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अधिनायकवादी राजनीति का उदय और बढ़ती असमानता

संदर्भ 

वर्तमान में राष्ट्रवाद तथा अधिनायकवाद के बढ़ते प्रभावों ने वैश्विक स्तर पर ‘लोकतंत्र’ के समक्ष संकट उत्पन्न कर दिया है। इससे अमेरिका, भारत, यूनाइटेड किंगडम के साथ-साथ यूरोपीय संघ के लोकतांत्रिक देश भी अछूते नहीं हैं।

पृष्ठभूमि 

  • वर्तमान में वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं का प्रदर्शन गुणवत्तापूर्ण नहीं रहा है। आर्थिक विकास के लाभ केवल उच्च वर्ग के 1% लोगों तक ही केंद्रित हैं और निचले तबके के लोगों के लिये 'ट्रिकल डाउन' कम हो गया है।
  • यह देखा गया है कि प्रत्येक वैश्विक संकट के साथ, चाहे वह वर्ष 2007-08 का वित्तीय संकट हो या कोविड-19 का संकट, उच्च वर्ग और धनवान हुआ तथा निचले तबके के लाखों लोगों की गरीबी के स्तर में वृद्धि हुई है।
  • उच्च और निम्न वर्ग के मध्य संपदा में निरंतर बढ़ती असमानताओं के कारण भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक बनता जा रहा है।

आर्थिक उदारीकरण : राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव 

  • आर्थिक उदारीकरण के समर्थकों को यह ज्ञात होना चाहिये कि उनके विचार संकीर्ण अर्थव्यवस्था वाले समाजों और अधिनायकवादी शासनों को बढ़ावा दे रहे हैं। 
  • सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक असमानताएँ परस्पर अंतर्संबंधित हैं। आर्थिक उदारीकरण ने आर्थिक असमानता और असतत विकास को जन्म दिया। आर्थिक असमानताओं के परिणामस्वरूप ‘अधिनायकवाद’, ‘राष्ट्रवाद’ और ‘पहचान की राजनीति’ (Identity Politics) का उदय हो रहा है। 
  • इसका राजनीतिक प्रभाव यह है कि इससे पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र का ढाँचा कमजोर हुआ है। 
  • आर्थिक उदारीकरण के बीते 30 वर्षों में मुक्त व्यापार की नीति भारत की आर्थिक प्रणाली का प्रमुख केंद्र बन चुकी है। उच्च वर्ग की आय एवं संपत्ति पर निर्धारित करों में भी कमी की गई है। इसके पीछे तर्क यह है कि ‘आय और संपदा के सृजनकर्ताओं’ को किसी भी रूप में हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिये। अन्यथा, अर्थव्यवस्था का ग्राफ में बढ़ोतरी नहीं होगी और इसके फलस्वरूप उद्योगों से प्राप्त लाभों का उचित बँटवारा निचले तबके के लोगों में नहीं हो पाएगा। 
  • इसे समझने के लिये अमेरिका के आर्थिक ढाँचे पर गौर करना होगा। वर्ष 1970 के दशक तक उच्च कर प्रणाली के द्वारा अमेरिका और यूरोप के कई देशों ने अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के बुनियादी ढाँचे के साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों का विकास किया। उच्च वर्ग पर अब पहले की तुलना में बहुत कम कर लगाया जा रहा है। जिसके कारण अर्थव्यवस्था के आकार में तो वृद्धि हुई है परंतु उसका अधिकांश हिस्सा उच्च वर्ग तक ही सीमित है।

निजीकरण : आलोचनात्मक मूल्यांकन 

  • 21वीं सदी की शुरुआत से ही प्रत्येक क्षेत्रों का 'निजीकरण' अर्थशास्त्र में एक और वैचारिक अनिवार्यता बन गया है। 
  • सार्वजनिक सेवा की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिये संसाधनों का अभाव सरकारों के समक्ष मुख्य बाधा रहा है। इसके लिये निजीकरण को लागू किये जाने पर जोर दिया गया। 
  • निजीकरण को लागू किये जाने के पीछे यह तर्क दिया गया कि सार्वजनिक उद्यमों को बेचने से राजकोष की कमी वाली सरकारों के लिये आसानी से संसाधन उपलब्ध हो जाते हैं। 
  • समता के नैतिक प्रश्नों को यदि अलग कर दिया जाए तो निजीकरण के पक्ष में यह भी एक तर्क है कि इसमें  सेवाओं का वितरण सुगम हुआ है।
  • लेकिन निजीकरण का आलोचनात्मक पहलू यह है कि इसमें उच्च वर्ग सरलतापूर्वक स्वयं की आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। उनके समक्ष अवसरों की अधिक पहुँच होती है। वहीं निचले तबके के लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूलभूत आवश्यकताओं तक पहुँच कमजोर हो जाती है।
  • इस प्रकार, उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के मध्य असमानता का दायरा और बढ़ जाता है।

संपत्ति का अधिकार बनाम मानवाधिकार

  • प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने अपनी पुस्तक ‘कैपिटल एंड आइडियोलॉजी’ में पिछली तीन सदियों में विकसित हुए ‘मानवाधिकारों’ और ‘संपत्ति’ के अधिकारों के बीच द्वंद्वों को रेखांकित किया है।
  • उन्होंने यह उल्लेख किया है कि पूंजीवादी समाजों का यह आदर्श होता है कि जिसकी आर्थिक हिस्सेदारी अधिक है, उसे अर्थव्यस्था के शासन-प्रशासन में भी अधिक से अधिक अधिकार होना चाहिये।
  • इसके विपरीत, सच्चे लोकतांत्रिक समाजों में मानवाधिकारों को प्राथमिकता होनी चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह उच्च वर्ग हो या निम्न वर्ग, उसे अर्थव्यवस्था के मानकों को निर्धारित करने का समान अधिकार होना चाहिये।

निजी संपत्ति : साम्यवाद बनाम पूंजीवाद

  • ‘साम्यवाद’ और ‘पूंजीवाद’ नामक अपनाई गई दो आर्थिक प्रणालियाँ विफल हो गई हैं। एक ओर साम्यवाद ने जनसाधारण के जीवन स्तर में सुधार और समानता में वृद्धि की तो की, लेकिन यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने में विफल रहा। साथ ही, साम्यवाद के निजी संपत्ति का विचार आधुनिक संदर्भों में अस्तित्वविहीन हो गया। 
  • निजी संपत्ति की समस्या के समाधान में ‘पूंजीवाद’ का मत था कि सभी सार्वजनिक स्वामित्व वाले उद्यमों को निजी स्वामित्व वाले उद्यमों के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिये। इसके अलावा उच्च आय और संपदा पर करारोपण कम किया जाना चाहिये।
  • लेकिन,  पूंजीवाद ने लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसी कई मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं के साथ उन्हें समान अवसरों से वंचित कर दिया। इसने आर्थिक विकास को गति तो प्रदान की लेकिन यह समानता और सतत पारिस्थितिकी को सुनिश्चित करने में विफल रहा।
  • निजी संपत्ति ने प्राकृतिक पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचाया है। यह विश्वास था कि निजी संपत्ति के धारक प्राकृतिक संसाधनों का सतत व उचित उपयोग करेंगे, लेकिन यह व्यावहारिक साबित नहीं हुआ। 
  • गौर करने वाली बात है कि जब प्राकृतिक संसाधन और ज्ञान ‘बौद्धिक संपदा’ में परिवर्तित हो जाते हैं तो व्यावसायिक निगमों की संपत्ति बन जाते हैं, इसका उपयोग वे व्यावसायिक लाभों के लिये करते हैं। इससे पारिस्थितिक संतुलन के साथ-साथ सामाजिक समानता को हानि पहुँचती है।

लोकतांत्रिक समाजवाद : वर्तमान की आवश्यकता

  • साम्यवाद और संपत्ति आधारित पूंजीवाद दोनों ही अस्तित्वविहीन हो गए हैं। पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन और राजनीतिक परिवर्तनों ने इस बात की ओर ध्यान केंद्रित किया है कि पूंजीवाद में सुधार की आवश्यकता है।
  • इसके अतिरिक्त, आर्थिक नीतियाँ नए विचारों पर आधारित होनी चाहिये, जिसमें मानवाधिकारों के सिद्धांतों को संपत्ति के अधिकारों पर प्राथमिकता न दी गई हो। 
  • 21वीं सदी में समानता और सतत विकास को ध्यान में रखकर संपदा-सृजन (Wealth Creation) सुनिश्चित किया जाना चाहिये। इसके लिये सहकारिता आधारित अर्थव्यवस्था के साथ महात्मा गांधी के ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ को अपनाए जाने की आवश्यकता है, जिसमें निचले स्तर पर आय और संपदा का सृजन होगा ताकि समाज में मानवता अक्षुण्ण बनी रहे।
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