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ग्रहीय दबाव-समायोजित मानव विकास सूचकांक

संदर्भ

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित ‘मानव विकास रिपोर्ट, 2020’ में राष्ट्रों की रैंकिंग दर्शाने के लिये ‘ग्रहीय दबाव’ को एक मानदंड के रूप में शामिल करने पर चर्चा की गई थी। अतः इस आधार पर ‘ग्रहीय दबाव-समायोजित मानव विकास सूचकांक’ (Planetary Pressure-adjusted Human Development Index: PHDI) जारी करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था। 

पृष्ठभूमि

  • संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा महबूब उल हक और अमर्त्य सेन के विज़न से प्रेरित होकर ‘असमानता-समायोजित’ एच.डी.आई. की गणना की शुरुआत की गई। 
  • इसके अलावा, नीति निर्माताओं का ध्यान आकर्षित करने वाले मुद्दों को चिह्नित करने के लिये कई अन्य सूचकांकों, जैसे- लिंग विकास सूचकांक, लिंग असमानता सूचकांक एवं बहुआयामी गरीबी सूचकांक की गणना की गई।

ग्रहीय दबाव-समायोजित मानव विकास सूचकांक

  • पी.एच.डी.आई. के माध्यम से मानव विकास में ग्रह अर्थात् पृथ्वी पर पड़ने वाले मानव जनित दबावों का आकलन किया जाता है। 
  • यह राष्ट्र के प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन और प्रति व्यक्ति ‘सामग्री-पदचिह्न’ (Material Footprints) स्तर के आधार पर एच.डी.आई.को समायोजित करता है।

सामग्री-पदचिह्न किसी देश के घरेलू खपत के स्तर को संतुष्ट करने के लिये उपयोग किये जाने वाले कच्चे माल की कुल मात्रा को प्रदर्शित करता है। कुल सामग्री-पदचिह्न बायोमास, जीवाश्म ईंधन, धातु अयस्कों और गैर-धातु अयस्कों के लिये सामग्री-पदचिह्नों का योग है।

  • एक आदर्श परिदृश्य में, जहाँ ग्रह पर कोई दबाव नहीं है, पी.एच.डी.आई. व एच.डी.आई. एकसमान होंगे, किंतु जैसे-जैसे दबाव बढ़ता है, पी.एच.डी.आई., एच.डी.आई. से कम होता चला जाता है। 

पी.एच.डी.आई. की आवश्यकता

  • वर्तमान में पर्यावरण, मानव विकास के मापन का एक आवश्यक बन गया है। वैश्विक और स्थानीय दोनों ही साक्ष्य प्रदर्शित करते हैं कि जैव विविधता ह्रास, जलवायु परिवर्तन, भूमि-उपयोग में परिवर्तन, जैव-भू-रासायनिक चक्रों का विघटन और मीठे जल या पेयजल की उपलब्धता में कमी वर्तमान की प्रमुख समस्याएँ हैं। 
  • पी.एच.डी.आई.का उद्देश्य आधुनिक समाज को संसाधनों के उपयोग एवं पर्यावरण प्रबंधन में मौजूदा प्रथाओं को जारी रखने में शामिल जोखिमों और प्रभावों से अवगत कराना है।
  • विदित है कि वर्ष 2009 में स्टॉकहोम रेज़िलिएंस सेंटर के वैज्ञानिक जे. रॉकस्ट्रॉम के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक समूह ने ग्रहीय सीमा की अवधारणा प्रस्तुत की थी।

पी.एच.डी.आई. का राष्ट्रों की रैंकिंग पर प्रभाव

  • ग्रहीय दबाव को समायोजित करने के पश्चात् वर्ष 2019 में एच.डी.आई. का वैश्विक औसत 0.737 से घटकर 0.683 हो गया।
  • उच्च मानव विकास वाले देशों में स्विट्ज़रलैंड ही एकमात्र ऐसा देश है, जिसकी वैश्विक रैंक ग्रहीय दबाव के समायोजन के साथ नहीं बदली है। हालाँकि, आवश्यक समायोजन के बाद इसका एच.डी.आई. मूल्य 0.955 से घटकर 0.825 हो गया।
  • वहीं, अति उच्च मानव विकास वाले 66 देशों में लगभग 30 देशों की रैंकिंग में गिरावट दर्ज की गई। इसमें जर्मनी और मॉन्टेनेग्रो की रैंकिंग में 1 जबकि लक्ज़मबर्ग की रैंकिंग में 131 स्थानों की गिरावट आई है। 
  • यह रैंकिंग विकसित देशों द्वारा उत्पन्न ग्रहीय दबाव की प्रकृति के साथ अप्रत्यक्ष रूप से स्थिति से निपटने में उनके उत्तरदायित्व को इंगित करती है।
  • भारत के संदर्भ में औसत 2.0 टन प्रति व्यक्ति कॉर्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन और 4.6 टन ‘सामग्री पदचिह्न’ (Material Footprints) के साथ 0.645 के एच.डी.आई. मूल्य की तुलना में उसका पी.एच.डी.आई. मूल्य 0.626 है।
  • भारत ने वैश्विक रैंकिंग में आठ अंकों की बढ़त के साथ एच.डी.आई. में 131वीं और पी.एच.डी.आई.में 123 वीं रैंक हासिल की।

भारत की चुनौतियाँ

भारत पर्यावरण के संदर्भ में निम्नलिखित चुनौतियों का सामना कर रहा है :

  • संसाधनों का अत्यधिक दोहन- प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ पर्यावरणीय समस्याएँ बढ़ रही हैं। भारत में आम नागरिकों और सरकार में पर्यावरणीय चिंता का अभाव देखा जाता है। 
  • गरीबी बनाम पर्यावरण संरक्षण- देश में बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अंतर्गत लगभग 27.9% लोग शामिल हैं और उनमें से एक बड़ा वर्ग अपनी आजीविका के लिये प्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है।   
  • उपेक्षित विषय- मानव पर्यावरण पर वर्ष 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन में प्रस्तुत गरीबी उन्मूलन एवं पर्यावरण सुरक्षा की दोहरी चुनौतियाँ अभी भी उपेक्षित बनी हुई हैं।
  • गरीबी उपशमन और पर्यावरण सुरक्षा- गरीबी उन्मूलन और पर्यावरण सुरक्षा की दोहरी चुनौतियाँ, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वर्ष 1972 में मानव पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन के दौरान अपने व्याख्यान में व्यक्त किया था, अभी भी अनुत्तरित हैं।
  • आवश्यक कार्रवाईयों का अभाव- उत्तराखंड में ‘चिपको आंदोलन’ और केरल में ‘साइलेंट वैली आंदोलन’ भारत के प्रसिद्ध पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों में से एक हैं, किंतु वर्तमान में आगे बढ़ने के लिये पर्यावरणीय सुरक्षा से जुड़ी ये पहलें पर्याप्त नहीं हैं। अतः पर्यावरण क्षति को रोकने के लिये सरकार द्वारा आवश्यक कार्रवाइयों को अपनाने की आवश्यकता है।
  • सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याओं का समन्वय- सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याओं को अब अलग-अलग संबोधित नहीं किया जा सकता है। इसके लिये एक एकीकृत दृष्टिकोण आवश्यक है। इसका समाधान स्थानीय स्तर पर किया जा सकता है।

निष्कर्ष

  • यह स्पष्ट है कि सामाजिक और पृथ्वी की क्रियाएँ एक-दूसरे से संबंधित हैं और इनका संबंध अरेखीय एवं द्वंद्वात्मक है। सामाजिक और आर्थिक प्रणालियों सहित मानव विकास को पारिस्थितिकी तंत्र में शामिल करना एक बहुत बड़ी चुनौती है। 
  • अतः जनसामान्य को केंद्र में रखते हुए प्रकृति-आधारित समाधानों के साथ-साथ व्यवस्थित दृष्टिकोण के द्वारा बेहतर पारिस्थितिक तंत्र विकसित किया जाना चाहिये।
  • पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिये उचित व ठोस राजनीतिक निर्णयों के माध्यम से विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण, उचित संस्थागत व्यवस्था और नियोजन प्रक्रिया के पुनर्विन्यास की आवश्यकता है।
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