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भारत की वयोवृद्ध जनसंख्या: चुनौतियाँ एवं अवसर

(प्रारंभिक परीक्षा- आर्थिक और सामाजिक विकास- सतत् विकास, गरीबी, समावेशन, जनसांख्यिकी, सामाजिक क्षेत्र में की गई पहल आदि)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित विषय।)

संदर्भ

  • भारत के ‘जनसांख्यिकीय लाभांश’ के विषय पर पर्याप्त चर्चाएँ होती रही हैं। देश अपने ‘जनांकिकीय संक्रमण’ के एक ‘अनोखे चरण’ में है, जिसकी विशेषता इसकी युवा आबादी का उभार है, जो तीव्र संवृद्धि के लिये एक अवसर साबित हो सकती है।
  • हालाँकि, आर्थिक संवृद्धि के परिप्रेक्ष्य में समानांतर रूप से वृद्ध जनसंख्या की बढ़ोत्तरी पर भी समान रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।

वैश्विक स्थिति एवं भारत

  • गिरते प्रजनन दर और बढ़ती जीवन प्रत्याशा के कारण लगभग सभी देश अपनी वृद्ध आबादी के अनुपात में बढोत्तरी का अनुभव कर रहे हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या अनुमानों के अनुसार, 65 वर्ष और उससे अधिक आयु वर्ग की संख्या वर्ष 2019 में 703 मिलियन थी, जो वर्ष 2050 में दोगुनी होकर 1.5 बिलियन हो जाएगी। इस प्रकार वैश्विक जनसंख्या में वृद्धों की हिस्सेदारी कुल 16 प्रतिशत हो जाएगी।
  • भारत जैसे विकासशील देश तेज़ी से वृद्ध आबादी के बढ़ने का अनुभव कर रहे हैं। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार, वर्ष 2050 तक भारत की वृद्ध आबादी मौजूदा 60 मिलियन से बढ़कर 227 मिलियन हो जाएगी।
  • तदनुसार, वृद्धावस्था ‘निर्भरता अनुपात’ 9.8 से बढ़कर 20.3 हो जाएगा। इसबप्रकार, भले ही जनसांख्यिकीय लाभांश आर्थिक संवृद्धि में सहायक है, लेकिन वृद्ध आबादी की वृद्धि और पेंशन प्रणालियों पर बढ़ता दबाव सरकार के प्रयासों को प्रभावित कर सकता है।

नीतिगत चुनौतियाँ

  • वृद्धो की बढ़ती आबादी दो नीतिगत चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है: आय सुरक्षा सुनिश्चित करना तथा उच्च वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात से उत्पन्न होने वाली वित्तीय लागत को कम करना।
  • हालाँकि, वृद्धों का बढ़ता अनुपात राजकोषीय चुनौतियों को जन्म देता है तथा उनकी आय सुरक्षा पर अधिक ध्यान देने की भी माँग करता है।
  • यह एक ऐसी चिंता है, जिसे केवल अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करने के लिये नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है।

जीवन गुणवत्ता सूचकांक

  • उक्त पृष्ठभूमि में राज्यों और संघ राज्यक्षेत्रों में वृद्धों के जीवन की गुणवत्ता का आकलन प्रस्तुत करने के लिये ‘जीवन की गुणवत्ता सूचकांक’ निर्धारित किया गया है।
  • यह सूचकांक चार मानकों पर उनके कल्याण का आकलन करता है, जो आगे आठ उप-मानकों में विभाजित है, जिसमें 45 संकेतक शामिल हैं।
  • सूचकांक भारत की वृद्ध आबादी के समग्र कल्याण पर केंद्रित है तथा ‘आय सुरक्षा’ इसका एक अभिन्न अंग है।
  • इस सूचकांक के निष्कर्ष बताते हैं कि ‘आय सुरक्षा’ वृद्धों के कल्याण की राह में सबसे बड़ी चुनौती है।
  • सूचकांक के अनुसार, आय सुरक्षा का राष्ट्रीय औसत स्कोर सबसे कम 33.03 (100 में से) है। उक्त मानक उन आवश्यक उपायों का मूल्यांकन करते हैं, जो आय सहायता प्रदान करते हैं, जैसे- पेंशन और भविष्य निधि।
  • सूचकांक में 36 में से 21 राज्यों और संघ राज्यक्षेत्रों ने वृद्धों के स्वास्थ्य देखभाल के लिये स्वीकृत राष्ट्रीय निधि का 50 प्रतिशत से भी कम का उपयोग किया है, जबकि चंडीगढ़ और दादरा व नगर हवेली को कोई राशि स्वीकृत नहीं की गई थी।
  • अधिकांश राज्य गरीबी रेखा से नीचे के वृद्धों के लिये मौजूदा पेंशन योजनाओं का लाभ प्रदान करने में भी पिछड़ गए हैं।

सूचकांक के अन्य निष्कर्ष

  • सूचकांक स्कोर वृद्धों को आय समर्थन सुनिश्चित करने की दिशा में नीतिगत दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है, क्योंकि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1 प्रतिशत पेंशन पर व्यय करता है।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना तथा अटल पेंशन योजना इस संबंध में प्रमुख नीतिगत हस्तक्षेप हैं।
  • इस प्रकार, केंद्र और राज्यों दोनों को अपने प्रयासों को बढ़ाने की ज़रूरत है, विशेषकर उन राज्यों में जहाँ वृद्ध आबादी का अनुपात अधिक है।
  • अर्थव्यवस्था पर वृद्ध आबादी बढ़ने के वित्तीय दबावों से संबंधित चिंताओं के बावजूद, वास्तविकता यह है कि आय समर्थन प्रणाली अपने मौजूदा स्वरूप में आवश्यकताओं को पूरा करने में भी सक्षम नहीं है, जबकि उनकी आबादी का अनुपात केवल 8.6 प्रतिशत है।
  • यह चिंता का विषय है कि जब आबादी में वृद्धों का हिस्सा बढेगा, तो पेंशन प्रणाली कितनी अच्छी होगी? अतः  इसके लिये बेहतर फंडिंग और कवरेज के जरिये पेंशन प्रणाली को मज़बूत करना समय की माँग है।

सुझाव

  • अर्थव्यवस्था को बढ़ती वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात से उत्पन्न होने वाली राजकोषीय लागतों को कम करने की आवश्यकता है। इसके समाधान की दिशा में पहला कदम वृद्धावस्था से जुड़े नकारात्मक अर्थ को परिवर्तित करना है।
  • वैज्ञानिक विकास के समय में मानवता ने अनेक खतरनाक बीमारियों पर काबू पा लिया है, जिसके कारण औसत जीवन काल काफी बढ़ गया है। अतः ऐसे में यह मान लेना नासमझी होगी कि एक व्यक्ति 60 वर्ष आयु सीमा पार करने के बाद एक मूल्यवान संसाधन नहीं रह जाता है।
  • दनुसार, वृद्धों के लिये नियोजित शब्दावली को ‘बोझ’ से ‘संपत्ति’ में परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
  • जैसा कि भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश कम हो रहा है और पेंशन प्रणाली पर दबाव बढ़ रहा है, सूचकांक बताता है कि चरणबद्ध तरीके से भविष्य में सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ानी चाहिये, ताकि युवा पीढ़ी के अवसरों के समक्ष खतरा उत्पन्न न हो।
  • यह वास्तव में एक ‘बहु-पीढ़ी कार्यबल’ (Multi-Generational Workforce) की शुरूआत करेगा, जो अनुभवी कार्यबल को युवा ऊर्जा के साथ एकीकृत करेगा।

भावी राह

  • सेवानिवृत्ति की आयु में वृद्धि करना भी एक चुनौती होगी। इसके लिये ज़रूरी है कि देश इसकी तैयारी पहले से ही शुरू कर दे। साथ ही, दूसरे जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाने के लिये ‘संस्थागत और नीतिगत ढाँचा’ इस इच्छित परिवर्तन के अनुकूल होना चाहिये।
  • यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि भविष्य में वृद्धों का कल्याण आज की कार्यशील आबादी के कल्याण से अंतर्संबंधित है।
  • एक मज़बूत बहु-पीढ़ी कार्यबल भविष्य में तभी संभव है, जब आज के युवाओं के पास ‘सामाजिक वस्तुओं और रोज़गार के अवसरों’ तक पर्याप्त पहुँच हो।

निष्कर्ष

  • भारत एक ‘जनसांख्यिकीय संक्रमण’ का अनुभव कर रहा है, जो आर्थिक संवृद्धि को इंगित करता है, इसलिये नीति निर्माताओं को जनसांख्यिकीय लाभांश के दोनों पक्षों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • इसके अतिरिक्त, आने वाले दशकों में वृद्धों के कल्याण को सुनिश्चित करने की दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, नीति निर्माताओं को राजकोषीय चुनौतियों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, ताकि ऐसा न हो कि कल की चुनौतियाँ आज के लाभों पर भारी पड़ जाएँ।
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