(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 - जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएं, संसद तथा न्यायालय के निर्णय तथा मामलें से संबंधित प्रश्न)
संदर्भ
- हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में भारतीय राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को लेकर चिंता व्यक्त की है।
- न्यायालय ने यह फ़ैसला वर्ष 2020 में बिहार विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों के आपराधिक मामलों के ख़ुलासा करने वाले अपने आदेश की अवहेलना के विरुद्ध दायर अवमानना याचिका में दिया था।
- न्यायालय ने अपने आदेश का पालन करने में विफल रहने के लिये विभिन्न राजनीतिक दलों पर आर्थिक दंड आरोपित किया है।
भारतीय राजनीति में बढ़ता अपराधीकरण
- बढ़ता अपराधीकरण भारतीय राजनीति में निरंतर चर्चा में रहने वाला विषय रहा है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (A.D.R.) के अनुसार, वर्तमान लोकसभा में 233 सांसदों पर आपराधिक मामलों के प्रकरण दर्ज हैं।
- वहीं पिछली लोकसभाओं में, वर्ष 2014 में 187, वर्ष 2009 में 162 और वर्ष 2004 में 128 सांसदों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज थे।
न्यायालय का आदेश
- उच्चतम न्यायालय के वर्तमान आदेशों ने चुनाव आयोग पर ठोस कार्रवाई करने के लिये एक नया दायित्व डाल दिया है। उदाहरण के लिये, किसी भी उम्मीदवार के विस्तृत आपराधिक इतिहास को प्रदर्शित करने के लिये एक फोन ऐप बनाना।
- इस संबंध में सभी राजनीतिक दलों के अनुपालन की निगरानी के लिये निर्वाचन आयोग में एक अलग प्रकोष्ठ (Cell) होना चाहिये।
- किसी भी उल्लंघन को बिना देर किये उच्चतम न्यायालय के ध्यान में लाया जाना चाहिये।
- अपराधीकरण से निपटने के लिये चुनाव आयोग को शक्ति प्रदान करने की कोशिश का निर्णय एक स्वागत योग्य कदम है।
- हालाँकि, इस समस्या के समाधान के लिये विधायिका द्वारा कोई ठोस कदम उठाये जाने को लेकर उच्चतम न्यायालय संशय में है।
राजनीति को अपराध से मुक्त करने संबंधी ऐतिहासिक निर्णय
- वर्ष 2002 में, ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ए.डी.आर.) बनाम भारत संघ’ मामले में उच्चतम न्यायालय ने चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि, शैक्षिक योग्यता और व्यक्तिगत संपत्ति से संबंधित जानकारी के प्रकटीकरण को अनिवार्य कर दिया था।
- वर्ष 2013 में, ‘लिली थॉमस बनाम भारत संघ’ मामले में उच्चतम न्यायालय ने जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) को असंवैधानिक रूप से खारिज कर दिया था, जिसने दोषी सांसदों को उच्च न्यायालय में अपील दायर करने, दोषसिद्धि और सजा पर रोक लगाने के लिये तीन माह की अवधि की अनुमति दी थी।
- वर्ष 2013 में, ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ’ मामले में, उच्चतम न्यायालय ने नकारात्मक मतदान को एक मतदाता के संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी।
- साथ ही, सरकार को ‘इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों’ में 'NOTA' विकल्प प्रदान करने का निर्देश दिया।
- वर्ष 2014 में, ‘पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन और अन्य बनाम भारत संघ’ मामले ने विधि आयोग की 244 वीं रिपोर्ट द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर, आदेश दिया था कि मौजूदा सांसदों और विधायकों के संबंध में उनके विरुद्ध आरोप तय होने के एक वर्ष के भीतर परीक्षण समाप्त कर दिया जाए।
- सूचना प्रकटीकरण पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय (लोक प्रहरी बनाम भारत संघ, 2018) चुनावी बॉण्ड की योजना सहित भारत के राजनीतिक दल के वित्त पोषण शासन में भविष्य के संवैधानिक हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त करता है।
आगे की राह
- सरकारी तंत्र को अधिक पारदर्शी, जवाबदेह और व्यापक बनाने के लिये उसके स्वरूप को बदलने की आवश्यकता है।
- मतदाताओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने और उन्हें सही व्यक्ति को वोट देने के प्रति जागरूक करना चाहिये।
- राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के प्रति राजनीतिक दलों की उदासीनता को देखते हुए, न्यायालय को हस्तक्षेप कर गंभीर आपराधिक आरोपियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगानी चाहिये।