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जलवायु परिवर्तन पर आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट

(प्रारंभिक परीक्षा- पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

संदर्भ

हाल ही में, ‘जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल’ (IPCC) ने ‘जलवायु परिवर्तन 2022 : प्रभाव, अनुकूलन और संवेदनशीलता’ (Climate Change 2022: Impacts, Adaptation and Vulnerability) नामक रिपोर्ट जारी की है। ध्यातव्य है कि आई.पी.सी.सी. को जलवायु वैज्ञानिकों की वैश्विक संस्था माना जाता है।

‘जलवायु न्याय एवं समानता’ का मुद्दा 

  • यह आई.पी.सी.सी. की छठीं आकलन रिपोर्ट का दूसरा भाग है। इस आकलन रिपोर्ट के पहले भाग को अगस्त 2021 में जारी किया गया था। इसका तीसरा और अंतिम भाग अप्रैल 2022 में जारी किया जा सकता है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
  • इस रिपोर्ट में पहली बार जलवायु अनुकूलन समर्थन (Adaptation Support) के लिये 'जलवायु न्याय एवं समानता’ (Climate Justice and Equity) को महत्त्वपूर्ण तत्त्व के रूप में मान्यता दी गई है। विदित है कि भारत लंबे समय से जलवायु न्याय के मुद्दे को विश्व मंच पर उठाता रहा है और विकास के लिये उपलब्ध कार्बन स्पेस में 'उचित हिस्सेदारी' हेतु विकासशील देशों के नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभाता रहा है।

विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव 

प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि 

  • इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन जनित प्रतिकूल प्रभावों के पहले से अधिक गंभीर एवं व्यापक होने की चेतावनी जारी की गई है। शोधकर्ताओं के अनुसार, जलवायु संकट से निपटने के लिये ‘गौण’ या ‘वृद्धिशील’ (Minor or Incremental) प्रतिक्रियाएँ पर्याप्त नहीं होंगी।
  • जीवित प्राणियों के साथ-साथ प्राकृतिक प्रणालियों (Natural Systems) में बढ़ते तापमान के प्रति अनुकूल होने की क्षमता निरंतर कमज़ोर होती जा रही है। यह क्षमता आने वाले दशकों में तापमान में वृद्धि के साथ और भी कम हो जाएगी।
  • विदित है कि लगभग 45% वैश्विक आबादी (करीब 3.5 बिलियन से अधिक) जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्रों में निवास कर रही है।
  • यदि तापमान में वैश्विक वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक काल से 1.5°C के भीतर बनाए रखने के लिये पर्याप्त प्रयास किये जाते हैं तो भी जलवायु परिवर्तन जनित कई आपदाओं के अगले दो दशकों के दौरान उभरने की संभावना है। 1.5°C सीमा के उल्लंघन की स्थिति में ‘अतिरिक्त गंभीर प्रभाव’ (Additional Severe Impacts) पैदा होने की संभावना है।
  • यदि विश्व समुदाय कार्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों को प्राप्त कर लेता है तो भी इस सदी के अंत तक समुद्र का जल स्तर 44 सेमी. से 76 सेमी. तक बढ़ जाएगा। किंतु उच्च उत्सर्जन की स्थिति में यदि ग्लेशियर अधिक तेज़ी से पिघलते हैं, तो समुद्र का जल स्तर इस सदी के अंत तक 2 मी. और वर्ष 2150 तक 5 मी. तक बढ़ सकता है।

स्वास्थ्य प्रभावों का आकलन

  • आई.पी.सी.सी. ने इस रिपोर्ट में पहली बार जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य प्रभावों पर ध्यान दिया है। शोधकर्ताओं के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से वेक्टरजनित और जलजनित बीमारियों, जैसे- मलेरिया एवं डेंगू का खतरा बढ़ रहा है। इन बीमारियों के प्रति एशिया के उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र विशेष रूप से संवेदनशील है। 
  • तापमान में वृद्धि के साथ श्वसन संबंधी बीमारियों, संक्रामक रोगों, मधुमेह एवं शिशु मृत्यु दर में वृद्धि की संभावना है। हीटवेव, बाढ़ एवं सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति से कुपोषण, एलर्जी संबंधी बीमारियों और मानसिक विकारों में वृद्धि हो रही है।

जल संकट की चुनौती

  • तापमान में 2°C की वृद्धि होने की स्थिति में विश्व की लगभग 300 करोड़ आबादी गंभीर जल समस्या से ग्रस्त हो जाएगी जबकि 4°C की वृद्धि होने पर यह आँकड़ा 400 करोड़ को पार कर सकता है।
  • रिपोर्ट का अनुमान है कि दक्षिण अमेरिका में ऐसे दिनों की संख्या कहीं ज्यादा बढ़ जाएगी जब लोगों को जल की कमी का सामना करना पड़ेगा। साथ ही, दक्षिण एशिया में भारत जैसे देशों के लिये भी यह समस्या अधिक गंभीर होगी जहाँ एक बड़ी जनसंख्या जल संबंधी आवश्यकताओं के लिये ग्लेशियरों पर निर्भर है।
  • बढ़ते तापमान के कारण इन ग्लेशियरों के पिघलने की दर पूर्व की तुलना में कहीं अधिक तेज होती जा रही है, परिणामस्वरुप जल की उपलब्धता में कमी आ रही है। 

कृषि एवं खाद्य संकट

  • जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव कृषि एवं खाद्य उत्पादन पर भी पड़ेगा। बढ़ते तापमान के कारण भारत सहित अनेक अफ्रीकी देशों में खाद्य उत्पादन पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। हालाँकि, कुछ उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिला है किंतु यह घटती उत्पादकता की क्षतिपूर्ति के लिये अपर्याप्त है।
  • यदि सदी के अंत तक तापमान में 1.6°C से कम की वृद्धि होती है तो भी लगभग 8% कृषि भूमि खाद्य उत्पादन के लिये अनुपयुक्त हो जाएगी। 
  • तापमान वृद्धि का प्रभाव पशु एवं मत्स्य पालन पर भी पड़ेगा। एक अनुमान के अनुसार अफ्रीका के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सदी के अंत तक समुद्री मत्स्य उत्पादन में 41% तक की कमी हो सकती है।
  • अफ्रीका में निवास करने वाले लगभग एक-तिहाई लोगों के प्रोटीन का मुख्य स्रोत मछलियाँ हैं। इसके अतिरिक्त, यह 1.23 करोड़ आबादी की आजीविका का भी प्रमुख स्रोत है। यदि बढ़ते तापमान के कारण इसके उत्पादन में गिरावट आती है तो अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में कुपोषण के शिकार लोगों में कई गुना वृद्धि होगी।
  • भुखमरी का सर्वाधिक प्रभाव अफ्रीका, दक्षिण एशिया और मध्य अमेरिका पर पड़ेगा। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक जलवायु परिवर्तन के कारण 18.3 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार होंगें।

भारत पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

क्षेत्रीय प्रभावों का आकलन

  • रिपोर्ट में पहली बार जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रीय प्रभावों का आकलन किया गया है। इसमें दुनिया और भारत के बड़े शहरों के जोखिमों एवं उनकी कमजोरियों का आकलन शामिल है।
  • इस रिपोर्ट में भारत की पहचान जलवायु परिवर्तन के प्रति एक संवेदनशील हॉटस्पॉट के रूप में की गयी है, जिसमें कई क्षेत्र और महत्त्वपूर्ण शहर जलवायु आपदा जनित गंभीर जोखिमों, जैसे- बाढ़, समुद्र जल स्तर में वृद्धि, लू, चक्रवात आदि का सामना कर रहे हैं।
  • उदाहरण स्वरुप मुंबई में समुद्र स्तर में वृद्धि एवं बाढ़ का उच्च जोखिम, जबकि अहमदाबाद में ‘अर्बन हीट आइलैंड’ का गंभीर खतरा बताया गया है। इसके अतिरिक्त चेन्नई, भुवनेश्वर, पटना और लखनऊ सहित कई शहरों में गर्मी एवं उमस खतरनाक स्तर के करीब पहुँच रही है। ‘अर्बन हीट आइलैंड’ उस शहरी या महानगरीय क्षेत्र को कहते हैं जो मानवीय गतिविधियों के कारण अपने आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक गर्म होता है।

समुद्र स्तर में वृद्धि

  • इस सदी के मध्य तक भारत में प्रतिवर्ष लगभग 35 मिलियन लोग तटीय बाढ़ का सामना कर सकते हैं। यदि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण नहीं लगाया गया तो सदी के अंत तक यह संख्या 45 से 50 मिलियन तक पहुँच सकती है।
  • आई.पी.सी.सी. ने चेतावनी दी है कि अकेले मुंबई के समुद्र स्तर में वृद्धि से वर्ष 2050 तक 162 अरब डॉलर वार्षिक की क्षति हो सकती है।

वेट-बल्ब तापमान

  • वर्तमान में भारत में वेट-बल्ब तापमान (Wet-Bulb Temperatures) शायद ही कभी 31°C से अधिक हुआ है। देश के अधिकांश हिस्सों में अधिकतम वेट-बल्ब तापमान 25-30°C है। 
  • किंतु आगामी वर्षों में कार्बन उत्सर्जन में कटौती किये जाने के बावजूद उत्तरी और तटीय भारत के कई हिस्से सदी के अंत में 31°C से अधिक के खतरनाक वेट-बल्ब तापमान तक पहुँच जाएंगे। 
  • यदि उत्सर्जन में वृद्धि जारी रहती है, तो भारत के अधिकांश हिस्सों में वेट-बल्ब तापमान 35°C की असहनीय सीमा तक पहुँच जाएगा या उससे अधिक हो जाएगा।

वेट-बल्ब तापमान

मनुष्य को जब गर्मी लगती है तो वह पसीने से स्वयं को ठंडा कर लेता है। हालाँकि, यदि आर्द्रता बहुत अधिक हो जाती है, तो पसीना काम नहीं करता है और अति ताप के जोखिम की स्थिति उत्पन्न होती है। वेट-बल्ब तापमान का उपयोग गर्मी और आर्द्रता दोनों के मापन के लिये किया जाता है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि स्थितियाँ मनुष्यों के लिए सुरक्षित हैं या नहीं। वेट-बल्ब तापमान की उच्चतम सीमा सामान्यतः 35°C मानी जाती है।

कृषि उत्पादन में कमी

जलवायु परिवर्तन से देश के खाद्यान्न उत्पादन पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की चेतावनी दी गई है। यदि पूर्व-औद्योगिक स्तर से वैश्विक तापन में 1°C  से 4°C तक वृद्धि होती है तो भारत में चावल का उत्पादन 10% के स्थान पर 30% तक घट सकता है। इसके अतिरिक्त मक्के का उत्पादन 25% की तुलना में 70% तक कम हो जाएगा।

आई.पी.सी.सी. रिपोर्ट

  • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा वर्ष 1988  में आई.पी.सी.सी. का गठन किया गया। इस पैनल में भारत सहित 195 सदस्य है।
  • इसका उद्देश्य सरकारों को वैज्ञानिक जानकारी प्रदान करना है जिसका उपयोग वे जलवायु नीतियों के विकास के लिये कर सकते हैं। इसके द्वारा पहली आकलन रिपोर्ट वर्ष 1990 में जारी की गई थी। वर्ष 1995, 2001, 2007 और 2015 में इसकी चार अन्य रिपोर्ट भी जारी की गई। 
  • ये रिपोर्ट केवल यथासंभव वैज्ञानिक प्रमाणों के माध्यम से तथ्यात्मक स्थितियों को प्रस्तुत करती हैं, न कि देशों या सरकारों को कोई सुझाव देती हैं।
  • इस प्रकार, ये रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया का आधार बनती है। अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ताओं, जैसे- पेरिस समझौते और क्योटो प्रोटोकॉल के निर्माण में इन रिपोर्ट्स की मुख्य भूमिका रही है।

निष्कर्ष 

  • इस रिपोर्ट में आई.पी.सी.सी. ने जलवायु परिवर्तन के गंभीर नकारात्मक प्रभावों का उल्लेख किया है। भारत का विश्वास है कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक सामूहिक कार्रवाई समस्या (Global Collective Action Problem) है जिसका समाधान केवल अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और बहुपक्षवाद (Multilateralism) से ही संभव है।
  • आई.पी.सी.सी. की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में विश्व समुदाय को यह चेतावनी जारी की गई है कि 2°C का लक्ष्य विनाशकारी हो सकता है। विश्व को सामूहिक रूप से तापमान वृद्धि को 1.5°C के भीतर रखने के लिये और अधिक महत्वाकांक्षी कार्रवाई की तीव्र आवश्यकता है।
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