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नए आपराधिक कानून और संभावित जटिलताएँ

संदर्भ

  • हाल ही में विधि एवं न्याय मंत्री ने राष्ट्रीय मुकदमा नीति की घोषणा की है, जिसका उद्देश्य “सरकार को एक कुशल और जिम्मेदार सरकार में बदलना” है और साथ ही उच्च कानूनी लागतों को कम करना तथा उन मामलों की संख्या को कम करना है जिनमें सरकार एक पक्ष है। 
  • गौतलब है कि 1 जुलाई, 2024 से तीन नए आपराधिक कानूनों- भारतीय न्याय संहिता, नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को लागू किया जाना है। उपरोक्त घटनाक्रम भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में एक महत्वपूर्ण बदलाव प्रस्तुत करते हैं, जो कानूनी परिदृश्य पर उनके प्रभाव, विशेष रूप से नागरिकों के अधिकारों और न्यायपालिका की दक्षता के बारे में सवाल उठाते हैं।

भारत में आपराधिक कानूनों का अनुपालन

  • आपराधिक कानून का प्राथमिक उद्देश्य स्थापित प्रक्रियाओं का अनुपालन करना है, क्योंकि इसमें व्यक्तियों को जीवन और स्वतंत्रता से वंचित करने की क्षमता है।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 इस बात पर जोर देता है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा जीवन और स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
  • परंपरागत रूप से, यह प्रक्रिया आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) द्वारा शासित होती रही है, जिसे अब नए कानून नागरिक सुरक्षा संहिता द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है।
  • भारतीय दंड संहिता (IPC), जो आपराधिक व्यवहार को परिभाषित करती है, को भी भारतीय न्याय संहिता के रूप में संशोधित किया गया है और नए अपराध शामिल किए गए हैं अथवा अपराध के मौजूदा परिभाषाओं में बदलाव किया गया है।

नए आपराधिक कानूनों के संभावित प्रभाव

बढ़ी हुई जटिलता और कानूनी अनिश्चितता

  • तीन नए आपराधिक कानूनों का एक साथ कार्यान्वयन, IPC, CrPC और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की लगभग हर धारा को संशोधित करना, कानून के सहज बनाने के लक्ष्य को जटिल बनाता है।
  • नए कानूनों को लागू करने के बाद, उसके साथ सहज होने की एक संक्रमण अवधि होती है जिसमें कानून प्रवर्तन के तमाम पक्षकार नए प्रावधानों के साथ परिचित होते हैं।
    • इस दौरान कानूनी विवादों में वृद्धि होने की संभावना है क्योंकि नए कानूनों की व्याख्याओं को अदालत में चुनौती दी जाएगी।
  • यह बढ़ी हुई जटिलता सीधे तौर पर सरकार सहित इसमें शामिल सभी पक्षों के लिए उच्च कानूनी लागत में तब्दील हो सकती है।

क़ानूनी पेशेवरों और न्यायपालिका पर अतिरिक्त बोझ

  • नई कानूनी रणनीतियों का मसौदा तैयार करने में कानूनी पेशेवरों के समय और संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा।
  • साथ ही, न्यायपालिका को भी मामलों में वृद्धि का सामना करना पड़ सकता है। 
    • पुराने और नए कानूनी ढाँचे की एक साथ मौजूदगी इस बात पर विवाद उत्पन्न कर सकती है कि कौन से कानून और प्रक्रियाएँ विशिष्ट मामलों पर लागू होती हैं।
  • यह द्वंद्व न केवल भ्रमित करता है बल्कि कानूनी प्रक्रिया को भी लंबा कर सकता है, जिससे पहले से ही बोझ से दबी न्यायपालिका पर और दबाव बढ़ सकता है।

बढ़ी हुई मुकदमेबाजी और केस बैकलॉग

  • राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार, भारतीय अदालतों में 83,000 से अधिक आपराधिक मामलें लंबित है।
  • संपूर्ण मूल्यांकन और तैयारी के बिना नए कानूनों की शुरूआत, इस बैकलॉग को अनुमानतः 30% तक बढ़ा सकती है।

अभियुक्त के लिए वित्तीय निहितार्थ

  • कानूनी प्रतिनिधित्व अधिक महंगा हो सकता है क्योंकि विधिक सलाहकार नए कानूनी ढांचे की बारीकियों को समझने और बहस करने में अतिरिक्त समय ले सकते हैं।
  • यह स्थिति निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के लोगों को असंगत रूप से प्रभावित कर सकती है, जिससे निष्पक्ष सुनवाई का उनका अधिकार प्रभावित हो सकता है।

सरकार के लिए अतिरिक्त कानूनी लागत

  • राज्य आपराधिक मामलों में प्राथमिक वादी होता है। इसलिए नए कानूनों के कारण बढ़ी हुई मुकदमेबाजी के लिए कानूनी प्रतिनिधित्व और अदालती कार्यवाही के लिए अधिक संसाधनों की आवश्यकता होगी।
  • यह परिदृश्य सरकारी कानूनी व्यय को कम करने के राष्ट्रीय मुकदमेबाजी नीति के लक्ष्य का खंडन करता है।

बुनियादी ढांचे का उन्नयन और संसाधन आवंटन

  • बढ़ते बोझ को संभालने के लिए न्यायपालिका के बुनियादी ढांचे में महत्वपूर्ण उन्नयन की आवश्यकता हो सकती है।
  • इसमें अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति, अदालती सुविधाओं का विस्तार और उन्नत केस प्रबंधन प्रणालियों को लागू करना शामिल है।

चिंता के कुछ अन्य क्षेत्र

  • आपराधिक न्याय की दोहरी प्रणाली : नए कानून, जो अपराधों को परिभाषित करते हैं, पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किए जा सकते हैं, जबकि प्रक्रियात्मक कानून हो सकते हैं, जब तक कि वे अभियुक्त पर प्रतिकूल प्रभाव न डालें। 
    • यह द्वंद्व संभावित रूप से विवादों को जन्म दे सकता है कि कौन सी प्रक्रियाएँ लागू होती हैं, जिससे और देरी होगी क्योंकि ये मुद्दे सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचेंगे।
    • इसप्रकार की अप्रत्याशित कानूनी अनिश्चितता नागरिकों के अधिकारों से समझौता करती है।
  • अदालत के पूर्ववर्ती फैसलों का अनादर : भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023, प्रत्येक संज्ञेय अपराध में तीन से सात साल की कैद की सजा का प्रावधान करती है।
    • यह ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2013) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खंडन करता है, जिसने ऐसी जांच को असाधारण मामलों तक सीमित कर दिया था।
    • इसके अलावा, राजद्रोह को परिभाषित करने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 124A पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक लगा दी गई है; हालांकि इसे और अधिक घातक रूप में पुनः प्रस्तुत करते हुए नए आपराधिक कानून में शामिल किया गया है।
  • दोहरे अभियोजन का जोखिम : नए कानूनों में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के कड़े प्रावधानों को शामिल करने से NIA और स्थानीय पुलिस जैसी विभिन्न एजेंसियों के तहत एक ही अपराध के लिए दोहरे अभियोजन की अनुमति मिलती है।
    • यह द्वंद्व कानूनी प्रणाली के भीतर जटिलता और दुरुपयोग की संभावना को बढ़ाता है। 

संभावित समाधान और सिफारिशें

  • ऑडिटिंग की विशेष आवश्यकता :  नए कानूनों के उपरोक्त प्रभावों को कम करने के लिए, उनके लागू होने से पहले एक व्यापक न्यायिक ऑडिट करना महत्वपूर्ण है।
  • मुकदमेबाजी में संभावित वृद्धि, आवश्यक ढांचागत उन्नयन और सरकार और निजी नागरिकों दोनों के लिए वित्तीय निहितार्थ का आकलन किया जाना चाहिए।
  • कानूनी पक्षकारों के प्रशिक्षण का प्रबंध : कानूनी पेशेवरों और न्यायपालिका सदस्यों के लिए चरणबद्ध कार्यान्वयन और व्यापक प्रशिक्षण संक्रमण को आसान बनाने में मदद कर सकता है।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39A के उचित क्रियान्वयन : कम आय वाले व्यक्तियों के लिए पर्याप्त समर्थन, संभवतः बढ़ी हुई कानूनी सहायता सेवाओं के माध्यम से, जो यह सुनिश्चित करेगा कि न्याय तक पहुंच से समझौता नहीं किया जाएगा।

निष्कर्ष

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, भारतीय न्याय संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के साथ राष्ट्रीय मुकदमेबाजी नीति की शुरूआत एक विरोधाभास प्रस्तुत करती है। अतः कानूनों के कार्यान्वयन से पहले उनके निहितार्थों का पूरी तरह से मूल्यांकन किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वे भारत के कानूनी परिदृश्य में सकारात्मक योगदान दें।

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