New
July Offer: Upto 75% Discount on all UPSC & PCS Courses | Offer Valid : 5 - 12 July 2024 | Call: 9555124124

घरेलू कार्य में महिलाओं का योगदान : मूल्यांकन का आभाव

(प्रारंभिक परीक्षा- सामाजिक क्षेत्र में की गई पहल, अधिकारों संबंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 व 3 : महिलाओं की भूमिका, सामाजिक सशक्तीकरण, भारतीय अर्थव्यवस्था- प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय)

संदर्भ

हाल ही में, अभिनेता कमल हसन की पार्टी ने गृहिणियों को वेतन देने का वादा किया, जिसने घरेलू कार्य को आर्थिक मान्यता देने की बहस को पुनर्जीवित कर दिया है। देवी के रूप में महिमामंडित किये जाने के बाबजूद महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित रखा गया है।

घरेलू कार्य और आँकड़े

  • वर्ष 2011 की जनगणना में लगभग 85 मिलियन महिलाओं ने घरेलू कार्य को अपने मुख्य व्यवसाय के रूप में चुना है, जबकि केवल 5.79 मिलियन पुरुषों ने ही इसे अपने मुख्य व्यवसाय के रूप में संदर्भित किया है।
  • हाल ही में, न्यायमूर्ति एन.वी. रमन्ना ने ‘कीर्ति और अन्य बनाम ओरिएण्टल इनश्योरेंस कंपनी’ निर्णय में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ‘भारत में समय का उपयोग-2019 रिपोर्ट’ (Time Use in India-2019 Report) का उल्लेख किया, जिसके अनुसार भारतीय महिलाएँ अवैतनिक ‘घरेलू सेवाओं और कार्यों’ पर एक दिन में औसतन 299 मिनट खर्च करती हैं, जबकि पुरुष सिर्फ 97 मिनट खर्च करते हैं।
  • साथ ही, महिलाएँ घर के सदस्यों के लिये अवैतनिक ‘देखभाल सेवाओं’ के रूप में एक दिन में 134 मिनट खर्च करती हैं।
  • वर्ष 2009 में आर्थिक प्रदर्शन और सामाजिक प्रगति के मापन पर फ्रांसीसी सरकार के एक आयोग द्वारा जर्मनी, इटली, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, फिनलैंड और अमेरिका में किये गए अध्ययन में इसी तरह के निष्कर्ष सामने आये हैं।
  • ‘अवैतनिक कार्य के माध्यम से महिलाओं का आर्थिक योगदान : भारत की केस स्टडी’ (2009) नामक एक रिपोर्ट में महिलाओं द्वारा सेवाओं के आर्थिक मूल्य का अनुमान 8 बिलियन डॉलर वार्षिक व्यक्त किया गया था।
  • विदित है कि ब्रिटिश अर्थशास्त्री आर्थर सेसिल पिगौ ने कहा था कि राष्ट्रीय आय की गणना करते समय पत्नियों द्वारा किये गए घरेलू कार्य पर विचार नहीं किया जाता है।

महिलाओं द्वारा घरेलू कार्य से संबंधित न्यायिक टिप्पणियाँ

  • ‘अरुण कुमार अग्रवाल बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी’ (2010) में उच्चतम न्यायालय ने न केवल गृहिणियों के अमूल्य योगदान को स्वीकार किया बल्कि यह भी विचार व्यक्त किया कि संपत्ति के द्वारा इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है क्योंकि प्रेम और स्नेह (भावनात्मक रूप से) के साथ प्रदान की गई उनकी सेवाओं की बराबरी पेशेवर तरीके से प्रदान की गई सेवाओं के साथ नहीं की जा सकती है।
  • न्यायमूर्ति ए.के. गांगुली ने वर्ष 2010 में एक निर्णय में 2001 की जनगणना का उल्लेख किया था, जिसमें घरेलू कर्तव्यों का निर्वहन करने वालों को श्रेणीबद्ध किया गया था। इसके अनुसार, भारत में लगभग 36 करोड़ महिलाओं को गैर-श्रमिक के रूप में श्रेणीबद्ध करते हुए उन्हें भिखारियों, वेश्याओं और कैदियों के साथ रखा गया था।

समाजिक संरचना और घरेलू कार्य

  • सदियों से विवाह की निरंतरता के दौरान होने वाली कमाई में महिलाओं का अधिकार नगण्य था। आधुनिक युग में गृहणियों के द्वारा घरेलू कार्यों को कार्य के रूप में मान्यता देने की बात तो दूर, घर के बाहर कार्य के संबंध में भी उनको कोई अधिकार नहीं था। वास्तव में वर्ष 1851 तक किसी भी देश ने किसी भी प्रकार की कमाई में पत्नी के अधिकार को मान्यता नहीं दी थी।
  • 19वीं शताब्दी के मध्य तक कुछ अमेरिकी राज्यों ने अधिनियमों के माध्यम से वैवाहिक स्थिति के सामान्य कानून में सुधार करना शुरू किया। धीरे-धीरे पत्नियों को उनके ‘व्यक्तिगत’ श्रम से कमाई में संपत्ति के अधिकार प्रदान किये गए। हालाँकि, अमेरिकी गृहयुद्ध के बाद की जनगणना में घरेलू कार्यों को ‘अनुत्पादक’ कहा गया।

पृथक सामाजिक वर्ग

  • सदियों से घर और बाज़ार को दो अलग-अलग क्षेत्रों के रूप में माना जाता था। बाज़ार को पुरुषों का क्षेत्र माना जाता था जबकि घर को महिलाओं का क्षेत्र माना जाता था, जो बाज़ार की समस्या और संघर्ष से राहत प्रदान करता था।
  • इस संबंध में अमेरिकी नारीवादी अर्थशास्त्री नैन्सी फोल्ब्रे की टिप्पणी उल्लेखनीय है कि घर के रूप में महिलाओं को राहत देने जैसे नैतिक तर्क का उत्थान उनके द्वारा किये गए कार्यों के आर्थिक अवमूल्यन के साथ हुआ। इस प्रकार यह तर्क परिवार की संपत्ति पर पति के नियंत्रण को सही ठहराना और उनके कानूनी अधिकार को सुदृढ़ करना था।
  • वॉर्सेस्टर अभिसमय के बाद अंततः सफलता प्राप्त हुई जब वैवाहिक संपत्ति में पत्नियों के समान अधिकारों को मान्यता दी गई थी। वर्ष 1972 में इंग्लैंड में संपन्न तीसरी राष्ट्रीय महिला मुक्ति सम्मेलन में पहली बार घरेलू कार्य के लिये मज़दूरी के भुगतान की स्पष्ट रूप से माँग की गई।

भारत की स्थिति

  • भारत में विवाहित महिलाओं के संयुक्त संपत्ति अधिकारों पर बहस नई नहीं है, हालाँकि, भारत में अभी भी संयुक्त वैवाहिक संपत्ति कानून नहीं है।
  • वीना वर्मा ने वर्ष 1994 में विवाहित महिला (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक,1994 के नाम से निजी सदस्य के रूप में एक बिल पेश किया था। इसमें यह प्रावधान किया गया था कि विवाहित महिला अपने विवाह की तिथि से अपने पति की संपत्ति में बराबर की हकदार होगी।
  • परंतु वर्ष 2010 में ‘नेशनल हाउसवाइव्स एसोसिएशन’ को एक ट्रेड यूनियन के रूप में पंजीकरण से भी इनकार कर दिया गया क्योंकि घरेलू कार्य को न तो व्यापार और न ही उद्योग के रूप में मान्यता प्राप्त थी।

सुझाव

  • वर्ष 2012 में सरकार ने पति द्वारा अनिवार्य रूप से अपनी पत्नियों को मासिक ‘वेतन’ देने का प्रस्ताव दिया था। हालाँकि, मासिक भुगतान के रूप में 'वेतन' शब्द का प्रयोग वास्तव में समस्याग्रस्त है क्योंकि यह नियोक्ता-कर्मचारी संबंध को इंगित करता है।
  • नियोक्ता अपने अधीनस्थ कर्मचारी पर अनुशासनात्मक नियंत्रण रखता है, जिससे पति और पत्नी के बीच स्वामी और सेवक का संबंध पनपने लगता है।
  • वर्ष 1991 में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र की समिति ने महिलाओं की अवैतनिक घरेलू गतिविधियों और जी.डी.पी. में उसकी गणना की माप और मात्रा का निर्धारण करने की सिफारिश की थी ताकि महिलाओं के वास्तविक आर्थिक योगदान पर प्रकाश डाला जा सके।
  • वैवाहिक संपत्ति कानून महिलाओं को संपति का अधिकार देते हैं लेकिन केवल तभी जब वैवाहिक बंधन समाप्त हो जाते हैं। अब समय आ गया है कि विवाह की निरंतरता के दौरान महिलाएँ परिवार के लिये जो कार्य करती हैं, उन्हें पुरुषों के कार्य की तरह समान रूप से महत्त्व दिया जाना चाहिये।
  • विवाह पूर्व समझौते में पति की कमाई और संपत्ति में पत्नियों के अधिकार संबंधी धारा को शामिल करके इस समस्या को हल किया जा सकता है।
Have any Query?

Our support team will be happy to assist you!

OR