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निजी संपत्ति के अधिग्रहण से संबंधित मुद्दे

संदर्भ 

सर्वोच्च न्यायालय ने भौतिक संसाधनों के स्वामित्व एवं नियंत्रण के आलोक में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) की व्याख्या करने के लिए नौ न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया है।

संपत्ति के अधिकार के संबंध में संवैधानिक प्रावधान

  • संविधान की प्रस्तावना का उद्देश्य सभी नागरिकों को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय, स्वतंत्रता और समानता सुरक्षित करना है।
  •  संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों की सूची है जो स्वतंत्रता एवं समानता की गारंटी देते हैं।
  •  भाग IV में उल्लेखित नीति निर्देशक तत्व (DPSP) ऐसे सिद्धांत हैं जिनका सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को पालन करना चाहिए। 
    • यद्यपि भाग III में मौलिक अधिकारों के विपरीत डी.पी.एस.पी. न्यायालय में वाद योग्य नहीं है, फिर भी वे देश के शासन में मौलिक हैं।
  • भाग IV में अनुच्छेद 39(B) और 39(C) में ऐसे सिद्धांत शामिल हैं जिनका उद्देश्य आर्थिक न्याय हासिल करना है। 

संपत्ति अधिकार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

  • संविधान ने मूल रूप से अनुच्छेद 19(1)(F) के तहत मौलिक अधिकार के रूप में संपत्ति के अधिकार की गारंटी दी थी।
  • अनुच्छेद 31 के तहत प्रावधान है कि निजी संपत्ति के अधिग्रहण के मामले में राज्य मुआवजा देगा। 
  • आजादी के समय सरकार के पास अपर्याप्त संसाधनों को ध्यान में रखते हुए और सार्वजनिक कल्याण के लिए भूमि अधिग्रहण में अधिक लचीलापन प्रदान करने के लिए, संपत्ति के अधिकार में कटौती करते हुए विभिन्न संशोधन किए गए। 

संपत्ति अधिग्रहण बनाम मौलिक अधिकार

अनुच्छेद

संशोधन एवं वर्ष

संक्षिप्त विवरण

31(A)

पहला संशोधन, 1951

संपत्ति के अधिग्रहण के लिए बनाए गए कानून इस आधार पर अमान्य नहीं होंगे कि इससे संपत्ति के अधिकार सहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।

31 (B)

पहला संशोधन, 1951

नौवीं अनुसूची के तहत रखे गए कानूनों को किसी भी मौलिक अधिकार के उल्लंघन के आधार पर न्यायिक समीक्षा से मुक्त रखा गया।

  • हालाँकि कोएल्हो मामले (2007) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अप्रैल 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में रखे गए कानून न्यायिक समीक्षा के अधीन होंगे।

31 (C)

25वां संशोधन,1971

अनुच्छेद 39(B) और (C) के तहत डी.पी.एस.पी. को प्रधानता प्रदान की गई। इन सिद्धांतों को पूरा करने के लिए बनाए गए कानून इस आधार पर अमान्य नहीं होंगे कि यह संपत्ति के अधिकार सहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। 

अनुच्छेद 31(C) के तहत प्रावधान 

  • अनुच्छेद 31(C) के अनुसार, यदि अनुच्छेद 39(B) एवं 39(C) में वर्णित नीति निर्देशों को लागूकिया जाता है तो इन्हें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14) एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) के मूल अधिकार उल्लंघन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है। 
    • अनुच्छेद 39(B) के अनुसार, समुदाय के भौतिक संसाधनों को सार्वजनिक भलाई के लिए वितरित किया जा सकता है।  
    • अनुच्छेद 39 (C) में प्रावधान किया गया है कि धन और उत्पादन के साधनों का संकेंद्रण ऐसा नहीं होना चाहिए जो सार्वजनिक क्षति के लिए उत्तरदायी हो। 
  • संविधान के अनुच्छेद 39 में राज्य की नीति के कुछ निर्देशक सिद्धांतों को सूचीबद्ध किया गया है, जो कानूनों के अधिनियमन के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं, लेकिन ये किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं।

विभिन्न संशोधन एवं  वाद

गोलकनाथ वाद, 1967

गोलक नाथ मामले वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि डी.पी.एस.पी. को लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों को कम नहीं किया जा सकता है।

रुस्तम कैवसजी कूपर बनाम भारत संघ और अनुच्छेद 31(C)

  • बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अधिनियम, 1969 के माध्यम से बैंको के राष्ट्रीयकरण को रुस्तम कैवसजी कूपर बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय की ग्यारह-न्यायाधीशों की पीठ ने गैर-संवैधानिक घोषित कर दिया था। 
    • बैंक राष्ट्रीयकरण मामले में, न्यायालय ने माना कि बैंकिंग अधिनियम द्वारा 'मुआवजे का अधिकार' उचित रूप से सुनिश्चित नहीं किया गया था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने टिपण्णी की थी कि सरकार किसी भी कानून के तहत सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए किसी भी संपत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकती है। 
    • जब तक कि कानून संपत्ति के लिए मुआवजा तय नहीं करता है और उन सिद्धांतों को निर्दिष्ट नहीं करता जिन पर मुआवजा आधारित होगा।
  • उपरोक्त परिस्थितियों में संसद ने 25वें सविधान संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 31 (C) को संविधान में शामिल किया था।
    • इसके द्वारा अनुच्छेद 14 एवं 19 के तहत 31 (C) को चुनौती देने वाली  याचिकाओं पर सुनवाई या हस्तक्षेप को न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर कर दिया।

केशवानंद भारती वाद 

  • 25वें संविधान संशोधन को केशवानंद भारती मामले (1973) में चुनौती दी गई थी, जिसमें 13 न्यायाधीशों ने 7-6 के संकीर्ण बहुमत से निर्णय दिया कि संविधान की बुनियादी संरचना (Basic Structure) को संवैधानिक संशोधन द्वारा भी नहीं बदला जा सकता है।
    • इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 31(C) के अंतिम भाग को रद्द कर दिया जिसमें नीति निर्देशक तत्वों को प्रभावी बनाने के लिए अनुच्छेद 14 एवं 19 के उल्लंघन आधार पर न्यायालय में चुनौती देने से प्रतिबंधित किया गया था।  
  • इसने न्यायालय के लिए उन कानूनों की जाँच करने का द्वार खोल दिया जो अनुच्छेद 39(B) और 39 (C) को आगे बढ़ाने के लिए बनाए गए थे।

42वाँ संविधान संशोधन 

  • वर्ष 1976 में संसद ने 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियमित किया। इसके माध्यम से अनुच्छेद 31 (C) के तहत सुरक्षा का विस्तार संविधान के भाग-IV में निर्धारित सभी निर्देशक सिद्धांत तक किया गया। 
    • इसके परिणामस्वरूप खंड 4 को जोड़कर प्रत्येक निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 36-51) को संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 के तहत चुनौतियों से संरक्षित किया गया था।
    • विधायिका ने तर्क कि इस संशोधन का उद्देश्य उन मौलिक अधिकारों पर निर्देशक सिद्धांतों को प्राथमिकता देना है जो  सामाजिक-आर्थिक सुधारों में बाधा उत्पन्न करते हैं।

44वां संविधान संशोधन 

  • वर्ष 1978 में 44वें संशोधन अधिनियम ने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में समाप्त कर इसे अनुच्छेद 300 (A) के तहत एक संवैधानिक अधिकार बना दिया। 
  • राज्य द्वारा निजी संपत्ति के अधिग्रहण का कोई भी कानून केवल सार्वजनिक उद्देश्य के लिए होना चाहिए और इसमें पर्याप्त मुआवजे का प्रावधान होना चाहिए।

मिनर्वा मिल्स वाद ,1980

  • 1980 में, मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति सीमित है। 
    • संसद द्वारा संशोधन शक्ति का उपयोग इन सीमाओं को हटाने और स्वयं को संशोधन की असीमित और पूर्ण शक्तियाँ प्रदान करने के लिए नहीं किया जा सकता।
    • संविधान मौलिक अधिकारों और डी.पी.एस.पी. के बीच सामंजस्यपूर्ण संतुलन पर मौजूद है।

हालिया वाद 

  • वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास अधिनियम, 1976 के अध्याय VIII-ए को  दी गई चुनौती पर सुनवाई कर रही है।
    • यह अध्याय वर्ष 1986 में एक संशोधन द्वारा पेश किया गया था जो सरकार को संविधान के अनुच्छेद 39(B) के तहत जनहित में समुदाय के भौतिक संसाधनों को वितरित करने के दायित्व का हवाला देते हुए मुंबई में उपकरित संपत्तियों (Cessed Properties) का अधिग्रहण करने की अनुमति देता है। 
    • उपकर संपत्तियों  में निवास करने वालों को मुंबई बिल्डिंग मरम्मत और पुनर्निर्माण बोर्ड को उपकर का भुगतान करना आवश्यक है जो मरम्मत एवं बहाली परियोजनाओं की देखरेख करता है।
  • वर्ष 1991 में, मुंबई में प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन ने वर्ष 1986 के संशोधन को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी। 
    • लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट ने अनुच्छेद 39(B) को आगे बढ़ाने में बनाए गए कानूनों को अनुच्छेद 31(C) द्वारा दी गई सुरक्षा का हवाला देते हुए संशोधन को बरकरार रखा।
  • इस फैसले के विरुद्ध दिसंबर 1992 में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई जहां अंततः सवाल यह बन गया कि क्या अनुच्छेद 39(B) के तहत समुदाय के भौतिक संसाधनों में निजी संसाधन जैसे उपकरित संपत्तियां शामिल हैं।

आगे की राह 

  • बढ़ती असमानता भारत सहित उदारीकृत खुले बाजार वाली आर्थिक व्यवस्था की विश्वव्यापी समस्या है।
    • हालाँकि, गरीब वर्गों के हितों की रक्षा करना सरकार की ज़िम्मेदारी है जो अपनी आजीविका के लिए राज्य मशीनरी पर सबसे अधिक निर्भर हैं। 
  • साथ ही अत्यधिक उच्च कर दरों, संपत्ति शुल्क, संपत्ति कर आदि की पिछली नीतियों ने अपने वांछित लक्ष्य हासिल नहीं किए। 
    • बल्कि इससे कर वंचन और काले धन की समस्या उत्पन्न हुई । 
  • नवाचार एवं विकास से समझौता नहीं किया जाना चाहिए बल्कि विकास का लाभ सभी वर्गों, विशेषकर हाशिए पर मौजूद लोगों तक पहुंचना चाहिए। 
  • विभिन्न नीतियों को मौजूदा आर्थिक मॉडल के अनुरूप पर्याप्त विमर्श के बाद इन्हें तैयार करने की आवश्यकता है। 
    • हालाँकि फिर भी हासिल किया जाने वाला अंतर्निहित सिद्धांत संविधान में उल्लेखित सभी के लिए आर्थिक न्याय ही है।
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