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न्यायाधिकरण सुधार विधेयक 

(प्रारंभिक परीक्षा-  राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान, सांविधिक, विनियामक और विभिन्न अर्द्ध-न्यायिक निकाय)

संदर्भ 

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने देश में कई महत्त्वपूर्ण अर्ध-न्यायिक निकायों या अधिकरणों में कर्मचारियों की भारी कमी को लेकर इसके काम काज पर असंतोष व्यक्त किया था। साथ ही, लोकसभा में भी न्यायाधिकरण सुधार विधेयक, 2021 पारित किया गया है।

न्यायाधिकरण सुधार विधेयक

  • राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 123 के खंड (1) के अधीन 4 अप्रैल, 2021 को ‘अधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) अध्यादेश, 2021 जारी किया था। इसमें अपीलीय निकायों के रूप में कार्य करने वाले आठ अधिकरणों को भंग करने और उसके कार्यों को मौजूदा न्यायिक मंचों, जैसे- सिविल कोर्ट या उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव था।
  • वित्त मंत्री ने ‘अधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) विधेयक’ के स्थान पर ‘अधिकरण सुधार विधेयक, 2021’ पेश किया है। यह विधेयक इससे संबंधित अध्यादेश का स्थान लेगा।
  • विधेयक के अनुसार, भंग किये जाने वाले अधिकरणों के अध्यक्ष और सदस्य तीन महीने के वेतन के बराबर मुआवजे और भत्ते के हकदार होंगे। इसमें कुछ अन्य न्यायाधिकरणों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव का भी प्रस्ताव है।

बदलाव 

  • न्यायाधिकरण सुधार विधेयक, 2021 के माध्यम से चलचित्र अधिनियम 1952, सीमा शुल्क अधिनियम 1962, भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण अधिनियम 1994, व्यापार चिन्ह अधिनियम 1999 तथा कुछ अन्य अधिनियमों में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है।
  • इस विधेयक में न्यायाधिकरणों में खोज और चयन समितियों के लिये एकसमान वेतन व नियमों का प्रावधान है। इसमें न्यायाधिकरण के सदस्यों को हटाने का भी प्रावधान है। कुछ शर्तों के अधीन खोज-सह-चयन समिति की सिफारिश पर केंद्र सरकार किसी भी अध्यक्ष या सदस्य को हटा सकती है।
  • अधिकरणों के अध्यक्ष और न्यायिक सदस्य उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश होते हैं। इन न्यायिक निकायों की स्वतंत्रता और कामकाज को लेकर अधिक जवाबदेही की आवश्यकता है। 
  • इस संदर्भ में राज्य अधिकरणों के लिये खोज-सह-चयन समिति में राज्य के मुख्य सचिव तथा संबंधित राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष शामिल होंगे और इनके पास मतदान का अधिकार होगा। साथ ही, राज्य के सामान्य प्रशासनिक विभाग के सचिव या प्रधान सचिव भी समिति में शामिल होंगे, किंतु उनके पास मतदान का अधिकार नहीं है। 
  • इससे चयन प्रक्रिया में सरकार की भूमिका में वृद्धि होगी। समिति का नेतृत्व करने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पास निर्णायक मत का अधिकार नहीं होगा।

विधेयक द्वारा भंग किये जाने वाले आठ अधिकरण 

अधिनियम के तहत गठित अधिकरण

भंग किये गए अधिकरण

कार्यों का स्थानांतरण

चलचित्र अधिनियम, 1952

फिल्म प्रमाणन अपीलीय अधिकरण 

उच्च न्यायालय 

व्यापार चिन्ह अधिनियम, 1999

बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड 

उच्च न्यायालय 

कॉपीराइट अधिनियम, 1957

बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड

उच्च न्यायालय का वाणिज्यिक प्रभाग 

सीमा शुल्क अधिनियम, 1962

सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क और सेवा कर अपीलीय अधिकरण 

उच्च न्यायालय 

पेटेंट्स अधिनियम, 1970

बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड

उच्च न्यायालय 

भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण अधिनियम, 1994 

विमानपत्तन अपीलीय अधिकरण

केंद्र सरकार और उच्च न्यायालय 

राष्ट्रीय राजमार्ग नियंत्रण (भूमि व यातायात) अधिनियम, 2002 

राष्ट्रीय राजमार्ग अधिकरण

सिविल न्यायालय 

वस्तुओं का भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 

बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड

उच्च न्यायालय 

कारण 

  • सरकार का तर्क है कि विगत तीन वर्षों के  आँकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि विभिन्न क्षेत्रों में न्यायाधिकरणों ने त्वरित न्याय नहीं प्रदान किया और राजकोष पर अतिरिक्त दबाव डाल रहे हैं। 
  • उच्चतम न्यायालय ने बहुत से निर्णयों में अधिकरणों से उच्चतम न्यायालय में सीधे अपील दायर करने का विरोध किया है। अत: अधिकरणों के अधिक सरलीकरण की आवश्यकता महसूस की गई क्योंकि इससे राजकोष में पर्याप्त खर्च की बचत होगी और त्वरित न्याय प्रदान किया जा सकेगा।
  • भारत में अब 16 ट्रिब्यूनल हैं। इनमें राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण, सशस्त्र बल अपीलीय न्यायाधिकरण, ऋण वसूली न्यायाधिकरण सहित अन्य अधिकरणों में कई पद रिक्त हैं।

आलोचना

  • यह विधेयक न्यायपालिका के अधिकार पर अतिक्रमण करने का एक प्रयास हो सकता है। साथ ही, इन अधिकरणों के मामलों को उच्च न्यायालयों या वाणिज्यिक सिविल अदालतों में स्थानांतरित कर दिया जाएगा। इस कदम की प्रभावशीलता को लेकर कानूनी विशेषज्ञों के बीच मतभेद है।
  • विशेषज्ञों को डर है कि नियमित अदालतों में संबंधित विषय विशेषज्ञों की कमी निर्णय लेने की प्रक्रिया के लिये नुकसानदायक हो सकती है।
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