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कॉर्बन प्रतिबद्धता का प्राकृतिक विकल्प : वनीकरण

(प्रारंभिक परीक्षा-  पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

संदर्भ

भारत ने कॉप-26 (COP-26) सम्मेलन में कॉर्बन उत्सर्जन को वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य (नेट ज़ीरो) स्तर पर लाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को कम करने के लिये वनों का विस्तार एक निर्विवादित विकल्प हो सकता है।

पूर्व से विद्यमान परियोजना : REDD+

  • ‘रिड्यूसिंग एमिशन्स फ्रॉम डिफॉरेस्टेशन एंड फॉरेस्ट डिग्रेडेशन’ (आर.ई.डी.डी.+/REDD+) को संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क अभिसमय (UNFCC) के तहत वनों की कटाई पर रोक लगाकर उत्सर्जन में कमी लाने के लिये प्रारंभ किया गया था।
  • इसके माध्यम से वन संरक्षण तथा सतत प्रबंधन के साथ-साथ कार्बन स्टॉक (वनों में कार्बन सोखने की क्षमता) में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित किया गया था। 

कॉर्बन सिंक का वैश्विक तापन पर प्रभाव

  • ग्रिसकॉम (2017) के अनुसार, भूमि आधारित सिंक (वन सहित प्राकृतिक जलवायु समाधान) कॉर्बन उत्सर्जन में 37% तक कमी लाने के साथ-साथ वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने में मदद कर सकते हैं।
  • इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की रिपोर्ट के अनुसार, वृक्षारोपण के मौजूदा बहु प्रचारित तरीके की तुलना में ‘प्राकृतिक पुनरोत्पादन मॉडल’ लगभग 32% कार्बन स्टॉक अर्जित करने में सक्षम हैं।

बढ़ता वनोन्मूलन 

  • अनुमानत: भारत में पिछले छह वर्षों में वन क्षेत्र में 15,000 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है, किंतु मौजूदा वन क्षेत्रों का ह्रास जारी है।
  • वन स्थिति रिपोर्ट (1989) के अनुसार, देश में खुले वनों (घनत्व 10% से 40% से कम) का विस्तार भौगोलिक क्षेत्र का 7.83% था। यह 30 वर्ष (2019) में बढ़कर 9.26% हो गया है। इसका अर्थ यह है कि प्रतिवर्ष औसतन लगभग 1.57 लाख हेक्टेयर वन नष्ट हुए हैं।
  • इसका प्रमुख कारण अतिक्रमण, चराई और वनाग्नि सहित मानव जनित अन्य गतिविधियाँ हैं। वर्ष 1980 के बाद से विकासात्मक गतिविधियों के लिये लगभग 1.5 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्रों के स्वरुप में परिवर्तन किया गया है और लगभग 15 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्रों पर अतिक्रमण है।
  • साथ ही, भारत में गरीबी और बेरोज़गारी के बीच एक जटिल कड़ी से वनों की कटाई में बढ़ोतरी हो रही है। यह दर्शाता है कि जन भागीदारी वनीकरण के माध्यम से कार्बन पृथक्करण के वांछित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये एक आवश्यक और अनिवार्य तत्त्व है।

जन भागीदारी मॉडल

  • व्यावसायिक उद्देश्यों और जन भागीदारी से लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के अंतर्गत वर्ष 1990 में वनों की सुरक्षा एवं प्रबंधन करते हुए बंजर भूमि को उपयोग में लाने के लिये स्थानीय समुदायों को साझेदारी मोड में शामिल करने का प्रयास किया गया।
  • संयुक्त वन प्रबंधन की इस अवधारणा से राज्यों और वनाश्रित समुदायों को पर्याप्त उम्मीदें थी। बाद में एक स्वायत्त मॉडल में इन प्रयासों को मज़बूत करने के लिये वन विकास एजेंसी की अवधारणा को पेश किया गया, इसने अन्य स्रोतों से संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को निधि प्रवाह का मार्ग प्रशस्त किया।
  • परिणामस्वरूप लगभग 1.18 लाख संयुक्त वन प्रबंधन समितियों का गठन हुआ, जो 25 मिलियन हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र का प्रबंधन करती हैं।
  • इनमें से अधिकांश विश्व बैंक, विदेशी आर्थिक सहयोग कोष (जापान), अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग (यूनाइटेड किंगडम) और यूरोपीय संघ जैसी एजेंसियों द्वारा वित्तपोषित विभिन्न परियोजनाओं को लागू करते हुए सक्रिय हैं।
  • राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों और बाघ अभयारण्यों के मामले में संयुक्त प्रबंधन की समान प्रणाली शुरू में प्रभावी साबित हुई। यह न केवल जैव विविधता के संरक्षण और विकास के लिये बल्कि मानव-पशु संघर्षों में उल्लेखनीय कमी लाने, वनाग्नि और चराई से जंगलों की सुरक्षा में भी इन सहभागी समुदायों का समर्थन प्राप्त कर सकती थी।
  • हालाँकि, परियोजना के पूरा होने में लगने वाले समय और वित्त पोषण की कमी ने उनकी कार्यक्षमता को प्रभावित किया है, जिससे संबंधित गैर-सरकारी संगठनों एवं स्थानीय समुदायों से समर्थन की कमी के कारण वनों की सुरक्षा भी प्रभावित हुई।
  • राष्ट्रीय हरित भारत मिशन को छोड़कर केंद्र प्रायोजित अन्य सभी कार्यक्रमों, जैसे- प्रोजेक्ट टाइगर, अग्नि प्रबंधन, वन्यजीव आवासों का एकीकृत विकास (IDWH) एवं प्रतिपूरक वनीकरण प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (CAMPA) में प्राथमिकता और नीतिगत समर्थन की कमी है।
  • संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के माध्यम से स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये धीरे-धीरे भागीदारी को प्रथागत बना दिया। इससे उनकी प्रभावशीलता में भी गिरावट आई।

प्रकृति के प्रति दायित्त्वों में बदलाव

  • वर्तमान में ग्राम पंचायत या संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के स्थानीय संस्थानों की भूमिका योजना और उसके कार्यान्वयन भागीदार होने की जगह सलाहकार संस्था तक ही सीमित है। इसने वन विभागों और समुदायों के बीच सामंजस्य को प्रभावित किया है। 
  • निर्दिष्ट वन क्षेत्रों के बाहर वृक्षारोपण को शुरू करते समय जहाँ हितधारकों (विशेष रूप से पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों) की प्रेरणा और प्रोत्साहन महत्त्वपूर्ण है वहाँ जनभागीदारी की प्रासंगिकता अधिक है।

ग्लासगो प्रतिबद्धता और वनीकरण

  • ग्लासगो में घोषित प्रतिबद्धता के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन पर अधिक ध्यान केंद्रित करना होगा और शुद्ध शून्य लक्ष्य प्राप्त करने के लिये रणनीति और कार्यक्रम तैयार करना होगा। वनीकरण इसका प्रभावी उपाय हो सकता है।
  • चरणबद्ध तरीके से उत्सर्जन को कम करने के अलावा कार्बन भंडारण के दृष्टिकोण और जंगलों जैसे प्राकृतिक सिंक के माध्यम से ‘कार्बन ऑफसेटिंग’ (कार्बन पदचिह्न को कम करने के लिये वैकल्पिक परियोजनाओं का विकास) को समान प्राथमिकता दी जानी चाहिये।  

आगे की राह

  • शुद्ध शून्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये मौजूदा कानूनी और नीति तंत्र पर पुनर्विचार करने और स्थानीय संस्थानों के माध्यम से योजना एवं कार्यान्वयन में स्थानीय समुदायों की पर्याप्त भागीदारी के लिये निधि मुहैया कराने की आवश्यकता है।
  • हाल ही में, तेलंगाना में पंचायत और नगरपालिका अधिनियमों में संशोधन करने के साथ-साथ वृक्षारोपण व संबंधित गतिविधियों के लिये ग्रीन फंड या तेलंगाना हरित निधि का प्रावधान किया गया है। अन्य राज्यों में भी ऐसी पहल की आवश्यकता है।
  • हालाँकि, भारत वनों और भूमि उपयोग पर ग्लासगो लीडर्स डिक्लेरेशन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, जो त्वरित वित्तीयन के साथ सहभागी समुदायों के भू एवं वन अधिकारों को सक्षम बनाता है।  
  • राजनीतिक प्राथमिकता के साथ यह समावेशी दृष्टिकोण न केवल उत्सर्जन को कम करने में मदद करेगा बल्कि ‘वन कवर’ को ‘देश के कुल क्षेत्रफल का एक-तिहाई’ तक बढ़ाने में भी मदद करेगा। 
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