकट की थी।
- 2015 के पेरिस समझौते में पुनः इस निर्णय की पुष्टि की गई। इसके अलावा, पेरिस समझौते में विकसित देशों को वर्श 2025 से इस राशि को बढ़ाने के लिये भी कहा गया।
- वर्ष 2020 से विकसित देशों द्वारा जलवायु वित्त के रूप में $100 बिलियन प्रदान किये जाने के वादे को अभी तक पूरा नहीं किया गया है। विकसित देशों ने अब इस धनराशि की व्यवस्था वर्ष 2023 तक करने पर सहमति प्रकट की है।
- वर्ष 2025 के पश्चात् $100 बिलियन से अधिक के जलवायु वित्त की व्यवस्था करने के उद्देश्य से चर्चा शुरू की जाएगी।
- नुकसान और क्षति (Loss and Damage): ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु आपदाओं की आवृत्ति तेज़ी से बढ़ रही है। इन आपदाओं से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले देशों में निम्न आय वाले देश तथा छोटे द्वीपीय देश हैं। इन राष्ट्रों को नुकसान की क्षतिपूर्ति करने तथा राहत एवं पुनर्वास के रूप में सहायता प्रदान करने के लिये वर्तमान में कोई संस्थागत तंत्र विद्यमान नहीं है।
- विदित है कि कॉप-26 की शुरुआत में इसके औपचारिक एजेंडे में ‘नुकसान और क्षति’ शामिल नहीं था। सम्मलेन के दौरान वार्ताकारों ने इस मुद्दे को संबोधित करने का निर्णय लिया।
- यू.एन.एफ.सी.सी.सी. के अंतर्गत ‘नुकसान और क्षति’ शब्द का प्रयोग उस स्थिति के लिये किया जाता है, जिसमें मानवजनित जलवायु परिवर्तन से किसी को हानि पहुँचती हो।
- जी-77 के देशों के साथ ही कुल 130 देश चाहते है कि यू.एन.एफ.सी.सी.सी. के अंतर्गत ‘नुकसान और क्षतिपूर्ति सुविधा’ की स्थापना के लिये एक कोष की स्थापना की जाए।
- हालाँकि, कॉप-26 के अंतिम मसौदे में विकसित देशों के विरोध के कारण ‘नुकसान और क्षति’ से संबंधित कोष को स्थापित करने की बात को शामिल नहीं किया गया।
- ग्लासगो सम्मलेन के दौरान यह सहमति बनी है कि अगले सम्मेलन में ‘नुकसान और क्षति’ से संबंधित आर्थिक ढाँचे को अंतिम रूप दिया जाएगा।
- कार्बन बाज़ार (Carbon Markets): कार्बन बाज़ारों पर गतिरोध का समाधान कॉप-26 की प्रमुख सफलताओं में से एक है। विदित है कि कार्बन बाज़ार को समग्र उत्सर्जन को कम करने हेतु एक महत्त्वपूर्ण और प्रभावी साधन माना जाता है।
- कार्बन बाज़ार, कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिये व्यापार की सुविधा प्रदान करते हैं। यह एक ऐसा बाज़ार है, जो देशों या उद्योगों को अपने लक्ष्य से अधिक उत्सर्जन में कटौती के लिये कार्बन क्रेडिट अर्जित करने की अनुमति प्रदान करता है।
- विदित है कि क्योटो प्रोटोकॉल के तहत कार्बन बाज़ार विद्यमान था लेकिन इस प्रोटोकॉल की अवधि पिछले वर्ष समाप्त होने के साथ ही यह बाज़ार भी समाप्त हो गया। पेरिस समझौते के तहत एक नए कार्बन बाज़ार को लागू किया जाना प्रस्तावित है।
- भारत, चीन या ब्राज़ील जैसे विकासशील देशों में बड़ी मात्रा में कार्बन क्रेडिट विद्यमान है। इसे ध्यान में रखते हुए ग्लासगो समझौते में विकासशील देशों को कुछ राहत देने की घोषणा की गई है। इस समझौते में कार्बन क्रेडिट को देशों के पहले एन.डी.सी. लक्ष्यों को पूरा करने में उपयोग करने की अनुमति दी गई है।
- इसका आशय यह हुआ कि कोई विकसित देश अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों को पूरा करने के लिये वर्ष 2025 तक इन कार्बन क्रेडिटों को क्रय कर सकता है। विदित है कि अधिकांश देशों ने अपने पहले एन.डी.सी. में वर्ष 2025 के लिये जलवायु लक्ष्य प्रस्तुत किये हैं।
- ग्लासगो में की गई कुछ अन्य घोषणाएँ: ग्लासगो में कुछ ऐसी जलवायु संबंधी महत्त्वपूर्ण कार्रवाईयाँ भी की गईं, जो आधिकारिक रूप से कॉप-26 का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन इन घोषणाओं एवं पहलों का योगदान महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा-
- भारत द्वारा जलवायु क्रियाओं के लिये पंचामृत (पाँच तत्त्वों का मिश्रण) की घोषणा के साथ ही वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को प्रस्तुत किया गया है।
- इस सम्मलेन में चीन द्वारा वर्ष 2030 तक अपने उत्सर्जन को अधिकतम करने और वर्ष 2060 तक शुद्ध-शून्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये एक विस्तृत रोडमैप को प्रस्तुत करने का वादा किया गया है। इसके अलावा, इज़रायल ने भी वर्ष 2050 तक शुद्ध शून्य लक्ष्य को प्राप्त करने की घोषणा की है।
- वर्ष 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को वर्ष 2020 के स्तर से 30 प्रतिशत तक कम करने के उद्देश्य से वैश्विक मीथेन संकल्प को लॉन्च किया गया, जिस पर 100 से अधिक देशों द्वारा हस्ताक्षर किये जा चुके हैं।
- ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में संयुक्त राज्य अमेरिका सहित 100 से अधिक देशों ने वर्ष 2030 तक वनों की कटाई पर पूर्ण पाबंदी का संकल्प लिया है। विदित है कि विश्व के कुल वनों में इन देशों की हिस्सेदारी 85 प्रतिशत तक है।
- वर्ष 2040 तक 100 प्रतिशत शून्य-उत्सर्जन कारों को अपनाने के संकल्प पर भारत सहित 30 से अधिक देशों ने हस्ताक्षर किये हैं।
- 50 देशों के एक समूह ने ग्लासगो में जलवायु-लचीला और निम्न-कार्बन स्वास्थ्य प्रणाली (Climate-Resilient and Low-Carbon Health Systems) विकसित करने हेतु प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
ग्लासगो समझौता: एक अधूरा प्रयास
- ग्लासगो सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य वर्ष 2015 में हुए पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये प्रभावी कदम उठाना था। पेरिस समझौते में पृथ्वी के बढ़ते तापमान को औद्योगिक युग की शुरुआत की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने देने का निर्णय लिया गया था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु ग्लासगो सम्मलेन के दौरान एक संकल्प लाया गया है। लेकिन आलोचकों के अनुसार, केवल संकल्प प्रस्तुत कर देने से 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता।
- इस शिखर सम्मेलन का एक प्रमुख उद्देश्य कोयले के प्रयोग को खत्म करने हेतु एक स्पष्ट दिशा-निर्देश तैयार करना था। लेकिन इस संदर्भ में भी आंशिक सफलता ही प्राप्त हो सकी है। कोयले के प्रयोग को नियंत्रित करने के लिये ‘फेज आउट’ की जगह ‘फेज डाउन’ शब्द का प्रयोग किया गया है। फेज आउट से आशय कोयले की खपत को खत्म करने, जबकि फेज डाउन का तात्पर्य कोयले की खपत को कम करने से है। इन शब्दों में यह परिवर्तन भारत और चीन के आपत्ति के परिणामस्वरूप किया गया है।
- यद्यपि कॉप-26 में सम्मिलित देशों ने जलवायु आपदाओं के कारण होने वाले नुकसान और क्षति पर चर्चा की है। लेकिन ग्लासगो की अंतिम रिपोर्ट में विकसित देशों द्वारा किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता को लेकर ठोस कार्रवाई का प्रस्ताव पारित नहीं किया गया। इसके अलावा, इस सम्मलेन में जलवायु वित्त पर भी प्रभावी निर्णय नहीं लिया गया है।
निष्कर्ष
- ग्लासगो जलवायु समझौता, संपूर्ण पृथ्वी पर मंडराते विनाशकारी ग्लोबल वार्मिंग के संकट से निपटने के संदर्भ में एक आधा-अधूरा प्रयास माना जा रहा है।
- इस सम्मलेन के पश्चात् भी विकसित देशों द्वारा विकासशील और अविकसित देशों को जलवायु संकट से निपटने हेतु नुकसान और क्षति से संबंधित आर्थिक ढाँचे को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। साथ ही, जलवायु वित्त का मुद्दा आज भी असमंजस की स्थिति में हैं।
- हालाँकि, कुछ विशेषज्ञ इस समझौते को सुरक्षित भविष्य की दिशा में बढ़ा हुआ एक कदम भी मान रहे हैं, जिसने वनों की कटाई को नियंत्रित करने से लेकर हानिकारक मीथेन उत्सर्जन को रोकने के संदर्भ में प्रभावी निर्णय लिये गए हैं।