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देश में एकल मतदाता सूची की चर्चा का ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिये निहितार्थ

(प्रारम्भिक परीक्षा : राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : विभिन्न संवैधानिक निकायों की शक्तियाँ, कार्य और उत्तरदायित्त्व, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ)

पृष्ठभूमि

हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा निर्वाचन आयोग और विधि मंत्रालय के प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक आयोजित की गई, जिसका उद्देश्य पंचायत, नगरपालिका, राज्य विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिये भिन्न-भिन्न मतदाता सूची के स्थान पर एक ही मतदाता सूची से चुनाव कराने की सम्भावना पर चर्चा करना था। इसके बाद ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर पुनः चर्चा शुरु हो गई।

भारत में मतदाता सूचियाँ

  • कई राज्यों में पंचायत व नगरपालिका चुनावों के लिये प्रयोग की जाने वाली मतदाता सूची लोकसभा व विधानसभा चुनावों के लिये प्रयोग की जाने वाली मतदाता सूची से भिन्न होती है। इस अंतर का प्रमुख कारण भारत में चुनावों के पर्यवेक्षण और संचालन का कार्य दो संवैधानिक प्राधिकारियों- भारत निर्वाचन आयोग (EC) और राज्य चुनाव आयोगों (SECs) द्वारा किया जाता है।
  • वर्ष 1950 में गठित भारत निर्वाचन आयोग पर संसद और भारत के राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति कार्यालयों के साथ-साथ राज्य विधानसभाओं व विधान परिषदों के चुनाव की ज़िम्मेदारी होती है।
  • वहीं दूसरी ओर राज्य चुनाव आयोगों द्वारा नगरपालिका और पंचायत चुनावों की निगरानी की जाती है।
  • स्थानीय निकाय चुनावों के लिये राज्य चुनाव आयोग स्वयं की मतदाता सूची तैयार करने के लिये स्वतंत्र है। साथ ही इस कार्य के लिये भारत निर्वाचन आयोग के साथ समन्वय करने की भी आवश्यकता नहीं होती है।

क्या सभी राज्यों में स्थानीय निकाय चुनावों के लिये एक अलग मतदाता सूची है?

  • कुछ राज्य स्थानीय निकाय चुनावों के लिये भारत निर्वाचन आयोग की मतदाता सूची का पूरी तरह से उपयोग करने की अनुमति देते हैं, जबकि कुछ दूसरे ‘राज्य निर्वाचन आयोग’ नगरपालिका और पंचायत चुनावों के लिये मतदाता सूची को तैयार करने और उनमें संशोधन करने हेतु भारत निर्वाचन आयोग की मतदाता सूची का उपयोग एक आधार के रूप में करते हैं।
  • प्रत्येक ‘राज्य चुनाव आयोग’ अलग-अलग राज्य अधिनियमों द्वारा शासित होते हैं परंतु सभी राज्यों में स्थानीय निकाय चुनावों के लिये अलग मतदाता सूची ही हो ऐसा आवश्यक नहीं है।
  • वर्तमान में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा व केरल स्थानीय निकाय चुनावों के लिये राज्य चुनाव आयोग द्वारा तैयार किये गए मतदाता सूची का प्रयोग करते हैं। साथ ही कुछ पूर्वी राज्य असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड के साथ-साथ केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर भी स्थानीय निकाय चुनावों के लिये राज्य चुनाव आयोग द्वारा तैयार किये गए मतदाता सूची का प्रयोग करते हैं। इनको छोड़कर अन्य सभी राज्य स्थानीय निकाय चुनावों के लिये भारत निर्वाचन आयोग की मतदाता सूची का प्रयोग करते हैं।

देश में सभी चुनावों के लिये एकल मतदाता सूची के प्रस्ताव का कारण

  • देश के लिये एकल मतदाता सूची का प्रावधान वर्तमान सरकार द्वारा पिछले लोकसभा चुनाव के समय अपने घोषणा पत्र में किये गए वादों में से एक है। यह लोकसभा व राज्य विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने की सरकार की प्रतिबद्धता के साथ भी दृढ़ता से सम्बंधित है।
  • एकल मतदाता सूची तैयार करने से सूचियों में एकरूपता आने के साथ-साथ धन, श्रम और समय की बचत होगी। अलग-अलग मतदाता सूची को तैयार करना दो अलग-अलग एजेंसियों द्वारा एक ही कार्य का दोहराव मात्र है।
  • एकल मतदाता सूची की माँग नई नहीं है। विधि आयोग ने वर्ष 2015 में इसकी सिफारिश की थी। भारत निर्वाचन आयोग भी वर्ष 1999 और 2004 में इसी तरह की सिफारिश कर चुका है।
  • मतदाताओं में विभिन्न मतदाता सूचियों के कारण उत्पन्न भ्रम की स्थिति भी एकल मतदाता सूची से समाप्त हो जाएगी।

एकल मतदाता सूची के प्रावधान हेतु सरकार के पास विकल्प

  • पहला विकल्प अनुच्छेद 243K और 243ZA में संवैधानिक संशोधन है, जो राज्य चुनाव आयोगों को स्थानीय निकाय चुनावों के संचालन और मतदाता सूची तैयार करने का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण की शक्ति प्रदान करता है।
  • दूसरा विकल्प राज्य सरकारों को अपने सम्बंधित कानूनों को संशोधित करने और नगरपालिका तथा पंचायत चुनावों के लिये भारत चुनाव आयोग की मतदाता सूची को अपनाने के लिये सहमत करना है। एकल मतदाता सूची के विचार ने ‘वन नेशन’ वन इलेक्शन’ के प्रस्ताव पर चर्चा की पृष्ठभूमि पुनः तैयार कर दी है।

वन नेशन, वन इलेक्शन : इतिहास

  • वर्ष 1952 और 1957 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ सम्पन्न हुए। यह चक्र तब टूटा जब पहली बार जुलाई 1959 में केंद्र ने केरल में ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार के विरुद्ध अनुच्छेद 356 का प्रयोग किया।
  • इसके बाद फरवरी 1960 में केरल में चुनाव हुए। वर्ष 1967 तक कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ। दल बदल की बढ़ती घटनाओं के कारण राज्य सरकारें और विधानसभाएँ अस्थिर रहने लगी, जिससे कई राज्यों के चुनावों को लोकसभा चुनावों से अलग कराना पड़ा।

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के पक्ष में तर्क

  • पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने से खर्च में कमी आएगी और यह सभी चुनावों एक सीज़न तक सीमित हो जाएंगे। वर्तमान में कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं और बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण सरकार परियोजनाओं का कार्यान्वयन या नई नीतियों की घोषणा नहीं कर पाती है।
  • एक साथ चुनाव से आवश्यक सेवाओं के वितरण पर पड़ने वाले प्रभाव को कम किया जा सकेगा। साथ ही चुनाव के समय तैनात किये जाने वाले महत्त्वपूर्ण जनशक्ति पर बोझ को कम किया जा सकेगा।
  • हाल के वर्षों में विधानसभाएँ सामान्यतया अपना कार्यकाल पूरा कर रही हैं। इसका मुख्य कारण वर्ष 1985 का दल-बदल विरोधी कानून और अनुच्छेद 356 को लागू करने के सम्बंध में उच्चतम न्यायालय के फैसले हैं। न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति राज्य विधानसभा को निलम्बित कर सकते हैं परंतु संसद की सहमति के बिना इसे भंग नहीं कर सकते।
  • इसके अलावा राष्ट्रपति शासन की घोषणा की वैधता की जाँच न्यायपालिका द्वारा की जा सकती है। इन कारणों से लोकसभा और विधानसभा के चुनाव चक्र जल्द नहीं टूटेंगें।
  • वर्ष 1983 में चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव का सुझाव दिया था। मई 1999 में न्यायमूर्ति बी. पी..जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट ने लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था।

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के विपक्ष में तर्क

  • वृहद् स्तर पर सिर्फ एक चुनाव आयोजित करना भारत जैसे बड़े और जटिल देश के लिये बहुत कठिन होगा और इससे चुनावी भ्रष्टाचार में वृद्धि हो सकती है।
  • यदि सरकार विश्वास मत खो देती है तो चुनाव ही इसका एकमात्र वैध विकल्प है। साथ ही चुनावों में किसी भी दल को बहुमत न मिलने और वर्तमान प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के चुनाव हार जाने की स्थिति में भी पराजित प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे, जो संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध होगा।
  • लोग एक निश्चित समय के लिये प्रतिनिधियों का चुनाव करते है। साथ चुनाव कराने के लिये यदि किसी सदन की निर्धारित अवधि को बढ़ाया या घटाया जाएगा तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिये घातक सिद्ध होगा।
  • ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से एकात्मक प्रणाली, मज़बूत कार्यकारी और कमज़ोर विधानमंडल के साथ-साथ विविधता का आभाव और एकरूपता में वृद्धि होगी।
  • एक साथ चुनाव कराने से ‘इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन’ और ‘वोटर वेरिफ़िएबल पेपर ऑडिट’ (VVPAT) ट्रेल मशीनों की दोगुनी आवश्यकता होगी।
  • एक साथ चुनाव कराने से छोटे व क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी दल को अधिक फायदा होगा।
  • न्यायमूर्ति बी. एस. चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने कहा कि संविधान के मौजूदा ढाँचे के भीतर एक साथ चुनाव सम्भव नहीं हैं। इसके लिये संविधान, जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम 1951, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के संचालन प्रक्रिया नियम में संशोधन की आवश्यकता होगी।

आगे की राह

  • तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो संघीय व्यवस्था वाला कोई भी प्रमुख देश राष्ट्रीय स्तर और राज्य विधानसभाओं का चुनाव एक साथ नहीं कराते हैं। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी इसके उदाहरण हैं।
  • इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कभी भी अल्पमत में आ सकती हैं, जिससे एक साथ चुनाव का चक्र टूट सकता है।
  • एक कैलेंडर वर्ष में होने वाले सभी चुनावों को एक साथ आयोजित किया जा सकता है।
  • इसके अतिरिक्त विधि आयोग का एक सुझाव यह भी है कि ‘अविश्वास प्रस्ताव’ को ‘रचनात्मक अविश्वास प्रस्ताव’ द्वारा प्रतिस्थापित किया जाए और अविश्वास प्रस्ताव द्वारा सरकारों को तभी हटाया जाए जब किसी वैकल्पिक सरकार के गठन की सम्भावना हो।
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