(प्रारम्भिक परीक्षा: आर्थिक और सामाजिक विकास, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3: विषय- भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय, निवेश मॉडल, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव)
हाल ही में, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय(एन.एस.ओ.) ने जी.डी.पी. के नए तिमाही आँकड़े जारी किये हैं।नवीन आँकड़ों के अनुसार 2019 में इसी अवधि (अप्रैल-जून) की तुलना में 2020 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के बजाए 23.9% का संकुचन देखा गया।
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- वर्ष 1996 से भारत में तिमाही आँकड़ों जारी करने शुरू किये गए, तब से यह अबतक का सबसे तेज़ संकुचन है।
- इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सकल मूल्य वर्द्धन (GVA) वृद्धि दर में भी 22.8% की गिरावट आई है।
- सकल घरेलू उत्पाद (GDP) या जी.डी.पी. या सकल घरेलू आय (GDI), किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक प्रदर्शन की एक बुनियादी माप है, यह एक वर्ष में एक राष्ट्र की सीमा के भीतर सभी अंतिम माल और सेवाओ का बाज़ार मूल्य है।
- किसी देश की अर्थव्यवस्था में सभी क्षेत्रों, यथा- प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक क्षेत्र और तृतीयक क्षेत्र द्वारा किये गए अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के कुल उत्पादन के मौद्रिक मूल्य को सकल मूल्य वर्द्धन कहते हैं। सामान्य शब्दों में GVA के द्वारा किसी अर्थव्यवस्था में होने वाले कुल निष्पादन व आय का पता चलता है। किसी उत्पाद के मूल्य से उसकी इनपुट लागत और कच्चे माल की लागत में कटौती के बाद बची राशि को GVA कहते हैं।
- दोनों में क्या फर्क होता है?
- GVA के द्वारा प्रोड्यूसर/सप्लायर/उत्पादक की तरफ से होने वाली आर्थिक गतिविधियों का पता चलता है जबकि जी.डी.पी. के द्वारा डिमांड/कंज़्यूमर/उपभोक्ता के तरफ की तस्वीर दिखती है। ज़रूरी नहीं कि दोनों ही आँकड़े एक से हों क्योंकि इन दोनों की सकल कर गणना में फर्क होता है। वित्तीय वर्ष 2015-16 से सकल मूल्य वर्द्धन की अवधारणा को शुरू किया गया है।
- GVA की गणना इसलिये भी शुरू की गई क्योंकि इससे मिलने वाली क्षेत्रवार वृद्धि से नीति निर्धारकों को यह फैसला करने में आसानी होती है कि किस सेक्टर को प्रोत्साहन राशि वाले राहत पैकेज की ज़रूरत है। कुछ लोगों का मानना है कि GVA अर्थव्यवस्था की स्थिति जानने का सबसे अच्छा तरीका है क्योंकि सिर्फ ज़्यादा कर संग्रहण होने से यह मान लेना सही नहीं होता कि उत्पादन में तेज़ बढ़ोतरी हुई है क्योंकि ऐसा तो ज़्यादा कवरेज की वजह से भी हो सकता है और इससे वास्तविक उत्पादन की गलत तस्वीर भी मिल सकती है। लेकिन जी.डी.पी. का आँकड़ा तब अहम साबित होता है जब अपने देश की तुलना दूसरे देश की अर्थव्यवस्था से की जाती है।
प्रमुख बिंदु:
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- क्षेत्रवार आँकड़े: इस तिमाही में निर्माण, विनिर्माण, व्यापार, होटल और अन्य सेवाएँ और खनन सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र थे, जिनमें क्रमशः 50.3%, 39.3%, 47.0% और 23% का संकुचन दर्ज किया गया।
- यह संकुचन इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के दौरान महामारी और लॉकडाउन की वजह से आर्थिक गतिविधि में अभूतपूर्व गिरावट को दर्शाता है।
- इस दौरान केवल कृषि क्षेत्र ने 3.4% की सकारात्मक वृद्धि दिखाई दी।
- जी.डी.पी. संकुचन के कारक:किसी भी अर्थव्यवस्था में, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि विकास के चार कारकों पर निर्भर करती है। ये चार कारक हैं: निजी खपत, निजी क्षेत्र के व्यवसायों द्वारा उत्पन्न माँग एवं सरकार व निर्यात द्वारा उत्पन्न माँग।
- निजी खपत में 27% की गिरावट आई है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को चलाने वाला सबसे बड़ा कारक है।
- निजी क्षेत्र के व्यवसायों द्वारा निवेश में 47% की गिरावट आई है। यह दूसरा सबसे बड़ा कारक है।
- शुद्ध निर्यात माँग इस पहली तिमाही में सकारात्मक हो गई है क्योंकि कोविड-19 की वजह से भारत का आयात,निर्यात की तुलना में बहुत कमथा।
- यद्यपि कागज़ों पर, इससे यह पता चलता है कि किसी देश की जी.डी.पी.कितनी बढ़ गई है लेकिन अक्सर वास्तविकता में यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था की ओर भी इशारा करता है, जहाँ की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई हो।
- सरकार का व्यय 16% तक पहुँच गया था लेकिन यह अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों (कारकों) की माँग में हुए नुकसान की भरपाई के लिये आवश्यक मात्रा से बहुत कम था।
प्रभाव:
- नौकरियों पर: जिन क्षेत्रों में संकुचन हुआ है, जैसे निर्माण (50 % संकुचन), विनिर्माण (39 % संकुचन), खनन (23 % संकुचन) और व्यापार, होटल तथा अन्य सेवा (47 % संकुचन) आदि, ये वे क्षेत्र हैं जो देश में अधिकतम नई नौकरियों का सृजन करते हैं।
- इसलिये ऐसी स्थिति में जब लगभग हर क्षेत्र में तेज़ी से संकुचन हो रहा है तो आने वाले समय में पहले से कार्य कर रहे लोगों को अपना रोज़गार खोना पड़ सकता है और नए लोगों को भी इन क्षेत्रों में काम ढूँढने में मुश्किल होगी।
- अनौपचारिक क्षेत्र पर: आर्थिक संकट की वास्तविकता और ज़्यादा गहरी होने की सम्भावना है क्योंकि लघु क्षेत्र और अनौपचारिक क्षेत्र, संगठित क्षेत्र की तुलना में ज़्यादा प्रभावित हुए हैं, यद्यपि तिमाही के वर्तमान आँकड़ों में यह संख्या परिलक्षित नहीं होती।
- बैंकों पर: अधिस्थगन (moratorium) समाप्त होने के बाद बैंकिंग क्षेत्र में बैंक ऋणों का डिफ़ॉल्ट होना बैंकिंग क्षेत्र के संकटों को और बढ़ाएगा, जिससे बैंकों की उधार देने की क्षमता और दिये गए ऋण पर असर पड़ेगा।
- इसके अलावा, लोगों द्वारा लिया गया घरेलू ऋण भी चिंता का विषय है क्योंकि लोगों की आय में वृद्धि हो नहीं रही, वेतन में कटौती हो रही है और बहुत से मामलों में लोगों की नौकरी भी छूट गई है।
- अर्थव्यवस्था पर: अधिकांश पर्यवेक्षकों द्वारा अपेक्षित संकुचन से भी ज़्यादा संकुचित होने की वजह से, अब यह माना जा सकता है कि आने वाले पूरे वित्तीय वर्ष की जी.डी.पी. भी खराब हो सकती है।
सम्भावित समाधान:
- जैसे-जैसे व्यक्तियों की आय में तेज़ी से गिरावट आती है, उनकी खपत कम हो जाती है। जब खपत तेज़ी से कम होती है, तो व्यवसाय में उनका निवेश करना कम हो जाता है। चूँकि ये दोनों ही स्वैच्छिक निर्णय हैं, इसलिये लोगों को अधिक निवेश करने के लिये मज़बूर करने या बड़े व्यवसायों में निवेश करवाने का कोई तरीका उपलब्ध नहीं है।
- यही तर्क निर्यात और आयात के लिये भी लागू होता है।
- इसलिये इन परिस्थितियों में, केवल एक कारक है जो जी.डी.पी. को मज़बूती दे सकता है, वह है सरकार।
- यदि सरकार सड़कों और पुलों के निर्माण में ज़्यादा से ज़्यादा खर्च करे या लोगों को इन निर्माण कार्यों के लिये वेतन का भुगतान करना शुरू करे या किसी भी अन्य प्रकार से लोगों के हाथ में पैसा आएगा तो मध्यम अवधि के लिये अर्थव्यवस्था ऊपर आ सकती है।
- यदि सरकार पर्याप्त रूप से इन क्षेत्रों (विनिर्माण आदि) में खर्च नहीं करेगी तो अर्थव्यवस्था को दुरुस्त होने में लम्बा समय लग सकता है।
- भारत सरकार मैकिंसे ग्लोबल इंस्टिट्यूट द्वारा सुझाए गए उपायों को भी अपना सकती है, जिनके द्वारा जी.डी.पी.को अतिरिक्त 3.5% तक ऊपर लाया जा सकता है। ये उपाय निम्न हैं-
- ग्लोबल शिफ्ट: डिजिटलीकरण, स्वचालन, आपूर्ति श्रृंखला में बदलाव, शहरीकरण, बढ़ती आय, जनसांख्यिकीय बदलाव, स्थिरता, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे वैश्विक विषयों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना महामारी के बाद की अर्थव्यवस्था को ऊपर उठा सकता है।
- निजीकरण के माध्यम से उच्च उत्पादकता: अपनी उत्पादकता को सम्भावित रूप से दोगुना करने के लिये सरकार के स्वामित्व वाले लगभग 30 सबसे बड़े उद्यमों का निजीकरण।
- आत्मनिर्भर भारत के तहत भी निजीकरण पर ध्यान देना।
- अवसंरचना में सुधार: भारत को 20-25% तक भूमि लागत को कम करते हुए भूमि बाज़ारों में आपूर्ति को बहाल करने की आवश्यकता है, वाणिज्यिक और औद्योगिक टैरिफ को 20-25% तक कम करने के लिये कुशल रूप से बिजली वितरण सुनिश्चित करना और व्यापार सुगमता में सुधार करना।
- कुशल वित्तपोषण: राजकोषीय संसाधनों को सुव्यवस्थित करने से निवेश में 2.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक का उछाल मिल सकता है तथा उद्यमों के लिये पूँजी की लागत लगभग 3.5% तक कम करके उद्यमशीलता को बढ़ावा भी दिया जा सकता है।
- बैड बैंक के निर्माण द्वारा निष्क्रिय सम्पत्तियों की देखभाल की जा सकती है।