(प्रारंभिक परीक्षा: आर्थिक और सामाजिक विकास- सामाजिक क्षेत्र में की गई पहल आदि )
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: स्वास्थ्य, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित विषय)
संदर्भ
कोविड-19 महामारी से सबक लेते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य में विश्वास को पुनर्निर्मित करने की आवश्यकता है।
दो राज्यों के मध्य तुलनात्मक अध्ययन
- किसी भी आबादी के लिये कार्यात्मक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों की उपलब्धता वस्तुतः जीवन और मृत्यु का प्रश्न होती है।
- यह दो राज्यों; महाराष्ट्र और केरल की तुलना से स्पष्ट होता है, जिनमें वर्तमान में सबसे अधिक कोविड-19 के मामले हैं।
- उनका प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP), प्रत्येक राज्य में समग्र आर्थिक स्थिति को दर्शाता है।
- हालाँकि, उनके कोविड-19 मामले की मृत्यु दर भिन्न है, यह केरल में 0.48 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 2.04 प्रतिशत है।
- निहितार्थ यह है कि केरल की तुलना में महाराष्ट्र में एक कोविड-19 रोगी के मरने की संभावना चार गुना अधिक है।
कारण
- उक्त तरह के महत्त्वपूर्ण विचलन का एक प्रमुख कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों की प्रभावशीलता में भारी अंतर होना है।
- महाराष्ट्र की अपेक्षा केरल में प्रति व्यक्ति अधिक सरकारी डॉक्टर और सरकारी अस्पताल के बिस्तरों की संख्या है।
- साथ ही, केरल में प्रत्येक वर्ष सार्वजनिक स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति डेढ़ गुना अधिक धन आवंटित किया जाता है।
- महाराष्ट्र में एक बड़ा निजी स्वास्थ्य क्षेत्र होने के बावजूद, इसकी कमज़ोर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में व्यापक कमी आई है।
केरल मॉडल
- केरल में मज़बूत सरकारी स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है, जिसमे एक अधिक प्रभावी आउटरीच, समय पर परीक्षण, प्रारंभिक मामले का पता लगाना, रोगियों के लिये अधिक तर्कसंगत उपचार आदि मिलकर मृत्यु दर को कम करते हैं।
- महामारी के मौजूदा साक्ष्य एक स्पष्ट संदेश प्रदान करते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों की उपेक्षा बृहत् स्तर पर जीवन को नुकसान पहुँचा सकता है।
- इसलिये, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में तेज़ी से तथा व्यापक रूप से उन्नत किया जाना आवश्यक है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता
- प्राथमिकताओं के अंतर्गत सार्वजनिक अस्पतालों में ऑक्सीजन संयंत्र स्थापित कर लाखों कोरोना संक्रमित और गैर- कोरोना संक्रमित रोगियों के जीवन को बचाया जा सकता था।
- सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन(NHM) कार्यक्रम पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। ।
- वर्ष 2017-18 के पश्चात् से, एन.एच.एम. के आवंटन में वास्तविक रूप से गिरावट आई है, जिसके परिणामस्वरूप टीकाकरण जैसी मुख्य गतिविधियों में राज्यों को पर्याप्त समर्थन नहीं मिला है।
- गौरतलब है कि प्रणालीगत अंतराल कोविड-19 टीकाकरण के वितरण को प्रभावित करते हैं।
- पूरे भारत में शहरी नागरिकों ने महामारी के दौरान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी का अनुभव किया है, क्योंकि राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (NUHM) की स्थिति दयनीय बनी हुई है।
- राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन के लिये इस वर्ष का केंद्रीय आवंटन ₹1,000 करोड़ है, जो प्रति शहरी के हिसाब से प्रति माह ₹2 से कम है।
- यह स्थिति बदलनी चाहिये, जैसा कि संसदीय स्थायी समिति ने सिफारिश की थी। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से सरकार को चालू वर्ष के दौरान सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये ₹1.6 लाख करोड़ आवंटित करना चाहिये।
- यह वर्तमान केंद्रीय स्वास्थ्य बजट के दो-गुना करने के बराबर होगा, जो देश के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत बनाने में सक्षम हो सकता है।
निजी क्षेत्र का विनियमन
- एक और स्पष्ट प्राथमिकता, जिसे महामारी ने उजागर किया गया है, वह है निजी क्षेत्र में देखभाल की दरों और मानकों को विनियमित करने की आवश्यकता।
- बड़े पैमाने पर अस्पताल के बिलों से मध्यम वर्ग पर संकट गहराया है; बड़े निजी अस्पतालों में अक्सर कोविड-19 देखभाल पर ₹1 लाख से ₹3 लाख प्रति सप्ताह खर्च होता है।
- हालाँकि, निजी अस्पतालों के व्यापक नियमन की आवश्यकता से संबंधी पर्याप्त साक्ष्य होने के बावजूद, केंद्र सरकार ने अभी तक ‘नैदानिक प्रतिष्ठान (पंजीकरण और विनियमन) अधिनियम’ (CEA) के कार्यान्वयन को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक कदम नहीं उठाए हैं।
नैदानिक प्रतिष्ठान (पंजीकरण और विनियमन) अधिनियम
- उक्त अधिनियम को वर्ष 2010 में पारित किया गया और वर्तमान में पूरे भारत में यह 11 राज्यों पर लागू है।
- केंद्रीय न्यूनतम मानकों की अधिसूचना में एक बड़ी देरी और दरों के विनियमन के लिये केंद्रीय ढाँचे को विकसित करने में विफलता के कारण यह अधिनियम प्रभावी ढंग से लागू नहीं हुआ है।
- सार्वजनिक संकट का सामना करने के लिये, लगभग 15 राज्य सरकारों ने निजी अस्पतालों में कोविड-19 उपचार को विनियमित करने के लिये आपदा-संबंधी प्रावधानों को लागू किया है।
नीति आयोग पहल की आलोचना
- नीति आयोग ने हाल ही में ‘भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में निवेश के अवसर’ नामक दस्तावेज़ प्रकाशित किया है।
- यह दस्तावेज़ एक ऐसे देश में स्वास्थ्य देखभाल के और अधिक निजीकरण को बढ़ावा देता है, जहाँ पहले से ही दुनिया में सबसे अधिक निजीकृत स्वास्थ्य प्रणालियाँ हैं।
- महामारी के दौरान निजी क्षेत्र द्वारा बड़े पैमाने पर अधिक शुल्क लेने और तर्कहीन देखभाल के व्यापक अनुभवों के बीच प्रकाशित रिपोर्ट अनियमित निजी स्वास्थ्य देखभाल के नकारात्मक पहलुओं को स्वीकार करने में विफल रही है।
- दस्तावेज़ महामारी को शोषण के एक प्रमुख व्यावसायिक अवसर के रूप में देखता है।
- दस्तावेज़ में कहा गया है कि महानगरीय शहरों से इतर टियर-2 और टियर-3 शहरों में निजी अस्पतालों का विस्तार एक आकर्षक निवेश के अवसर प्रदान करता है।
- सार्वजनिक अस्पतालों को निजी ऑपरेटरों को सौंपने का प्रस्ताव है, जो इन प्रमुख सार्वजनिक संस्थानों को ‘वायबिलिटी गैप फंडिंग’ योजना के वाणिज्यिक तर्ज पर संचालित करेंगे।
- दस्तावेज़ में नीति आयोग के प्रस्ताव के आधार पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ, जो अब तक मुफ्त थीं, उनके लिये शुल्क आरोपित किया जा सकता है।
भावी राह
- केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को निजीकरण के इस तरह के कदमों को रोकना चाहिये, क्योंकि इससे स्वास्थ्य देखभाल कंपनियों को लाभ होगा तथा आम लोग हानि में रहेंगे।
- यह एक ऐसा समय है, जब सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों में लोगों के विश्वास का पुनर्स्थापित करना महत्त्वपूर्ण है।
- कोविड-19 की वर्तमान लहर से निपटने तथा संभावित तीसरी लहर को रोकने के लिये आवश्यक स्वस्थ व्यवहार को बढ़ावा देने के साथ-साथ टीकाकरण हिचकिचाहट पर काबू पाने में मदद करेगा।
निष्कर्ष
- सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करने के लिये निजी स्वास्थ्य देखभाल को विनियमित तथा स्वास्थ्य क्षेत्र के और अधिक निजीकरण को रोकने की आवश्यकता है।
- केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के लिये निर्णायक तौर पर कार्य करते हुए बेहतर मानव संसाधन सृजित करना समय की माँग है।