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वैश्विक डिजिटल व्यापार और भारत

संदर्भ

विगत वर्ष विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) के बारहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (MC12) के रद्द होने के बावजूद एक डिजिटल व्यापार वार्ता संपन्न हुई। इस वार्ता का आयोजन ऑस्ट्रेलिया, जापान और सिंगापुर द्वारा बहुपक्षीय संयुक्त वक्तव्य पहल (जे.एस.आई.) के तत्वाधान में ई-कॉमर्स विषय पर आयोजित की गई थी। गौरतलब है कि जे.एस.आई. और विकासशील देशों के मध्य कई मुद्दों पर असहमति है, जो भारत के हितों को भी समान रूप से प्रभावित करते हैं।

असहमति के बिंदु

  • ध्यातव्य है कि जे.एस.आई. के सदस्य देशों की वैश्विक व्यापार में हिस्सेदारी 90% से अधिक है तथा विकसित देश जे.एस.आई. में अन्य देशों को शामिल करने के इच्छुक हैं, किंतु डब्ल्यू.टी.ओ. के आधे से अधिक सदस्य (व्यापक रूप से विकासशील देश) इन वार्ताओं में शामिल नहीं हैं। वस्तुतः ये देश उन वैश्विक नियमों एवं पहलों को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं, जो इनके घरेलू नीति निर्माण एवं आर्थिक विकास प्रक्रिया को प्रभावित करती हों। 
  • भारत और दक्षिण अफ्रीका द्वारा विकासशील देशों के प्रतिरोध का नेतृत्व किया जा रहा है, विशेषतौर पर भारत ने वैध तर्कों एवं दीर्घकालिक विकास दृष्टिकोण के माध्यम से विकसित देशों द्वारा जे.एस.आई. को समर्थन देने के दबाव का प्रतिकार किया है।

डिजिटल व्यापार का वैश्विक नियमन : सीमाएँ

  • वर्ष 1994-95 में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई, किंतु इसके सदस्य देशों के मध्य ई-कॉमर्स के विनियमन पर आम सहमति दूसरे मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (1998) में बनी। इसके तहत सदस्य देशों ने ई-कॉमर्स आधारित चार क्षेत्रों (वस्तुएँ, सेवाएँ, बौद्धिक संपदा एवं विकास) पर केंद्रित  जनरल काउंसिल वर्क प्रोग्राम (GCWP) के संचालन को आम सहमति दी।
  • इस कार्यक्रम से संतोषजनक परिणाम प्राप्त न होने के कारण दिसंबर 2017 में 70 सदस्य देशों ने ई-कॉमर्स के व्यापार से जुड़े पहलुओं पर विश्लेषण करने हेतु जे.एस.आई. की पहल को प्रारंभ किया। गौर करने वाली बात यह है कि जनरल काउंसिल वर्क प्रोग्राम (GCWP) के विपरीत जे.एस.आई. में डब्ल्यू.टी.ओ. के सभी सदस्य देश शामिल नहीं हैं।
  • प्रमुख मुद्दों पर डब्ल्यू.टी.ओ. के अधिकांश सदस्यों के विचारों में असहमति होने के बावजूद विकासशील देशों सहित कई देशों ने वर्ष 2019 में जे.एस.आई. की पहल पर अपनी सहमति दी। चीन और इंडोनेशिया ने भी इस पहल को समर्थन दिया। उनका तर्क था कि बाहर से विरोध करने के बजाय पहल में शामिल होकर नियमों के निर्धारण में भूमिका निभानी चाहिये।
  • जबकि भारत और दक्षिण अफ्रीका का पक्ष है कि जे.एस.आई. विश्व व्यापार संगठन के सर्वसम्मति-आधारित ढाँचे का उल्लंघन करता है, जहाँ बिना किसी आर्थिक भेदभाव के सदस्य देश मुखर अभिव्यक्ति कर सकते हैं एवं वोट दे सकते हैं। साथ ही, जे.एस.आई. पहल के निर्णयों को वैधता प्राप्त करने के लिये या तो आम सहमति होनी चाहिये या विश्व व्यापार संगठन के तत्वाधान के बाहर रखते हुए इसे बहुपक्षीय समझौता वार्ता के तौर पर संचालित किया जाना चाहिये।
  • विदित है कि आरंभ में वस्तु और सेवाओं के इलेक्ट्रॉनिक प्रसारण से संबंधित सीमा शुल्क पर प्रभुत्वशाली देशों के दबाव में अस्थायी तौर पर रोक लगा दी गई थी, किंतु प्रकारांतर में भारत एवं दक्षिण अफ्रीका के निरंतर विरोध के बावजूद इस रोक को नवीनीकृत किया जाता रहा है। विकासशील देशों का तर्क है कि इस अस्थायी रोक के कारण वे राजस्व सीमा शुल्क प्राप्त करने के लाभ से वंचित रहते हैं।
  • भारत और दक्षिण अफ्रीका का मत है कि घरेलू नीतियों को अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के साथ सम्यक आकार देने के लिये राज्यों के संप्रभु अधिकार को इस प्रकार संतुलित किया जाए कि प्रत्येक राज्य वैश्विक व्यापार प्रणाली के लाभों को प्राप्त करने में सक्षम हो सके।

विवादित व्यवस्था  और असहमति के बिंदु

डाटा स्थानीयकरण

  • ऐसे कई मुद्दे हैं जिनमें विकसित और विकासशील देशों के मध्य असहमति है; उदाहरण के लिये, अंतर्देशीय मुक्त डाटा प्रवाह के अंतरराष्ट्रीय नियमों से संबंधित विवाद। जे.एस.आई. के सदस्य और कई गैर सदस्य देशों ने डाटा स्थानीयकरण को लागू किया है, जो प्रौद्योगिकी इकाइयों को क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर डाटा को संगृहीत और संसाधित करने के लिये बाध्य करता है।
  • यह भारत की भी एक नीतिगत प्राथमिकता है; उदाहरण के लिये, मास्टरकार्ड और अमेरिकन एक्सप्रेस सहित कई भुगतान कार्ड कंपनियों को भारतीय रिज़र्व बैंक के वर्ष 2018 के वित्तीय डाटा स्थानीयकरण निर्देश के पालन में विफलता के कारण उन्हें नए कार्ड जारी करने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
  • हालाँकि, विकसित देशों/उद्योगों के लिये नए डिजिटल बाजारों तक पहुँच में ऐसे प्रतिबंध अनुपालन लागत को अनावश्यक रूप से बढ़ा देते हैं एवं नवाचार में बाधा पहुँचाते हैं। इसलिये, इसे अनुचित संरक्षणवाद को बढ़ावा देने वाली पहल के रूप में देखा जाता है।
  • ध्यातव्य है कि भारत में डाटा संरक्षण पर गठित संयुक्त संसदीय समिति ने डाटा संरक्षण कानून के अंतर्गत संवेदनशील व्यक्तिगत डाटा और महत्त्वपूर्ण व्यक्तिगत डाटा के संबंध में कठोर स्थानीयकरण उपायों की सिफारिश की है।

सोर्स कोड

एक असहमति घरेलू कानूनों के संबंध में भी है जो सोर्स कोड के प्रकटीकरण को अनिवार्य बनाती है। एक ओर विकसित देशों का मत ​​​​है कि यह नवाचार को बाधित करता है, वहीं दूसरी ओर विकासशील देशों का तर्क ​​​​है कि एल्गोरिदम पारदर्शिता और निष्पक्षता के लिये सोर्स कोड का प्रकटीकरण आवश्यक है। हाल ही में, संयुक्त ससदीय समिति की रिपोर्ट ने भी अपनी अनुशंसा में इसका समर्थन किया है। 

भारत के पास मध्यम मार्ग का विकल्प

  • वस्तुतः डाटा संप्रभुता को डाटा उपनिवेशवाद, शोषणकारी आर्थिक नीतियों और बड़ी कंपनियों के हावी होने के विरोध के साधन के तौर पर देखा जाता है। जबकि, नीति निर्माण डिजिटल अर्थव्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। भारत के संदर्भ में निगरानी (surveillance) में सुधार, व्यक्तिगत डाटा की सुरक्षा, एल्गोरिदम का अभिशासन और गैर-व्यक्तिगत डाटा विनियमन को प्रमाणित तरीके से संचालित किया जाना चाहिये। केवल स्थापित बड़ी औद्योगिक इकाइयों को सुलभता प्रदान करने के स्थान पर सरकार को व्यक्तियों, समुदायों तथा स्थानीय कंपनियों के हितों को ध्यान रखना चाहिये।
  • ध्यान देने योग्य बात यह है कि व्यापार संबंधी दायित्वों पर शीघ्र हस्ताक्षर करने से उपयुक्त नीतियों के निर्माण का दायरा सीमित हो सकता है। किंतु, व्यापार वार्ताओं के बहिष्कार के कारण भारत क्षेत्रीय व्यापार समझौतों, जैसे- क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आर.सी.ई.पी.) और ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (सी.पी.टी.पी.पी.) से वंचित रह जाएगा। साथ ही, पहले से विखंडित व्यापार व्यवस्था में एक नए मानक लाने का जोखिम भारत नहीं उठा सकता। ऐसे किसी निर्णय से यह वैश्विक नियमों के निर्धारण के अवसरों को भी खो देगा।
  • किसी भी वार्ता का अर्थ समझौता नहीं होना चाहिये। उदाहरण के लिये, डिजिटल व्यापार नियमों के अपवाद, ‘वैध सार्वजनिक नीति उद्देश्य’ या ‘आवश्यक सुरक्षा हित’ के बारे में नीति निर्धारण हेतु बातचीत की जा सकती है। जबकि प्रमुख समझौतों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करना आवश्यक नहीं है।
  • सिंगापुर, चिली और न्यूजीलैंड के बीच डिजिटल इकोनॉमी पार्टनरशिप एग्रीमेंट (डी.ई.पी.ए.) से सीख लेकर भारत को एक ऐसे ढाँचे का निर्माण करना चाहिये, जहाँ राष्ट्रों के पास उस मॉड्यूल को चुनने का विकल्प हो जिनका वे पालन करना चाहते हैं। 

निष्कर्ष

कई विफलताओं के बावजूद वैश्विक शासन तथा भारत के रणनीतिक हितों के दृष्टिकोण से विश्व व्यापार संगठन की भूमिका उल्लेखनीय है। अपनी घरेलू नीति-निर्माण के विषय पर समझौता किये बिना ऐसी वार्ताओं में सक्रिय भूमिका निभाना भारत के डिजिटल भविष्य की कुंजी है।

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