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फेज़ डाउन तथा फेज़ आउट का मुद्दा एवं भारत

(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाओं से संबंधित प्रश्न)
(मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 भारत की ऊर्जा आवश्यकता तथा चुनौतियाँ एवं इससे संबंधित विषय)

संदर्भ

ग्लासगो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के अंतिम दिन भारत ने कोयले के उपयोग को ‘फेज़ आउट’ की बजाय ‘फेज़ डाउन’ का वादा किया। इस पर विभिन्न देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये भारत की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े किये हैं। इससे पूर्व कॉप-26 (कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज़) शिखर सम्मेलन में, प्रधानमंत्री ने वर्ष 2070 तक भारत को ‘कार्बन-तटस्थ’ बनाने के लिये प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

कोयले पर निर्भरता में कमी के निहितार्थ

  • कार्बन- उत्सर्जन को ग्लोबल- वार्मिंग का सबसे प्रमुख कारण माना जाता है, अत: विभिन्न देशों ने ‘कार्बन तटस्थता’ के लक्ष्य को हासिल करने हेतु अलग-अलग समय-सीमा निर्धारित की है।
  • कार्बन तटस्थता (Carbon Neutrality) की स्थिति को प्राप्त करने के लिये किसी देश को अपने कार्बन उत्सर्जन की भरपाई करनी होती है। इसके लिये कोई देश कोयले पर निर्भरता को कम करते हुए वातावरण से बराबर मात्रा में कार्बन अवशोषित करते हैं।
  • सभी जैव-ईंधनों में कोयला सबसे प्रदूषणकारी ईंधन है, अत: इसका उपयोग जाँच के दायरे में आ जाता है।

भारत के लिये चुनौती

  • भारत की लगभग 70% विद्युत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कोयले का उपयोग किया जाता है, जिसकी आपूर्ति घरेलू खदानों से की जाती है। भारत ने पिछले दशक के 431 मिलियन टन की तुलना में वित्त वर्ष 2020-21 में 716 मिलियन टन कोयले का उत्पादन किया।
  • वित्त वर्ष 2018-19 के बाद देश का घरेलू उत्पादन स्थिर हो गया जो बढ़ती घरेलू मांग को पूरा करने में असमर्थ रहा है, फलत: आयात में वृद्धि हुई है।
  • भारत में अधिकांश कोयला उत्पादन क्षेत्र छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड और मध्य प्रदेश तक सीमित है, जिसकी कुल उत्पादन क्षमता 550 मिलियन टन से अधिक है, यह देश के कुल कोयला उत्पादन का 75% है।
  • भारत ने वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक बढ़ाने, 50% ऊर्जा ज़रूरतों को अक्षय स्रोतों से पूरा करने और एक दशक में कार्बन उत्सर्जन को 1 बिलियन टन कम करने की प्रतिबद्धता दिखाई है।
  • ‘विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र’ के अनुमान के अनुसार,  कार्बन उत्सर्जन में 1 बिलियन टन की कमी करने के वादे का आशय है कि भारत को वर्ष 2030 तक अपने कार्बन उत्पादन को 22% तक कम करने की आवश्यकता होगी।
  • भारत वर्तमान में अपनी विद्युत आवश्यकताओं का लगभग 12% अक्षय ऊर्जा से प्राप्त करता है, वर्ष 2030 तक इसे बढ़ाकर  50 % करना एक चुनौती होगी।
  • सौर ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा का सस्ता स्रोत हैं परंतु यह ऊर्जा का विश्वसनीय स्रोत नहीं है। इसमें अनिरंतरता की समस्या बनी रहती है अर्थात् सौर्य ऊर्जा की उपलब्धता हमेशा एकसमान नहीं रहती, इसमें मौसम व स्थान के साथ परिवर्तन होता रहता है। अत: इनके उपयोग हेतु भंडारण बैटरियों की आवश्यकता होगी जिससे लागत में वृद्धि होती है।
  • कम आय तथा कम बचत वाले देशों के पास अक्षय ऊर्जा स्रोतों में निवेश के लिये आवश्यक पूंजी भी उपलब्ध नहीं होती। साथ ही, कोयले के उपयोग से होने वाली पर्यावरणीय- क्षति को भी कोयला उत्पादन की लागत में शामिल नहीं किया जाता।

फेज़ आउट का विकल्प तथा भारत

  • भारत ने अपने कार्बन उत्सर्जन पर प्रतिबंध लगाने हेतु विकसित देशों द्वारा किये गए प्रयासों का मज़बूती से सामना किया। भारत का पक्ष है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये कड़े कदम अपनाने से विकास में कमी आने के साथ-साथ गरीबी कम करने के प्रयासों पर भी असर पड़ सकता है।
  • भारत तथा चीन में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन अन्य विकसित देशों की तुलना में वर्तमान में भी कम ही है। वर्ष 2018 के विश्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार अमेरिका के प्रति व्यक्ति 15.2 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जन की तुलना में भारत ने प्रति व्यक्ति 1.8 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जन किया।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि कोयले के उपयोग को चरणबद्ध रूप से कम करने और कार्बन-तटस्थ बनने की भारत की प्रतिबद्धता वास्तव में विकसित देशों की प्रतिबद्धता से कहीं अधिक उदार हो सकती है।
  • आलोचकों का कहना है कि कोयले के उपयोग को समाप्त करने पर अधिक ध्यान अन्य जीवाश्म ईंधनों, जैसे- तेल और प्राकृतिक गैस से ध्यान हटाता है जो विकसित देशों द्वारा अधिक मात्रा में उपयोग किया जाता है।
  • आलोचकों का यह भी मानना है कि विकसित देशों ने कोपेनहेगन समझौते (COP-15) में किये गए वादे को भी नहीं निभाया है जिसके तहत विकसित देशों द्वारा ‘नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन’ के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु विकासशील देशों को प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर की पेशकश की जानी थी।

भविष्य की संभावनाएँ

  • चीन तथा भारत जैसे देशों में कोयला उनकी बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सबसे सस्ता तथा विश्वसनीय स्रोत है, ऐसे में बहुत कम संभावना है कि भारत और चीन जैसे विकासशील देश अपने कोयले की खपत को कम करेंगे या इसे और बढ़ने से रोकेंगे।
  • इसके अतिरिक्त, कॉप-26 में देशों द्वारा ‘नेट ज़ीरो उत्सर्जन’ तक पहुँचने या कोयले के उपयोग को चरणबद्ध रूप से कम करने हेतु किये गए वादे कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं। साथ ही, इन जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने की लक्ष्य तिथियाँ भी भविष्य में इतनी दूर हैं कि जिन राष्ट्रीय प्रमुखों ने इसके लिये प्रतिबद्धता जताई है, वे समय सीमा आने पर जवाबदेहिता के केंद्र में नहीं होंगे।
  • भारत के ऊर्जा क्षेत्र में संरचनात्मक बाधाएँ विद्यमान हैं जो इसके स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण को कठिन बना देती हैं। साथ ही, भारत में बिजली की कीमतें लोक- लुभावन राजनीति से प्रभावित होती हैं, जिससे इस क्षेत्र में निजी निवेश हतोत्साहित होता है।

निष्कर्ष

कुछ राष्ट्रीय प्रमुखों द्वारा कार्बन-कर का सुझाव दिया गया है जो पर्यावरणीय क्षति को कोयले की लागत के रूप में दर्शाता है। यह कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण हेतु एक प्रभावी कदम सिद्ध हो सकता है। परंतु इसे भी तार्किक रूप से लागू किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि कार्बन कर की उच्च दर कोयले के उत्पादन में भारी गिरावट का कारण बन सकती है। साथ ही, यह जीवन स्तर को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।

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