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भारत के लिये दोहा समझौते के सुरक्षा निहितार्थ

(प्रारंभिक परीक्षा: राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सामयिक घटनाएं; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2: विषय - द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार।)
(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र:3 विषय- आंतरिक सुरक्षा के लिये चुनौती उत्पन्न करने वाले शासन विरोधी तत्वों की भूमिका। सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा चुनौतियाँ एवं उनका प्रबंधन- संगठित अपराध और आतंकवाद के बीच सम्बंध।)

सन्दर्भ

हाल के दिनों में, आतंकवादी हमलों की कुछ दुर्भाग्यपूर्ण खबरें सुर्ख़ियों में रहीं। आतंकवादी संगठनों द्वारा उत्पन्न किये गए खतरे को नज़रंदाज़ करना बहुत बड़ी भूल साबित होगी, विशेषकर जब हम दोहा समझौते और इसकी पृष्ठभूमि की बात करते हैं। ध्यातव्य है कि दोहा समझौता  फरवरी, 2020 में अफगानी इस्लामी अमीरात (तालिबान शासन, जिसे अमेरिका ने अभी तक मान्यता नहीं दी थी) तथा अमेरिका के बीच  सम्पन्न  हुआ था।

आतंकी संगठनों के लिये कम होता समर्थन:

  • तालिबान, अल-कायदा, इस्लामिक स्टेट, लश्कर-ए-तैयबा (LeT) और जैश-ए-मोहम्मद (JeM) जैसे आतंकवादी संगठन कोविड-19 महामारी के दौरान निष्क्रिय ही रहे हैं।
  • यहाँ आंशिक रूप से इस तथ्य से समझा जा सकता है कि खुले तौर पर आतंकी हमले कम हुए हैं, सम्भवतः क्योंकि:
    • आतंकी संगठनों के पास संसाधनों की कमी है।
    • गैर-इस्लामी देशों और सहिष्णु मुसलमानों के विरुद्ध कार्य कर रहे संगठनों व देशों द्वारा इन आतंकी संगठनों को प्राप्त होने वाला समर्थन कम हो गया है।
  • हालाँकि, भारत व उसके पड़ोस में इन आतंकी संगठनों की छुटपुट गतिविधियाँ अभी भी जारी हैं एवं वे भारत की सुरक्षा पर गम्भीर खतरा बने हुए हैं ।

सम्भावित खतरे

  • ये आतंकवादी संगठन भारत में गुमराह युवाओं के लिये आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं और इन युवाओं की वफादारी इनके प्रति बहुत अधिक है।
  • यद्यपि ऐसे युवाओं की संख्या बहुत अधिक नहीं है तथापि वे एक लहर प्रभाव (Ripple effect) पैदा कर सकते हैं, जिसे कम करके नहीं आंका जा सकता है, क्योंकि यह धीरे धीरे बड़ी संख्या में युवाओं को संगठन में शामिल  होने के लिये प्रेरित कर सकता है।
  • सुरक्षा विशेषज्ञों का ऐसा अनुमान है कि आतंकवादी सेल भारत और पड़ोस के अन्य देशों पर भविष्य में घातक हमले करने के लिये संसाधनों को इकट्ठा करने की प्रक्रिया में शांति से लगे हुए हैं।
  • ऐसी सम्भावना है कि एक बार महामारी रुकने के बाद, आतंक का पुनरुत्थान देखा जा सकता है।
  • कोविड-19 के कारण विकासशील देशों में गरीबी का बढ़ना आतंकी संगठनों में युवाओं की भर्ती के लिये एक प्रमुख कारण हो सकता है।
  • वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट महामारी की वजह से आ रही अड़चनों के बावजूद लगातार अपनी सेनाओं में भर्तियाँ कर रहे हैं।
  • इन दो संगठनों की प्रभावशाली वैश्विक पहुँच के कारण, इनका भर्ती करना भविष्य में बड़े हमलों का संकेत हो सकता है।

दोहा समझौते के निहितार्थ क्या हैं?

  • इस समझौते से तालिबान और अमेरिका के मध्य बेहतर सम्बंध स्थापित होने की राह आसान हुई है।
  • अफगानिस्तान में शांति बनाए रखने के तालिबान के वादे के बदले में अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों की वापसी को अपनी सहमति प्रदान की है।
  • तालिबान और अल-कायदा को कई क्षेत्रों में एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है।
  • दोनों का पाकिस्तान के प्रति रवैया दोस्ताना है और निकट भविष्य में ये दोनों सगठन भारत के लिये एक बड़ी समस्या पैदा कर सकते हैं।
  • राष्ट्रीय जाँच एजेंसी द्वारा हाल ही में कई डाले गए छापे, भारत में एक सम्भावित अल-कायदा नेटवर्क की ओर इशारा करते हैं।
  • ऐसा माना जा रहा है कि एक बार स्थिति बेहतर हो जाने के बाद अल-कायदा, पाकिस्तान और उसके आसपास अन्य आक्रामक इस्लामी संगठनों के साथ मिलकर भारत पर अपने हमले या आतंकी गतिविधियाँ  तेज़ कर सकता है।
  • यह एक मुख्य कारक है जो अल-कायदा और अन्य आतंकी संगठनों को भारत की सुरक्षा के लिहाज़ से अभी भी प्रासंगिक बनाता है।

निष्कर्ष

बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य से भारत के लिये उत्पन्न खतरा आने वाले दिनों में और अधिक बढ़ेगा और इसलिये भारत को चुनौती से निपटने के लिये स्वयं को तैयार करना चाहिये।

प्री फैक्ट्स:

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दोहा समझौता-

  • यह समझौता ‘अफगानी इस्लामी अमीरात (Islamic emirate of Afganistaan)’ ( तालिबान शासन, जिसे अमेरिका ने अभी तक मान्यता नहीं दी थी) तथा अमेरिका के बीच हुआ था।
  • तालिबान की तरफ से वहां राजनैतिक प्रमुख मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर तथा अमेरिका की ओर से वार्ताकार ज़ाल्मे ख़लीलजाद ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे।
  • इस समझौते के बाद 18 वर्ष पुराने अफगानिस्तानी युद्ध के समाप्त होने की सम्भावना है। ध्यातव्य है कि वियतनाम के बाद यह अमेरिकी सैन्य इतिहास का दूसरा सबसे लम्बा सशस्त्र संघर्ष था। इस दौरान अमेरिका ने लड़ाई पर न केवल एक ट्रिलियन डॉलर खर्च किए, बल्कि 2500 अमेरिकी सैनिकों और कई हज़ार अफगान सैनिकों व नागरिकों ने अपनी जान भी गंवाई है।
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