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कितना धारणीय है भारत का कृषि-निर्यात?

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 :  सिंचाई के विभिन्न प्रकार एवं कृषि उत्पाद का भंडारण, परिवहन तथा विपणन, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित विषय; जन वितरण प्रणाली- उद्देश्य, कार्य, सीमाएँ, सुधार; बफर स्टॉक)

संदर्भ

  • वित्त वर्ष 2020-21 में भारत का कृषि-निर्यात 41.8 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया। यह पिछले वर्ष की तुलना में 18 प्रतिशत अधिक है। इससे घरेलू कृषि कीमतों में कुछ सुधार हुआ है। 
  • हालाँकि, ये निर्यात वर्ष 2022 तक सरकार द्वारा निर्धारित 60 अरब डॉलर के लक्ष्य से काफी कम है। इसलिये रणनीतिक दृष्टिकोण से यह प्रश्न उठता है कि क्या यह विकास दर लंबी अवधि तक कायम रह सकती है? और इसका भारतीय कृषि पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसके लिये कृषि-निर्यात संरचना को समझने की ज़रूरत है।

ृषि-वस्तुओं के निर्यात की सीमाएँ

  • विभिन्न कृषि-वस्तुओं के निर्यात में चावल पहले स्थान पर है, जो कृषि-निर्यात के कुल मूल्य का लगभग 21% है। इसके बाद समुद्री उत्पाद, मसाले, गोजातीय (भैंस) मांस और चीनी का स्थान आता है। उल्लेखनीय है कि चावल और चीनी के उत्पादन को लेकर पर्यावरणीय धरणीयता की चिंता के कारण देश के कृषि-निर्यात के पुनर्परीक्षण की आवश्यकता है। 
  • चावल और चीनी के उत्पादन में जल की बहुत खपत होती है। साथ ही, इन्हें सिंचाई के लिये सस्ती या मुफ्त बिजली साथ-साथ उर्वरक (विशेष रूप से यूरिया) के माध्यम से भारी सब्सिडी भी दी जाती है। 
  • विदित है कि एक किग्रा. चीनी के उत्पादन में लगभग 2,000 लीटर पानी की खपत होती है। वर्ष 2020-21 में भारत ने 7.5 मिलियन टन चीनी का निर्यात किया, अर्थात कम से कम 15 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी अकेले चीनी के उत्पादन में प्रयोग किया गया।
  • इसके अलावा, चीनी के अत्यधिक घरेलू स्टॉक को खत्म करने के लिये सरकार द्वारा दी गई निर्यात सब्सिडी ने ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील और थाईलैंड जैसे कई अन्य चीनी निर्यातक देशों को विश्व व्यापार संगठन ने भारत के खिलाफ मामला दर्ज करने के लिये प्रेरित किया है, जिसका बचाव करना भारत के लिये मुश्किल हो सकता है।
  • स्थलाकृति के आधार पर एक किलो चावल की सिंचाई में लगभग 3,000 से 5,000 लीटर जल की आवश्यकता होती है। इस प्रकार, अनुमानत: भारत ने चावल के माध्यम से 35.4 अरब घन मीटर जल का प्रयोग किया है। इसके अलावा, कृषि से उत्पन्न ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में चावल की खेती 18 प्रतिशत से अधिक का योगदान करती है।
  • गैर-बासमती चावल निर्यात के गहन मूल्यांकन से एक और दिलचस्प तथ्य उजागर होता है, ये निर्यात वास्तव में केवल एम.एस.पी. से कम दर पर हो रहा है बल्कि देश में प्रचलित औसत घरेलू मंडी कीमतों से भी कम हैं, जबकि इसमें मंडी से बंदरगाह तक माल ढुलाई और लोडिंग शुल्क को भी समायोजित किया जाता है। ऐसी संभावना है कि पी.डी.एस. और पी.एम. गरीब कल्याण योजना के माध्यम से आपूर्ति का एक बड़ा हिस्सा लीक हो रहा है।

उपाय 

  • शोध से पता चलता है कि सामान्य चावल के मामले में पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में विद्युत और उर्वरक सब्सिडी इसके मूल्य का लगभग 15 प्रतिशत है। यदि इन सब्सिडी को वापस ले लिया जाता है या किसानों को सीधे आय हस्तांतरण के माध्यम से इसे  युक्तिसंगत बनाया जाता है, तो चावल किसानों की पहली पसंद नहीं रह जाएगी।
  • भारत से चावल और चीनी के निर्यात में वृद्धि से सबसे बड़ी चिंता पर्यावरण धारणीयता को लेकर है। भारत पानी की कमी वाला देश है। यहाँ वर्ष 2011 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1,544 क्यूबिक मीटर थी, जो वर्ष 1951 में 5,178 क्यूबिक मीटर से काफी कम है। वर्ष 2050 तक इसके और कम होकर 1,140 क्यूबिक मीटर होने की संभावना है। अत: नीति निर्माताओं को कृषि-निर्यात के लिये धारणीय रणनीति बनाते समय इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
  • यदि चावल के निर्यात को जारी रखना है, तो इसकी खेती जल-प्रभावी और कम ग्रीन हाउस गैस (मीथेन) पदचिह्न के साथ की जानी चाहिये। अल्टरनेट वेटिंग ड्राइंग (Alternate Wetting Drying- AWD), डायरेक्ट-सीडेड राइस (Direct-Seeded Rice- DSR) और माइक्रो-इरीगेशन जैसे खेती के तरीकों को जल्द-से-जल्द अपनाना होगा।
  • किसानों को जल संरक्षण के लिये प्रोत्साहन देने के साथ-साथ इसके लिये उन्हें पुरस्कृत किया जा सकता है। धान और गन्ने की जगह अन्य कम पानी की खपत वाली फसलों को बढ़ावा दिया जा सकता है और कार्बन पदचिह्न को कम किया जा सकता है।
  • विश्लेषण दर्शाते है कि भारत निर्यात में विश्व स्तर पर कम प्रतिस्पर्धी और आयात में अधिक संरक्षणवादी होता जा रहा है। अत: वर्तमान में कृषि-व्यापार नीतियों और टैरिफ संरचनाओं की समीक्षा करने का उपयुक्त समय है। एक दीर्घावधि रणनीति का उद्देश्य जल ऊर्जा संसाधनों के संरक्षण और कार्बन फुटप्रिंट को कम करने वाला होना चाहिये।
  • चावल खरीद को पी.डी.एस. की ज़रूरतों तक सीमित करने की आवश्यकता है। साथ ही, पी.डी.एस. के तहत भी सीधे नकद हस्तांतरण का विकल्प पेश करने की आवश्यकता है। एफ.सी.आई. के पास बढ़ते अनाज स्टॉक को कम करके भी अनुत्पादक वित्तीय संसाधनों का उपयोग कृषि अनुसंधान एवं विकास में निवेश को बढ़ाने के लिये किया जा सकता है, ताकि धारणीय आधार पर उत्पादकता में वृद्धि और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये कृषि पद्धतियों में सुधार किया जा सके।
  • एक निर्यात-आधारित रणनीति के साथ-साथ बुनियादी ढाँचे और लॉजिस्टिक्स में निवेश करके निर्यात लागत को कम करने की भी आवश्यकता है।  
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