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दिव्यांगजनों के अधिकार एवं समक्ष चुनौतियां

(प्रारंभिक परीक्षा: सामाजिक एवं आर्थिक विकास)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय)

संदर्भ

दिव्यांग व्यक्तियों के अपमानजनक चित्रण वाली फिल्म 'आंख मिचौली' पर प्रतिबंध लगाने की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने फिल्मों एवं वृत्तचित्रों सहित दृश्य मीडिया में दिव्यांग व्यक्तियों (PwDs) के प्रति रूढ़िबद्धता व भेदभाव को रोकने के लिए व्यापक दिशा-निर्देश निर्धारित किए।

भारत में दिव्यांगजनों की स्थिति

  • दिव्यांगों की संख्या : वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में दिव्यांगजनों की कुल संख्या 2.68 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 2.21% है। 
    • दिव्यांगजनों की कुल संख्या में से 55% से अधिक पुरुष दिव्यांग हैं। 
  • अधिवास एवं शिक्षा : ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक (69.45%) है जबकि देश की 45% दिव्यांग आबादी अशिक्षित है। 
    • शिक्षित दिव्यांग आबादी में मात्र 59% 10वीं पास हैं।
  • सशक्तिकरण : सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग भारत में दिव्यांग व्यक्तियों को सशक्त बनाने के लिये कार्य करता है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय 

  • सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के अनुसार, दृश्य मीडिया एवं फिल्मों में दिव्यांग व्यक्तियों को लेकर रूढ़िवादिता समाप्त करने के साथ रचनाकारों को उन पर कटाक्ष करने (Lampoon) की बजाए दिव्यांगता का सही चित्रण करना चाहिए। 
  • न्यायालय के अनुसार, अनुच्छेद 19(1)(ए) के अंतर्गत किसी फिल्म निर्माता की रचनात्मक स्वतंत्रता में ‘पहले से ही हाशिए पर स्थित व्यक्तियों का मजाक उड़ाने, रूढ़िवादी दृष्टिकोण अपनाने, गलत तरीके से प्रस्तुत करने या उनका अपमान करने की स्वतंत्रता शामिल नहीं हो सकती है’।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देश

  • ये दिशा-निर्देश दिव्यांगों की गरिमा व पहचान पर दृश्य मीडिया एवं फिल्मों के गहन प्रभाव को पहचानते हुए कलंक तथा भेदभाव की रोकथाम पर केंद्रित है। 
  • दिशा-निर्देशों में संस्थागत भेदभाव को बढ़ावा देने वाले शब्दों, जैसे- अपंग (Cripple) एवं अस्थिभंग (Spastic) के प्रयोग से बचने का आह्वान किया गया है क्योंकि ये नकारात्मक आत्म-धारणा को बढ़ावा देते हैं और भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण को जारी रखते हैं। 
  • इसके अनुसार, दिव्यांगता या हीनता को व्यक्तिगत एवं विशिष्ट रूप से प्रदर्शित करने वाले और सामाजिक बाधाओं को अनदेखा करने वाले शब्दों, जैसे- पीड़ित या व्यथित (Afflicted, Suffering या Victim) से बचना चाहिए। 
  • न्यायालय ने रचनाकारों से ‘हमारे बारे में कुछ भी हमारे बिना नहीं’ (Nothing About Us, Without Us) के सिद्धांत का पालन करने और दृश्य मीडिया सामग्री के निर्माण एवं मूल्यांकन में दिव्यांग व्यक्तियों को शामिल करने के लिए भी कहा है।
    • निर्माताओं को रतौंधी जैसी विकलांगता के बारे में पर्याप्त चिकित्सा जानकारी की आवश्यकता है क्योंकि इससे भेदभाव में वृद्धि हो सकती है और यह मिथकों पर आधारित नहीं होना चाहिए।  
  • दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिए उनके अधिकारों के लिए कार्य करने वाले समूहों के साथ परामर्श के बाद फिल्मों में चित्रित किया जान चाहिए। 

इसे भी जानिए!

‘हमारे बारे में कुछ भी हमारे बिना नहीं’ वाक्य भागीदारी के सिद्धांत पर आधारित है और दिव्यांग व्यक्तियों के संगठनों द्वारा वर्षों से दिव्यांगजनों के लिए, उनके द्वारा और उनके साथ अवसरों की पूर्ण भागीदारी एवं समानता प्राप्त करने के वैश्विक आंदोलन के भाग के रूप में इसका उपयोग किया जाता रहा है।

नए दिशा निर्देशों का प्रभाव 

  • उद्योग जगत एवं दिव्यांगता अधिकार कार्यकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत किया है। वे इसे दिव्यांगता के बारे में सोच में परिवर्तन की दिशा में महत्वपूर्ण मानते हैं। 
  • इससे फिल्म निर्माताओं को इस विषय को अधिक संवेदनशीलता व जिम्मेदारी के साथ प्रस्तुत करने की प्रेरणा मिलेगी। साथ ही, फ़िल्मी कहानियों में दिव्यांग व्यक्तियों की विविध वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करना भी सुनिश्चित होगा।
  • यह निर्णय दिव्यांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम, 2016 के व्यापक लक्ष्यों के अनुरूप भी है, जिसका उद्देश्य जीवन के सभी क्षेत्रों में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों व सम्मान की रक्षा करना तथा उन्हें बढ़ावा देना है।

दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार 

संवैधानिक अधिकार 

  • संविधान में सभी व्यक्तियों के लिए स्वतंत्रता, समानता, गरिमा एवं न्याय सुनिश्चित करने का अधिदेश है, जोकि सभी के लिए, विशेष रूप से वंचितों के लिए, एक समावेशी समाज का सूचक है। 
  • जैसे : अनुच्छेद 14, 15, 16, 21 के अंतर्गत प्राप्त मूल अधिकार इत्यादि।
  • अनुच्छेद 41 विशेष रूप से दिव्यांग व्यक्तियों के संबंध में प्रासंगिक है।
    • इसके अनुसार, राज्य अपनी आर्थिक क्षमता एवं विकास की सीमाओं के भीतर रहकर बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी व दिव्यांगता की स्थितियों में सार्वजनिक सहायता, शिक्षा और कार्य के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी उपबंध करेगा।
  • ‘बेरोजगार और दिव्यांगो के लिए राहत’ संबंधी विषय संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्य सूची का विषय है।

वैधानिक अधिकार 

  • दिव्यांग व्यक्ति अधिकार (RPWD) अधिनियम, 2016 : यह दिव्यांगता अधिकारों से व्यापक रूप से निपटने वाला कानून है, जो 19 अप्रैल, 2017 से लागू हुआ। 
    • इस अधिनियम ने दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकार संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 का स्थान लिया।
  • राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम (1999) : यह आटिज्म, पक्षाघात, मानसिक मंदता एवं बहुल दिव्यांगताओं वाले व्यक्तियों के कल्याण के लिए अहि।
  • भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम (1992) : इसमें भारतीय पुनर्वास परिषद के गठन का प्रावधान है।
  • मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम (2017): यह मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल एवं उपचार के मामलों से संबंधित है।
  • वैधानिक सेवा प्राधिकार अधिनियम (1987) : यह दिव्यांग व्यक्तियों के लिए नि:शुल्क क़ानूनी सहायता के लिए अहि।

संयुक्त राष्ट्र दिव्यांग व्यक्ति अधिकार अभिसमय (UN Convention on the Rights of Persons with Disabilities : UNCRPD)

  • संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इसके मसौदे को 13 दिसंबर, 2006 को स्वीकार किया।
  • 20 पक्षों द्वारा इसकी पुष्टि के बाद 3 मई, 2008 को यह अभिसमय प्रवृत हो गया। वर्तमान में 177 देशों ने इसकी पुष्टि की है।
  • नि:शक्त जनों के अधिकारों का संवर्धन-संरक्षण, उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार, आवास एवं पुनर्वास, राजनीतिक जीवन में सहभागिता और समानता तथा भेदभाव रहित व्यवहार जैसे कई महत्त्वपूर्ण बिंदु इस अभिसमय में शामिल हैं।

दिव्यांगजनों के समक्ष चुनौतियां

  • दुर्गम अवसंरचना : व्हीलचेयर के लिए अनुपयुक्त संकीर्ण द्वार, बिना रैंप या लिफ्ट वाली सीढ़ियां, दुर्गम शौचालय या ऊंची दहलीज।
  • तकनीक का अभाव : ब्रेल पाठ्यपुस्तकों, स्क्रीन रीडर, सांकेतिक भाषा के लिए दुभाषिया (Sign Language Interpreter) या कैप्शनिंग सेवा जैसी सहायक उपकरणों या प्रौद्योगिकियों का अभाव।
  • सामाजिक अलगाव : दिव्यांग छात्रों को सामान्य छात्रों की तुलना में अधिक सामाजिक अलगाव का सामना करना पड़ता है। शारीरिक बाधाओं, संचार कठिनाइयों एवं सामाजिक दृष्टिकोणों के संयोजन से यह सामाजिक अलगाव उत्पन्न हो सकता है।
  • संचार संबंधी चुनौतियाँ : वाक् या श्रवण अक्षमता वाले छात्रों को संवाद करने में अधिक चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
    • ऑटिज़्म या अन्य न्यूरोडाइवरजेंट स्थितियों वाले बच्चे सामाजिक संकेतों के मामले में संघर्ष करना पड़ सकता है, जिससे उनके लिए साथियों से संवाद करना अधिक कठिन हो जाता है।
  • सामाजिक कलंक एवं गलतफहमी : प्रायः सामान्य व्यक्ति विकासात्मक दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के साथ व्यवहार एवं बातचीत के तरीके को लेकर अनभिज्ञ होते हैं या उनके मन में पूर्वाग्रह या गलत धारणाएं हो सकती हैं।
  • सीमित प्रतिनिधित्व : मीडिया एवं साहित्य में प्रतिनिधित्व की कमी से उन्हें समझे न जाने या पहचान के आभाव की भावना उत्पन्न पैदा हो सकती है, जिससे दिव्यांग छात्र और भी अलग-थलग पड़ सकते हैं।
  • व्यवहारिक एवं भावनात्मक चुनौतियाँ : यह चुनौतियाँ प्राय: शारीरिक, बौद्धिक या विकासात्मक दिव्यांगताओं के साथ संयुक्त होती हैं।
  • दिव्यांग छात्रों के लिए आवास की कमी : कई विकलांग छात्रों के लिए आवास जैसी आवश्यक सुविधाएँ नहीं मिलती हैं।

आगे की राह 

  • आपातकालीन एवं संरचनात्मक योजनाओं व जलवायु-संबंधी नीतियों में दिव्यांगजनों की ज़रूरतों को शामिल किया जाना चाहिए।
  • जिन परिवारों में कोई दिव्यांग है, उनके लिए संबंधित जानकारी और सरकारी योजनाओं की जागरूकता को अधिक बेहतर बनाना होगा।
  • खेल के मैदानों, सार्वजनिक संरचना, विद्यालय इत्यादि को दिव्यांगजनों के लिए अधिक सुलभ बनाए जाने की आवश्यकता है।
  • निजी क्षेत्र एवं व्यवसायों को दिव्यांगजनों की ज़रूरतों को समझने और उनके लिए सुधार लाने में मदद करनी चाहिए।
  • सरकार को दिव्यांगजनों के लिए सरकारी नीतियों एवं सेवाओं की प्रभावकारिता का मापन करना चाहिए और उसके अनुसार आगे के कदम उठाने चाहिए।
  • भविष्य में दिव्यांग लोगों के समक्ष आने वाले मुद्दों पर शोध की आव
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