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जी.एम. फसलें : खाद्य सुरक्षा के लिए एक समाधान या चिंता

संदर्भ

बढ़ती वैश्विक भूख के उपाय के रूप में एक नई ‘जीन क्रांति’ को संपादित किया जा रहा है, जिसका उद्देश्य जैव-इंजीनियरिंग के माध्यम से तैयार “ट्रांसजेनिक या जी.एम.” फ़सलें पैदा करके बढ़ती आबादी का समर्थन करना और जलवायु-प्रेरित कृषि चुनौतियों का मुकाबला करना है।

क्या होती है जी.एम. फसल 

  • जी.एम. (Genetically Modified) फसल के जीन में आनुवंशिकी इंजीनियरिंग की मदद से कृत्रिम रूप से संसोधन करके ऐसे गुणों को शामिल किया जाता है, जो प्राकृतिक रूप से उस फसल में नहीं नहीं होते हैं।
  • ऐसे गुणों में शामिल हैं - उपज में वृद्धि, रोग तथा खरपतवार के प्रति सहिष्णुता, सूखे से प्रति प्रतिरोधक क्षमता, बेहतर पोषण मूल्य।

जी.एम. फसलें : एक  समाधान 

  • सूखा-सहिष्णु क्षमता : ये फसलें सूखा-रोधी होती हैं, जिससे प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों में भी इनका उत्पादन किया जा सकता है। 
    • केपटाउन विश्वविद्यालय के शोध के अनुसार, ज़ेरोफाइटा विस्कोसा नामक ‘पुनरुत्थान पौधे’ के जीन को जोड़कर सूखा-सहिष्णु ट्रांसजेनिक मक्का 95% तक निर्जलीकरण को सहन कर सकता है।
  • उर्वरकों की कम आवश्यकता : इनमें से कुछ फसलों को उर्वरकों का प्रयोग करने की आवश्यकता भी पारंपरिक फसलों की तुलना में कम होती है। 
  • अधिक उत्पादन क्षमता : जी.एम. फसलों की उत्पादन क्षमता पारंपरिक फसलों की तुलना में कई गुना अधिक होती है, जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है।
  • कीट-नाशक सुरक्षा : ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक जैव-इंजीनियरिंग द्वारा ‘अंतर्निहित’ कीट-नाशक सुरक्षा के माध्यम से लोबिया उत्पादन परियोजना का नेतृत्व कर रहे हैं, क्योंकि यह फली हजारों वर्षों से अफ्रीका में आहार का मुख्य हिस्सा रही है।

जी.एम. फसलों से जुड़ी चिंताएं 

पारिस्थितिकी संबंधित चिंताएँ

  • जैव विविधता का नुकसान : जी.एम. फसलें शाकनाशक-सहिष्णु होती है, जो अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए शाकनाशकों अत्यधिक प्रयोग को प्रोत्साहित करती हैं। इसके परिणामस्वरूप शाकनाशक-प्रतिरोधी खरपतवारों का विकास हो सकता है, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र बाधित हो सकता है और जैव विविधता कम हो सकती है।
  • जैव सुरक्षा चिंताएं : ये फसलें प्रजातीय विविधता को कम कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, कीट-प्रतिरोधी पौधे उन कीटों को नुकसान पहुंचा सकते हैं जो अपने जीवन के लिए किसी विशिष्ट फसल पर ही निर्भर होते हैं और परिणामस्वरूप उस विशेष प्रजाति के कीटों का विनाश हो सकता है।
  • क्रॉस-परागण और जीन प्रवाह : जी.एम. फसलें, जैसे- आनुवंशिक रूप से संशोधित कैनोला, अपने जंगली सह पौधों के साथ क्रॉसब्रीड कर सकती हैं, जिससे गैर-जी.एम. आबादी में संशोधित जीनों के प्रसार की संभावना बढ़ जाती है और प्राकृतिक पौधों की विविधता प्रभावित होती है।
  • अनपेक्षित परिणाम : विशिष्ट कीटों के प्रति प्रतिरोधी जी.एम. फसलों के प्रयोग से अनजाने में गैर-लक्षित प्रजातियों पर प्रभाव पड़ सकता है, जिससे अप्रत्याशित पारिस्थितिक परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं।

खाद्य सुरक्षा संबंधित चिंताएं 

  • एलर्जी संबंधित जीन  : जी.एम. फसलों में एलर्जी संबंधित जीनों का स्थानांतरण संभावित रूप से नई एलर्जी को उत्पन्न कर सकता है या मौजूदा एलर्जी गुणों को बढ़ा सकता है, जिससे संवेदनशील व्यक्तियों के लिए जोखिम पैदा हो सकता है।
  • स्वास्थ्य पर प्रभाव : जी.एम. फसलों में परिवर्तित पोषण प्रोफाइल मानव स्वास्थ्य को अप्रत्याशित तरीके से प्रभावित कर सकती है। आनुवंशिक रूप से संशोधित खाद्य पदार्थों के सेवन के दीर्घकालिक प्रभावों की गहन जांच की आवश्यकता है।
  • प्रतिरोध विकास : कुछ जी.एम. लक्षणों पर अत्यधिक निर्भरता से प्रतिरोधी कीटों या रोगों का विकास हो सकता है, जिसके लिए अधिक गहन रासायनिक उपचार की आवश्यकता होगी और पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो सकता है।

भारत में जी.एम. फसल 

  • भारत में, बीटी कॉटन व्यावसायिक खेती के लिए स्वीकृत एकमात्र जी.एम. फसल है। 
  • 2022 तक, जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) ने सरसों के संकर डीएमएच-11 के लिए पर्यावरणीय रिलीज की मंजूरी दे दी है, हालांकि इसका कार्यान्वयन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अधीन है।
  • इसके अतिरिक्त, चना, अरहर, मक्का और गन्ना सहित कई अन्य फसलों के लिए चल रहे शोध और क्षेत्र परीक्षण चल रहे हैं।

जी.एम. फसलों को विनियमित करने वाले अधिनियम और नियम

  • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 
  • जैविक विविधता अधिनियम, 2002 
  • खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 
  • औषधि और प्रसाधन सामग्री नियम (8वां संशोधन), 1988

जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC)

  • यह पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करती है।
  • यह पर्यावरण के दृष्टिकोण से अनुसंधान एवं औद्योगिक उत्पादन में सूक्ष्मजीवों और पुनः संयोजकों के उपयोग से जुड़ी गतिविधियों का मूल्यांकन करती है।
  • आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों और उनसे प्राप्त उत्पादों के व्यावसायिक प्रयोग से पहले जीईएसी की मंजूरी अनिवार्य होती है।
  • यह भारत में खतरनाक सूक्ष्मजीवों या आनुवंशिक रूप से संसोधित जीवों के उपयोग, निर्माण, भंडारण, आयात और निर्यात को नियंत्रित करती है।
  • इस समिति के पास पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम,1986  के तहत दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार भी है।

आगे की राह 

  • वैज्ञानिक साक्ष्य-आधारित निर्णय : सरकारों को जी.एम. प्रौद्योगिकियों पर निर्णय ठोस वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर लेना चाहिए तथा क्रियान्वयन से पहले लाभों और जोखिमों का गहन मूल्यांकन करना चाहिए।
  • खुलेपन और पारदर्शिता : वास्तविक आशंकाओं को दूर करने और जनता का विश्वास बनाने के लिए वैज्ञानिक निष्कर्षों एवं नियामक प्रक्रियाओं का खुला संचार अत्यंत महत्वपूर्ण है।
  • हितधारकों को शामिल करना : नियामक प्रोटोकॉल में वैज्ञानिकों, किसानों, उपभोक्ताओं और पर्यावरणविदों की भागीदारी से निर्णय की वैधता बढ़ती है तथा  जी.एम. प्रौद्योगिकी विकास में विश्वास बढ़ता है।
  • नैतिक सिद्धांत : जी.एम. सुरक्षा पर अनिश्चितताओं को देखते हुए, इस सिद्धांत को अपनाने से व्यापक कार्यान्वयन से पहले जोखिमों को कम करने के लिए व्यापक वैज्ञानिक सहमति की प्रतीक्षा करने का सुझाव मिलता है।
  • न्यायसंगत लाभ के लिए नीतिगत ढाँचा : मूल्य निर्धारण और इनपुट लागत जैसी चिंताओं को दूर करने के लिए नीतियों में सुधार करना तथा जी.एम. खेती में शामिल सभी हितधारकों के लिए समान लाभ सुनिश्चित करना।
  • मजबूत दायित्व कानून : जी.एम. प्रौद्योगिकियों से उत्पन्न पर्यावरणीय खतरों या अप्रत्याशित परिणामों के लिए पक्षों को उत्तरदायी ठहराने के लिए मजबूत कानूनों को लागू करना जिम्मेदाराना व्यवहारों को प्रोत्साहित करता है।
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