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भारत में पर्यावरणीय संकट का अभिनव समाधान : ग्रीन डील

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-3 : पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन; आपदा और आपदा प्रबंधन; आर्थिक विकास, समावेशी विकास और रोज़गार संबंधी विषय)

संदर्भ

वैश्विक आर्थिक संकट से उबरने के लिये अमेरिका ने ‘न्यू डील’ कार्यक्रम शुरू किया था। संसाधनों के अति दोहन ने वर्तमान में पर्यावरणीय संकट उत्पन्न कर किया है, जिसके लिये न्यू डील की तर्ज पर ही ‘ग्रीन डील’ की आवश्यकता महसूस की जा रही है। जैव जगत के अस्तित्व के लिये पर्यावरणीय संकट का यह समाधान आर्थिक विषमता और आपदा प्रबंधन संबंधी मुद्दों के लिये भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन जनित हालिया प्राकृतिक आपदाएँ

  • बंगाल की खाड़ी में अम्फान और दक्षिण-पश्चिम अरब सागर में तौकते चक्रवात, महाराष्ट्र में भीषण सूखा, मुंबई और चेन्नई में अत्यधिक वर्षा, उत्तराखंड में बाढ़ और दिल्ली में वायु प्रदूषण जैसे संकट भारत में जलवायु परिवर्तन के हालिया उदाहरण हैं। महामारी पूर्व और महामारी प्रेरित अभूतपूर्व आर्थिक संकट ने इसे और अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
  • संकट की गंभीरता को देखते हुए मामूली प्रयास अब प्रभावी नहीं रह गए हैं। इसके लिये विकास मॉडलों पर पुन: मंथन करने तथा एक न्यायपूर्ण, समावेशी और टिकाऊ उपाय की आवश्यकता है।

ग्रीन डील : पर्यावरणीय संकट का आर्थिक समाधान

  • गौरतलब है कि भारत सरकार ने कोविड-19 से उबरने के लिये जी.डी.पी. का 10 प्रतिशत ‘आत्मनिर्भर पैकेज’ के रूप में देने का वादा किया। यदि ऐसी ही धनराशि जलवायु संकट के मद्देनज़र विवेकपूर्ण तरीके से आवंटित और व्यय की जाती है, तो देश जलवायु संकट की चुनौतियों से बाहर निकल सकता है और जलवायु परिवर्तन वक्र से भी आगे बढ़ सकता है। इस तरह के पैकेज को ‘इंडियन ग्रीन डील’ (IGD) नाम दिया जा सकता है।
  • यह भारत द्वारा कॉप-26 (COP-26) में की गई प्रतिबद्धता के अनुसार वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये नीतिगत खाका तैयार कर सकता है।
  • भारतीय अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में कार्बन पदचिह्न काफी उच्च हैं, जिनके प्रभाव को नियंत्रित करने के लिये एक निश्चित समयावधि वाले आधारभूत स्वरूप परिवर्तन योजना की आवश्यकता है।

ग्रीन डील का अधिकतम लाभ मॉडल

  • वित्तीय आवंटन का मॉडल
    • वस्तुतः ऐसी योजना को समग्र रूप से तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं : बुनियादी ढाँचा विकास, संरक्षण (Care) अर्थव्यवस्था और हरित ऊर्जा कार्यक्रम।
    • जी.डी.पी. के उस निर्धारित 10 प्रतिशत को यदि तीन भागों, यथा- बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये 5 प्रतिशत (विशेष रूप से ग्रामीण बुनियादी ढाँचे के लिये), संरक्षण अर्थव्यवस्था के लिये 3 प्रतिशत और शेष 2 प्रतिशत हरित ऊर्जा के लिये व्यय किया जाना चाहिये। इन क्षेत्रों की रोज़गार सृजन क्षमता भी काफी अधिक है।
    • रोज़गार संकट का समाधान
      • आई.जी.डी. लोगों का समावेशन करने के साथ ही अतिरिक्त रोज़गार सृजित कर प्रच्छन्न बेरोज़गारी की समस्या का भी समाधान करेगा।
      • हरित ऊर्जा के लिये प्रस्तावित आई.जी.डी. की प्रतिबद्धता राशि को यदि जीवाश्म ईंधन के क्षेत्र में खर्च किया जाता है, तो इससे केवल 2.4 मिलियन रोज़गार ही सृजित होगा जबकि हरित ऊर्जा 8 मिलियन नौकरियाँ सृजित कर सकता है। इसलिये हरित अर्थव्यवस्था से उत्सर्जन और रोज़गार दोनों का समाधान हो सकता है।

      उत्सर्जन संकट का समाधान

      • हरित ऊर्जा कार्यक्रम के परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के ‘घोषित नीतिगत परिदृश्य (STEPS)’ के अनुमानों की तुलना में वर्ष 2030 तक भारत के कुल कार्बन उत्सर्जन में 0.8 गीगाटन की कमी आएगी।
      • इस कार्यक्रम में निवेश के दो घटक हैं- ऊर्जा दक्षता एवं स्वच्छ नवीकरणीय ऊर्जा। भारत का ऊर्जा उपभोग प्रति इकाई सकल घरेलू उत्पाद (ऊर्जा गहनता) के वैश्विक औसत से काफी अधिक है, जिसे ऊर्जा दक्षता के माध्यम से काफी कम किया जा सकता है। भारत ऐसे कार्यक्रम के माध्यम से ऊर्जा उपभोग का लगभग एक-तिहाई कम कर सकेगा।

      वित्तपोषण का समतामूलक समाधान

      • हालाँकि, मुख्य चुनौती जी.डी.पी. के इस 10 प्रतिशत हिस्से के वित्तपोषण की है। इसे दो तरीकों से वित्तपोषित किया जा सकता है। पहला, दुनिया के सबसे बड़े उत्सर्जक देशों द्वारा वैश्विक न्यायसंगत संक्रमण पैकेज और दूसरा, भारतीय अभिजात्य वर्ग पर भारित कर। यह न्यायसंगत तरीके से समायोजन का बोझ उन पर डालेगा जिनकी जीवन शैली जलवायु संकट के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है।
      • संचयी वैश्विक उत्सर्जन के दृष्टिकोण से देखा जाए, तो भारत का कार्बन उत्सर्जन अमेरिका के 25 प्रतिशत की तुलना में मात्र 3 प्रतिशत है। इस असमानता को दूर करने का यह तरीका न्यायोचित समाधान हो सकता है।
      • ऐसी अंतर्राष्ट्रीय वैश्विक कार्बन कर समाधान प्रणाली से भारत के लिये लगभग 270 अरब डॉलर की वार्षिक राशि प्राप्त होगी, जो कि आई.जी.डी. की आवश्यकता से भी अधिक है।
      • राष्ट्रीय स्तर पर उत्सर्जन असमानता की बात की जाए, तो सबसे धनी लोग 10 प्रतिशत उत्सर्जन करते हैं, जो कि सबसे गरीब लोगों की तुलना में पाँच गुना अधिक है। आई.जी.डी. को अभिजात्य वर्ग के उत्तरदायित्वों के निर्धारण के लिये एक राजस्व-तटस्थ नीति के तौर पर अपनाया जा सकता है तथा विलासिता की वस्तुओं, सम्पत्तियों एवं विरासत करों में वृद्धि के माध्यम से वित्तपोषण किया जा सकता है।
      • प्रतिगामी कार्बन टैक्स द्वारा भी वित्तपोषण किया जा सकता है, जो कार्बन उत्सर्जन पर आधारित होना चाहिये तथा इसके माध्यम से अर्जित कार्बन डिविडेंड का उपयोग मुफ्त बिजली एवं राशन और सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध कराने में किया जा सकता है।

      निष्कर्ष

      इंडियन ग्रीन डील एक साथ वर्तमान की दो सबसे बड़ी चुनौतियों ‘उत्सर्जन और समता’ का समाधान करेगी। वास्तविक समस्या विचारों की परिधि में नहीं बल्कि उन पर अमल करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति के आभाव में है।

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